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गर्मकाल के दिन पूर्ण होने पर रानी पृथ्वीसेना ने ज्येष्ठ शुक्लाद्वादशी के दिन शुभयोग में भगवान सुपार्श्वनाथ राज्य का भार पुत्र को सौंपकर देव निर्मीत 'मनोगति पुत्र रत्न प्रसव किया। पुत्र की कान्ति से समस्त गृह प्रकासित हो गया था। देवों ने नामकी पालकी में बैठकर सहेतुक वन में गये। पालकी से उतर कर दिगम्बर आकर मेरुपर्वत पर पाण्हक शिला पर बालक का अभिषेक किया बालक का नाम दीक्षा धारण कर ली। एक दिन उसी वन में उपवास का नियम लेकर शिरीष वक्षा सुपार्श्व रखा। भगवान सुपार्श्वनाथ बाल्यावस्था से युवावस्था में पहुंचे। उनका के नीचे विराजमान हुए। केवलज्ञान प्राप्त किया। देवों ने आकर ज्ञान कल्याणक राज्याभिषेक हुआ। उनका शासन अत्यन्त लोक प्रिय था। अनेक आर्य कन्याओं के उत्सव मनाया । समवशरण की रचना की। अनेक देशों में विहार किया। लोगों साथ इनका विवाह हुआ था। वे भोगों से निर्लिप्त रहते थे। मुक्त भोग नूतन कर्म बंध के को धर्म का स्वरूप समझाया। आय के अन्तिम समय में श्री सम्मेद शिकर जा कारण नहीं होते थे। इस तरह सुख पूर्वक राज्य करते हुए उन्हें किसी कारण वश संसार
पहुंचे। प्रतिमा योग धारण कर फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में से विरक्ती हो गई। अब तक की आयु के व्यर्थ बीत जाने पर घोर पश्चाताप किया। राज,।।
जा मोक्ष प्राप्त किया। भगवान सुपार्श्वनाथ का स्वस्तिक का चिह्न था। घर, परिवार का मोह त्याग वन में जाकर तप करने का दृढ निश्चय किया।
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||भगवान श्री चन्द्रप्रभ जी।।
एक दिन राजा श्रीषेण महारानी श्रीकान्ता के साथ वन विहार कर रहे थे, कि वहां समुद्रों से घिरे हुए मध्यलोक में पुष्कर द्वीप के सुगन्धि देश में श्रीपुर नगर में उनकी दष्टी एक मनिराज पर पडी। रानी के साथ उन्हें नमस्कार करके धर्म श्रवण श्रीषेण का राज्य था। वह बहुत बलवान, धर्मात्मा एवं नीतिज्ञ था। उनकी करने की इच्छा से उनके पास बैठ गये। धर्म चर्चा के बाद उन्होंने मुनिराज से पूछामहारानी श्रीकान्ता दिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी थी। धन धान्य सम्पन्न थे।
नाथ ! मैं इस तरह कब तक राजन ! तुम्हारे हृदय में निरन्तर पुत्र की इच्छा बनी सुख पूर्वक समय व्यतीत हो रहा था। श्री कान्ता का यौवन व्यतीत होने को
गृह जंजाल में फंसा रहूंगा? रहती है। बस पुत्र की इच्छा ही मुनि बनने में बाधक आया । पर उनके कोई सन्तान नही हुई। राजा ने रानी को समझाया
क्या कभी मुझे दिगम्बर मुद्रा है। आपकी महारानी श्री कान्ता ने पूर्व भव में गर्भ जो वस्तु मनुष्य के पुरुषार्थ से सिद्ध नहीं हो सकती उसकी चिन्ता नहीं करनी
| भार से पीड़ित युवती को देखकर अभिलाषा की थी। चाहिए। कर्मों के ऊपर किसका वश है? तुम्ही कहो, किसी तीव्र पाप का उदय
मेरे कभी यौवनावस्था में सन्तान न हो। इसी कारण ही पुत्र-प्राप्ति में बाधा है, इसलिए पात्रदान, जिनपूजन, व्रत उपवास आदि
पुत्र नहीं हुआ। अब दुष्कर्मों का निवारण होने वाला शुभकार्य करो, जिससे अशुभ कर्मों का बल नष्ट होकर शुभ कर्मों का बल बढे।
है। शीघ्र ही आपके पुत्र होगा। फिर पुत्र को राज्य
देकर दीक्षित हो जायेंगे।
प्राप्त होगा?
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चौबीस तीर्थकर भाग-2