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देवेन्द्र ने आकर उनका ज्ञान कल्याणक मनाया। समवशरण की भगवान श्री पद्मप्रभ जी।। रचना की। उन्होंने उपस्थित जनसमूह को धर्म अधर्म का स्वरूप दूसरे घात की खण्ड दीप स्थित वत्स देश के ससीमा नगर में किसी समय अपराजित बतलाया। उन्होने आर्य क्षेत्रों विहार कर समीचीन धर्म का खूब प्रचार नाम के राजा थे। वह हमेशा अपनी प्रजा की भलाई में लगा रहता था। उसकी रानियां किया। अंतिम दिनों में सम्मेद शैल पर आये वहीं योग निरोधकर | अनुपम सुन्दर थीं। उनके साथ सांसारिक सुख भोगता हआ दीर्घ काल तक पृथ्वी का विराजमान हो गये। चेत्र सुदी एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में मुक्ति
| पालन करता रहा। एक दिन किसी कारण से उसका चित्त विषय वासनाओं से विरक्त हो मंदिर में प्रवेश किया। देवों ने वहीं मोक्ष कल्याणक उत्सव मनाया गया, इसलिए वह अपने पुत्र को राज्य सौंपकर वन में जाकर दीक्षित हो गया। सोलह उनका चिह्नचकवा था।
भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थकर प्रकृति का बंध कर लिया। आयुसमाप्त होने पर शुद्ध आत्मा के ध्यान में लीन हो गया। जिससे नव में ग्रैवेयक के प्रीतिकर विमान में ऋद्धिधारी अहमिन्द्र हुआ।ये ही अहमिन्द्र भगवान पद्मप्रभ होंगे।
जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र की कौशाम्बी नगरी में इक्ष्वाकुवंशीय राजा धरण का | जब युवा हुए तब राजा धरण इन्हें राज्य देकर आत्म कल्याण की ओर शासन था। उनकी महारानी सुसीमा सर्वगुण सम्पन्न थी। रत्नों की वर्षा प्रवृत हो गये। भगवान पद्मप्रभ भी नीति से प्रजापालन करने लगे। अनेक देखकर कुछ भला होने वाला है। यह सोचकर राजा धरण अत्यन्त हर्षित । सुन्दरी सुशील कन्याओं से विवाह हुआ। आनन्द पूर्वक समय व्यतीत हो होते थे। महारानी सुसीमान सोलह स्वप्न देखने के बाद मुख में प्रवेश करते। रहा था। एक दिन वे द्वार पर बंधे हुए हाथी के पूर्व भव सुनकर प्रतिबुद्ध हो हुए हाथी को देखा। रानी के पूछने पर राजाधरण ने स्वप्नों का फल बनाया। गये। उसी समय उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो आया। जिससे उनके आज तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर बालक ने प्रवेश किया है। ये स्वप्न उसी | अंतरंग नेत्र खुल गये। सोचा- मैं जिन पदार्थों को अपना समझ के अभ्युदय के सूचक हैं।
उनमें अनुराग कर रहा हूँ वे किसी भी तरह मेरे नहीं हो सकते, क्यों कि मैं सचेतन जीव द्रव्य हूँ एवं ये पर-पदार्थ अचेतन पुण्डल रूप है। एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य रूप परिणमन त्रिकाल में भी नही हो सकता। खेद है कि मैंने इतनी विशाल आयु इन्हीं भोग विलासों में बिता दी।
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नौ माह बाद कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन मघानक्षत्र में माता सुसीमा ने उत्तम बालक को जन्म दिया। देवों ने बालक को मेरूशिखर पर ले जाकर क्षीर। सागर के जल से उसका अभिषेक किया। बालक के शरीर की कान्ति पद्म के समान थी इसलिए उस का नाम पद्मप्रभ रखा।
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चौबीस तीर्थकर भाग-2