Book Title: Choubis Tirthankar Part 02
Author(s): 
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

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Page 23
________________ | भगवान पद्मप्रभ पुत्र को राज्य सौंपकर देव निर्मित 'निवृति' नामक पालकी पर आरूढ हो कर मनोहर नाम के वन में गये। वहां उन्होंने जिनेश्वरी दीक्षा धारण करली। । आत्म ध्यान में लीन हो गये। दो या चार दिन के अन्तर से आहार लेकर तपस्या करते हुए छह माह मौन पूर्वक बीत गये। क्षपक श्रेणी में आरूढ होकर शुक्ल ध्यान से चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन चित्रानक्षत्र में 'केवल ज्ञान' प्राप्त हुआ। देव देवन्द्रों ने आकर ज्ञान कल्याणक का उत्सव मनाया। Comp. Vikas समय सरण व विहार करके समस्त आर्य क्षेत्रों में जैन धर्म का प्रचार किया। अंत में सम्मेद शिखर पर पहुंचे। वहां प्रतिमा योग धारण किया। शुद्ध आत्मा के स्वरूप का ध्यान किया। एक महने के बाद फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी के दिन चित्रा नक्षत्र में शुक्ल ध्यान के प्रताप से अविनाशी परम पद को प्राप्त हुए। इनका चिह्न कमल का था। उसने अपने पुत्र धनपति को राज्य सिंहासन पर बैठा दिया एवं वन में जाकर अर्हन्नन्दन मुनराज से दीक्षा ले ली। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। सोलह भावनाओं का चिन्तवन किया। जिससे तीर्थकर प्रकृति बंध हो गया। आयु के अन्त में समाधि पूर्वक शरीर त्याग कर सुभद्र नामक विमान में अहमिन्द्र हुआ। ये ही आगे चलकर भगवान सुपार्श्वनाथ होंगे। जैन चित्रकथा 2 ॥ भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी।। घात की खण्ड द्वीप के सुकच्छ देश में क्षेमपुर नगर के राजा नन्दिषेण बड़े विद्वान एवं चतुर शासक थे। उसकी रानियां अनुपम सुन्दरियां थी। वह धर्म कार्यों में सुदृढ़चित रहता था। बहुत समय व्यतीत हो गया तब एक दिन उसे सहस वैराग्य उत्पन्न हो गया। जिससे उसे समस्त भोग काले भुजंग की तरह प्रतीत होने लगे। अपने विशाल राज्य को विस्तृत कारागार समझा सोचायह जीव अरहट की घड़ी के समान निरन्तर चारों गतियों में घूमता रहता है। जो आज देव है वो कल तिर्यज हो सकता है। जो आज सिंहासन पर बैठा है। वही कल भिखारी भी हो सकता है। ओह! इतना सब होते हुए भी मैंने अभी तक इस संसार से छुटकारा पाने के लिए कोई उत्तम कार्य नहीं किया। अब मैं शीघ्र ही मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करूंगा । KOP न् SPOULTROUN 0200 जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में काशी देश के वाराणसी नगर में महाराजा सुप्रतिष्ठि राज्य करते थे। महारनी पृथ्वीसेना के साथ दम्पति सुख से रहते थे। महाराज सुप्रतिष्ठि के महल पर रत्नों की वर्षा होने लगी। कुछ समय बाद महारानी पृथ्वीसेना सोलह स्वप्न देखे अन्त में मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा। प्रातः काल पतिदेव से स्वप्नों का फल पूछा। राजा ने हर्ष से पुलकित होते हुए कहाप्रिय आज तुम्हारा नारी जीवन सफल हुआ। मेरा भी गृहस्थ जीवन निष्फल नहीं गया। आज तीर्थंकर पुत्र ने अवतार लिया है। 21

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