Book Title: Choubis Tirthankar Part 02
Author(s): 
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन चित्र कथा चौबीस तीर्थंकर भाग-2 You MAHAMAA AN Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय स्वरुप तीर्थंकर जैन धर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। जिसका भाव है, धर्म तीर्थ को चलाने वाला अथवा धर्म तीर्थ का प्रवर्तक । कभी ऐसा भी समय आता है, जब धर्म का प्रभाव क्षीण होने लगता है, उसमें शिथिलता आती है। उस समय ऐसे प्रखर ऊर्जावान महापुरुष जन्म लेते हैं, जो धर्म परम्परा में आई मलिनता और विकृतियों का उन्मूलन कर धर्म के मूल को पुनः स्थापित करते हैं ऐसे ही जगतोद्धारक महान् उन्नायक महापुरुष तीर्थंकर कहलाते हैं। ऐसे तीर्थंकर 24 होते हैं। तीर्थंकर संसार रुपी सरिता को पार करने के लिए धर्म शासन रुपी सेतु का निर्माण करते हैं। धर्म शासन के अनुष्ठान द्वारा अध्यात्मिक साधना कर जीवन को परम पवित्र और मुक्त बनाया जा सकता है। तीर्थंकर महापुरुष से मंडित होते हैं। जो समस्त विकारों पर विजय पा कर जिनत्व को उपलब्ध कर लेते हैं और कैवल्य प्राप्य कर निर्वाण के अधिकारी बनते हैं। वर्तमान कालचक्र मे भगवान ऋषभदेव प्रथम और भगवान महावीर अन्तिम चौबीस तीर्थकर हुए हैं। चौबीस तीर्थंकरों के घटना चक्र के बारे में चित्र कथाओं के माध्यम से बाल पीढ़ी को जानकारी मिल सके इस हेतु चौबीस तीर्थंकरों को तीन भागों में पढ़ कर आत्म सात करें। तीर्थंकरत्व की उपलब्धि सहज नही है। हर एक साधक आत्म साधना कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है, पर तीर्थंकर नही बन सकता। तीर्थंकरत्व की उपलब्धि बिरले साधकों को ही होती है। इसके लिए अनेकों जन्मों की साधना और कुछ विशिष्ठ भावनाएँ अपेक्षित होती हैं विश्व कल्याण की भावना से अनुप्राणित साधक जब किसी केवलज्ञान अथवा श्रतु केवली के चरणों में बैठकर लोक कल्याण की सुदृढ़ भावना पाता है तभी तीर्थंकर जैसी क्षमता को प्रदान करने में समर्थ तीर्थंकर प्रकृति नाम के महापुण्य कर्म का बन्ध करता है। इसके लिए सोलह कारण भावनाएँ बताई गई है जो तीर्थंकरत्व का कारण है पाठक गण इस चित्रकथा को पढ़कर तीर्थंकरों की विशेष जानकारी प्राप्त करें । व्रं धर्मचन्द शास्त्री अष्टापद तीर्थ जैन मंदिर आशीर्वाद प्रकाशक निर्देशक कृति सुनो सुनायें सत्य कथाऐं जैन चित्र कथा सम्पादक पुष्प नं. चित्रकार प्राप्ति स्थान श्री अभिनन्दन सागर जी महाराज आचार्य धर्मश्रु ग्रन्थमाला एवं भा. अनेकान्त विद्वत परिषद बं धर्मचंद शास्त्री चौबीस तीर्थंकर भाग - 2 रेखा जैन एम. ए. अष्टापद तीर्थ 52 बने सिंह राठौड़ 1. अष्टापद तीर्थ जैन मन्दिर 2. जैन मन्दिर गुलाब वाटिका सर्वाधिकार सुरक्षित अष्टापद तीर्थ जैन मन्दिर विलासपुर चौक, दिल्ली-जयपुर N. H. 8, गुड़गाँव, हरियाणा फोन : 09466776611 09312837240 मूल्य - 25 /- रुपये Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवशरण से लौटकर महाराज भरत ने पहले चक्र रत्न की पूजा की याचकों को इच्छानुसार दान देते हुए पुत्रोत्सव मनाया। फिर दिग्विजय यात्रा की तैयारी करने लगे । शुभ मूहर्त में प्रस्थान किया। अनेक हाथी, घोड़े एवं प्यादों से भरी हुई सम्राट की सेना बहुत प्रभावशाली मालूम होती थी। अयोध्यापुरी से निकलकर प्रकृति की शोभा निहारती मैदान में द्रुत गति से जाने लगी थी। बीच-बीच में अनेक अनुयायी राजा अपनी सेना सहित राजा भरत के साथ आ मिलते थे। सेना नदी की भांति उत्तरोत्तर बढती जातीथी। चौबीस तीर्थंकर भाग-2 चित्रांकन : बने सिंह Byाछ 5600000000 5600000000००० oodado49 Heulichy STOM Wat जैन चित्रकथा Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुत कुछ मार्ग अतिक्रमण करने पर राजा भरत गंगानदी के पास पहुंचे। गंगातट पर सेना का पड़ाव डालकर दूसरे दिन अत्यन्त ऊंचे विजयार्थ नामक हाथी पर बैठ कर समस्त सेना के साथ गंगानदी के किनारे प्रस्थान किया। बीच-बीच में अनेक नरपाल मुक्ताफल, कस्तूरी, सुवर्ण, रजत आदि का उपहार लेकर। सम्राट भरत से भेंट करने आ जाते थे। राजा मगधदेव के क्रोध का पारावार नहीं रहा। यह चक्रवती राजा भरत का बाण है। इसकी पूजा करनी चाहिए। इस समय दिग्विजय के लिए निकले हुए हैं। भरत क्षेत्र के छह खण्डों पर उनका एक छत्र राज्य होगा अतः प्रबल शत्रु से लड़ना उचित नहीं है। 0000000000 2 UTT 3 00 CDQUE PONCR स्थलमार्ग से वेदी द्वार में प्रविष्टि हुए यहां गंगा नदी के किनारे के वनों में अपनी विशाल सेना को ठहरा कर परमेष्ठी पूजा सामयिक आदि नित्यकर्म करके अजित जंच नामक रथ पर सवार होकर गंगाद्वार से लवण समुद्र में प्रस्थान किया। जब बारह योजन आगे निकल गये उन्होने अपना नामांकित बाण छोड़ा। त्यों हि वह बाण, मगधदेव की सभा में जा पड़ा। भरत 100% GULIA owa अब यह अनेक मणि मुक्ताफल लेकर मंत्री आदि आत्मीयजनों के साथ सम्राट भरत के पास पहुंचा। 1XT सेवक की इस अल्प भेंट को भी स्वीकार करें। चौबीस तीर्थंकर भाग-2 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवती भरत विजय प्राप्तकर शिविर वापिस आ गये । सेना दक्षिण एवं पश्चिम दिशा में विजय प्राप्त करने चलते-चलते चक्रवती भरत विजयाध पर्वत के ने हर्ष ध्वनि से समस्त आकाश गुंजायमान कर दिया। फिर कि बाद राजा भरत उत्तर दिशा की ओर चले। पास पहुंचे। सेना को रूकवाकर मंत्रों की दक्षिण दिशा के राजाओं को वश में करने के लिए प्रस्थान अब उनकी सेना अत्यधिक बढ़ गयी थी। क्यों आराधना में लग गये। कुछ समय बाद वहां का किया। अनेक देशों के राजाओं को अपने आधीन बनाते हए कि मार्ग में मिलने वाले अनेक राजा मित्र होकर देव राजा भरत से मिलने के लिए आया। सम्राट भरत इष्ट स्थान पर पहुंचे। मनोहर वन में सेना को अपनी-अपनी सेना लेकर उन्हीं के साथ मिल प्रभो ! मैं विजयार्ध नामक देव हूं। मैं व्यन्तर रूकवाकर वैजयन्त महाद्वार से दक्षिण लवणोदधि में प्रवेश जाते थे। उनकी जय ध्वनि सुनकते ही शत्रु हूँ, आपको आया देखकर सेना में उपस्थित |किया बारह योजन दूर जाकर उसके अधिपति व्यन्तर देव राजाओं के दिलं दहल जाते थे। हुआ हूँ। आज्ञा कीजिए हर तरह से आप को पराजित कर वापस आ गये। का सेवक हूँ। Das जब समस्त विजयार्ध पर हमारा अधिकार हो चुकेगा तभी दक्षिण भारत की दिग्विजय पूर्ण कहलायेगी। TAIN समस्त सेना सहित प्रस्थान कर विजयार्ध गिरि इस प्रकार सम्राट भरत की सेना सभी दिशाओं के राजाओं को जीत कर आगे बढ़ी जा रही थी। उनका सेनापति की पश्चिम गुफा के पास आये सेना ने वन में हस्तिनापुर के राजा सोमप्रभ का पुत्र जयकुमार था। वह बड़ा वीर बहादुर व निर्मल बुद्धि वाला था। उसने घूमशिविर डाल दिया। वहां के अनेक राजे उपहार घूम कर समस्त क्लेच्छ खण्डों में चक्रवर्ती भरत का शासन प्रतिष्ठित किया। अब चक्रवर्ती भरत समस्त सेना लेकर उनसे मिलने आये। उत्तर विजया का सहित मध्यम खण्ड को जीतने चल पड़े। उनके दो म्लेच्छ राजाओं ने सामना किया। उन्होंने नाग देवों का स्वामी कलमाल टेव श्री स्वागत के लिए आगया आह्वान किया। नागदेव मेघों का रुप बनाकर समस्त आकाश में फैल गये। मुसलाधार जल बरसाने लगे। ALI MVWWW जैन चित्रकथा Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट की आज्ञा से गणबद्ध देवों ने अप्रतिम हुंकार भरी। उसी समय पराक्रमी जयकुमार ने दिव्यधनुष से समस्त नागों को भगा दिया जब नागदेव भाग गये म्लेच्छ राजा हार मान कर सम्राट से मिलने आये । उपहार देकर गये। कुछ दिन चलकर हिमवत पर्वत के समीप पहुंचे चक्र रत्न की पूजा की व अनेक मंत्रों की आराधना करके वज्रमय धनुष लेकर हिमवत पर्वत के शिखर को लक्ष्य अमोघ बाण छोड़ा। उसके प्रताप से वहां रहने वाला देव नम्र होकर राजा भरत से मिलने आया। वहां से लौटकर वृषभाचल पर्वत पर पहुंचे। सम्राट भरत ने वहां पहुंच कर अपनी कीर्ति प्रशस्ति लिखनी चाही, पर उन्हें कोई शिला तल खाली नही मिला। जिस पर किसी का नाम अंकित नही हो । [1000वर @ste वृषभाचल से लौटकर गंगा द्वार पर आये गंगा देवी ने अभिषेक कर उन्हें अनेक रत्नों के आभूषण भेंट किये। फिर विजयार्ध गिरि के पास आये, इसी बिच विद्याधरों के राजा नागिन वन में अनेक उपहार लेकर सम्राट से भेंट करने आये। राजा नमि ने उनके साथ अपनी बहिन सुभद्रा का विवाह कर दिया। अपमा Te WAT Can 3 c2-/ 02121 वहां से चल कर सम्राट भरत कैलाश गिरि पहुंचे। कैलाश गिरि के गगन चुम्बी धवल शिखरों के सौन्दर्य से सम्राट मुग्ध हो गये। 221 प 200 अब तक राजा भरत का हृदय दिग्विजय के अभिमान से फूला न समाता था । अरे यहां तो मेरे से पहले अनेक चक्रवती राजा हो चुके हैं। मेरा यह अभिमान तो झूठा है। www निदान उन्होंने एक शिला पर दूसरे राजा की प्रशस्ति मिटा कर अपनी प्रशस्ति लिखवादी। संसार के समस्त प्राणी स्वार्थ साधन में तत्पर रहा करते हैं। कैलाशगिरि से लौटकर राजा भरत ने राजधानी अयोध्या की ओर प्रस्थान किया। दिग्विजय चक्रवर्ती भरत के स्वागत के लिए अयोध्या नगरी खूब सजाई गई थी। समस्त नगरवासी एवं आस पास के बत्तीस हजार मुकुट बद्ध राजे उनकी | अगवानी के लिए गये थे। अपने प्रति प्रजा का असाधारण प्रेम देख कर सम्राट भरत अत्यधिक प्रसन्न हुए। वे सब लोगों के साथ अयोध्यापुरी में प्रवेश करने के लिए चले। सब लोगों के | आगे चक्र चल रहा था। चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती भरत का जो सुदर्शन चक्र भारत वर्ष की छह खण्ड वसुन्धरा में उनकी इच्छा के विरूद्ध कहीं पर भी नहीं रूका था। वह पुरी में प्रवेश करते समय बाह्य द्वार पर अचानक रूक गया। पुरोहित जी ! क्या बात है? अभी आपको अपने भाइयों को वश में चक्ररत्न कैसे रूक गया? | करना शेष है। जब तक आपके सब भाई यक्षों के प्रयत्न करने पर भी आपके आधीन न हो जायेंगे तब तक तिलभर भी आगे नहीं बढा। चक्ररत्न नगर में प्रवेश नहीं हो सकता। hadinnelonanna अच्छा ! ये बात है। उपहारों के साथ अपने भाइयों के पास चतुर दूत भेजता हूँ। उनको अधीनता स्वीकार करने के लिए प्रेरित करता हूँ। प्ट आपके भाइयों ने ज्यों ही हमारे मुख से संदेश सुना। त्यों ही उन्होंने संसार से विरक्त हो कर राज्य तृष्णा छोड़कर दीक्षा लेना उचित समझा एवं निश्चय के अनुसार दीक्षा लेने के लिए भगवान आदिनाथ के पास चले गये। |दूत पोदनपुर बाहुबली के दरबार में उपस्थित हुआ। संदेश सुनाया - नाथ ! राजराजेश्वर भरत ने जो कि भारतवर्ष की छह खण्ड वसुन्धरा को विजय कर वापस आये हैं। आपके लिए संदेश भेजा है। प्रिय भाई यह विशाल राज्य तुम्हारे बिना शोभा नहीं देता इसलिए तुम शीघ्र ही आकर मुझसे मिलो क्यों कि राज्य वही कहलाता है जो समस्त बन्धु बान्धवों के भोग का साधन हो । यद्यपि मेरे चरणों में समस्त देव, विद्याधरों एवं सामान्य मनुष्य भक्ति से मस्तक झुकाते हैं, तथापि जब तक तुम्हारा प्रतापमय मस्तक मेरे पास मनोहर हंस की भांति आचरण नहीं करेगा तब तक उनकी शोभा नही है। महाराज भरत ने यह भी कहा है कि जो कोई हमारे अमोघ शासन को नहीं मानता, उनका शासन यह चक्ररत्न करता है। का दूत ने लौटकर उन्हें ऐसा नही करना चाहिए, खैर अब ये राजा भरत से सब अभिमान तो किसी तरह पूरा करना ही है समाचार कह सुनाये। बाहुबली के पास भी चतुर दूत भेजता हूँ। जैन चित्रकथा Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब दूत संदेश सुनाकर मौन हो गया। तब कुमार बाहुबली ने | कहते कहते कुमार बाहुबली की गम्भीरता उत्तरोतर बढ़ती गई तब उन्होंने मृदुहास्य सहित कहा। साध! तुम्हारे राज राजेश्वर, गंभीरता से कहा। तम्हारा राजा भरत बहत अधिक मायाचारी अत्यधिक बुद्धिमान प्रतीत होते हैं। उन्होंने अपने संदेश में एक प्रतीत होता है। उसके मन में कुछ अलग है एवं संदेश कुछ अन्य ही भेज रहा ही साथ साम, दान व विशेषकर दण्ड एवं भेद का कैसा अनुपम है। यदि दिग्विजय सम्राट भरत सचमुच में सुरविजयी है तो फिर कुशा के आसन समन्वय कर दिखलाया है। पर बैठ कर उनकी आराधना क्यों करता था और यदि उसकी सेना अजेय थी तो म्लेच्छों के साथ समर में लगातार सात दिन तक क्यों कष्ट उठाती रही? हमारे पूज्य पिताजी ने मुझे एवं उसे समान रूप से राजपद का अधिकारी बनाया था। फिर उसके RANA राजराजेश्वर शब्द का प्रयोग कैसा ? MOS डाकOM कQOQOTO कहते कहते कुमार बाहुबली की गम्भीरता उत्तरोतर बढ़ती गई तब उन्होंने गंभीरता से कहा। अन्तिम उत्तर देते समय बाहुबली के ओंठ कांपने लगे थे, आंखें लाल हो गयी थी- उन्होंने दूत से कहा- क्या सचमच तम्हारा राजा चंकी या कुम्हार है? उसे चक्र घुमाने का खूब अभ्यास है, इसलिए वह अनेक पार्थिव घड़े बनाता रहता है, चक्र ही उसके जीवन का साधन है। उससे जाकर कहदो। यदि तुम अरिचक्र का संहार करोगे तो जीवन जल से हाथ धोना पड़ेगा। मेरे सामने से दूर हो जाओ। तुम्हारा सम्राट भरत संग्राम स्थल में मेरे सामने ताण्डव नृत्य कर अपना 'भरत' नाम सार्थक करे। मैं किसी तरह उसकी सेवा स्वीकार नहीं कर सकता। NWA O) . दूत चला गया बाहुबली ने युद्ध के लिए सैना तैयार की। चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इधर दूत ने आकर सम्राट भरत से सब समाचार कह सुनाये तब वे भी युद्ध के लिए सेना लेकर पोदनपुर जा पहुंचे। भाई-भाई का यह युद्ध किसी को अच्छा नहीं लगा। दोनो पक्ष के बुद्धिमान मंत्रियों ने दोनों को लड़ने से रोका, पर राज्य लिप्सा एवं अभिमान से भरे हुए उनके हृदयों में किसी के भी वचन स्थान नही पा सके । अन्त में दोनों ओर के मंत्रियों ने एक मत होकर सम्राट भरत एवं राजा बाहुबली से निवेदन किया। इस युद्ध में सेना का व्यर्थ संहार होगा इसलिए उत्तम है कि आप दोनों परस्पर द्वन्द युद्ध करें एवं सैनिक चुपचाप तटस्थ खड़े रहें । आप दोनों सर्वप्रथम दृष्टि युद्ध, फिर जल युद्ध एवं अंत में मलयुद्ध करें इन तीनों युद्धों में जो हार जावेगा वही पराजित कहलायेगा। मंत्रियों का सुझाव दोनो भाइयों को योग्य प्रतीत हुआ इसलिए उन्होंने अपनी -अपनी सेनाओं को युद्ध करने से रोक दिया। सर्वप्रथम दृष्टियुद्ध करने के लिए दोनों भाइ युद्ध भूमि में उतरे। दृष्टि युद्ध का नियम यह था कि दोनों विजिगीषु एक-दूसरे की आंखों की ओर देखें, जिसके पलक पहले झप जावे वही पराजित कहलायेगा। राजा बाहुबली का शरीर सम्राट भरत से पच्चीस धनुष ऊंचा था। दृष्टि युद्ध के समय सम्राट भरत को ऊपर की ओर देखना पड़ता था एवं राजा बाहुबली को नीचे की ओर । आंख मे वायु भरने से सम्राट भरत के पलक पहिले झप गये-विजय लक्ष्मी राजा बाहुबली को प्राप्त हुई। NAAM 200025 TODGORZ CU जैन चित्रकथा Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल युद्ध के लिए दोनो भाई तालाब में प्रविष्ट हुए। जल युद्ध का नियम था। दोनो एक दूसरे पर जल फेंकें जो पहले रुक जावेगा यही पराजित कहलावेगा। "Kari अन्त में मल्लयुद्ध के लिए दोनो वीर प्रस्तुत होकर युद्ध स्थल में उतरे मल्लयुद्ध देखने के लिए समागत देव एवं विद्याधरों के विमानों से आकाश भर गया एवं पृथ्वी तक पर असंख्य मनुष्य दिख रहे थे। h 8 राजा बाहुबली ऊंचे थे, इसलिए वे जो जल-पुंजनिक्षेप करते थे वह सम्राट भरत के समस्त शरीर पर पड़ता था एवं सम्राट भरत जो जल निक्षेप करते वह राजा बाहुबली को छू भी नही पाता था। निदान राजा बाहुबली विजयी हुए। 18002 06 a \ ( देखते-देखते राजा बाहुबली चक्रवर्ती भरत को ऊपर उठाकर चक्र की भान्ति आकाश में घुमादिया । चतुर्दिक व्योम मे राजा बाहुबली का जयनाद गूंज उठा। 缦 ஆம் चौबीस तीर्थकर भाग-2 M Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चक्रवर्ती भरत को अपना अपमान सहन नहीं हुआ, इसलिए उन्होंने क्रोध में आकर भाई बाहुबली के ऊपर सुदर्शन चक्र चला दिया, जो कि दिग्विजय के समय किसी के भी ऊपर नहीं चलाया गया था। पुण्य के प्रताप से चक्ररत्न राजा बाहुबली का कुछ भी नहीं बिगाड़ सका, वह उनकी तीन प्रदक्षिणाएं देकर सम्राट भरत के पास वापस लौट आया। जब सम्राट ने चक्र चलाया था, तब सब ओर से धिक-धिक की ध्वनी आ रही थी। बड़े भाई सम्राट भरत का यह नृशंस व्यवहार देखकर राजा बाहुबली का मन संसार से एकदम उदासीन हो गया। मेरे चक्र जाओ उसे मारो! धिक (धिक (धिक AdSNA मनुष्य राज्य आदि की लिप्सा में कौनकौन से अनुचित कार्य नहीं कर बैठता ? जिस राज्य के लिए भाई भरत एवं मैने इतनी विडम्बना की है, अन्त में उसे छोड़ कर ही चला जाना पड़ेगा। 1000 -05-ORD ऐसा विचार कर उन्होंने अपने पुत्र महाबली को राज्या सौंप कर जिन दीक्षा ले ली। वे एक वर्ष तक खड़े-खड़े ध्यान मग्र रहे। उनके पैरों में अनेक वन लताएँ एवं सांप लिपट गये थे, फिर भी वे ध्यान से विचलित नहीं हुए। एक वर्ष के बाद उन्हें दिव्य ज्ञान प्राप्त हो गया। जिसके प्रताप से वे तीनों लोकों को एक साथ जानने व देखने लगे थे। एवं अंत में देहत्याग कर वे इस काल में सबसे पहले मोक्ष धाम को गये। जैन चित्रकथा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इधर जब क्रोध का वेग शान्त हुआ। तब राजा भरत भी कुमार बाहुबली के विरह में अत्यधीक दुखी हुए। किन्तु उपाय ही क्या था? समस्त पुरवासी व सेना के साथ लौटकर उन्होंने अयोध्या में प्रवेश किया। वहां समस्त राजाओं ने मिलकर राजा भरत का राज्याभिषेक किया। उन्हें राजाधिराज सम्राट के रूप में स्वीकार किया। अब वे निष्कंटक होकर समस्त पृथ्वी का शासन करने लगे। सम्राट भरत ने राज्य रक्षा के लिए समस्त राजाओं को राज्यधर्म क्षत्रिय धर्म का उपदेश दिया था। जिसके अनुसार प्रवृति करने से राजा एवं प्रजा सभी सुखी रहते थे एवं राजा की भलाई में प्राण देने के लिए तैयार रहती थीं। इस तरह सम्राट भरत अपनी स्त्री रत्न सुभद्रा के साथ विविधप्रकार का ऐश्वर्य भोगते हुए सुख से समय बिताते थे। एक दिन उन्होंने विचारामैंने जो इतनी विपुल सम्पत्ति इकट्ठी की है, उसका क्या होगा? बिना दान किये। इसकी शोभा नहीं है। पर दान दिया भी किसे जावे ? मुनिराज तो संसार से सर्वथा निस्प्रह है, इसलिए वे न तो धन धान्य आदि का दान ले सकते हैं, न उन्हें देने की आवश्यकता ही है। वे केवल भोजन की इच्छा रखते हैं। सो गृहस्थ उनकी इच्छापूर्ण कर देते हैं। हां गृहस्थ धन धान्य आदि का दान ले सकते हैं, पर अब्रती गृहस्थ को दान देने से लाभ ही क्या होगा? इसलिए अच्छा यही होगा कि प्रजा में से कुछ दान पात्रों का चयन किया जावे। जो योग्य हों उन्हें दान देकर इस विशाल सम्पत्ति को सफल बनाया जावे। वे लोग दान लेकर आजीविका की चिन्ता से विर्निमुक्त धर्म का प्रचार करेंगे एवं पठन पाठन की प्रवृति करेंगें। | यह सोच कर किसी दिन प्रजा को राज मन्दिर में आने के लिए आमन्त्रित किया राज मन्दिर के आगे मार्ग में हरी-हरी दूब लगवा दी, जब व्रतधारी लोगों ने मंदिर के द्वार पर पहुंच कर वहां हरी दूब देखी, तब वे व्रत रक्षा के लिए आगे न बढ़ कर वहीं रूक गये। पर जो अव्रती थे वे पैरों तले दूब को कुचलते हुए भीतर पहुंच गये। 10 DODE चौबीस तीर्थंकर भाग-2 Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्राट भरत ने जब व्रती मनुष्यों को बाहर खड़े हुए देखा तो उन्हें दूसरे प्रासुक मार्ग से एक दिन राजा भरत ने रात्रि के पिछले प्रहर में कुछ अन्दुत स्वप्न देखें बुलवा कर उनका यथेष्ट सत्कार किया गृहस्थोपयोगी समस्त क्रिया काण्ड, संस्कार | जिससे वे उद्विग्र से हो गये। स्वप्नों का फल जानने के लिए वे भगवान आवश्यक कार्य आदि का उपदेश देकर यज्ञोपवीत प्रदान किये एवं जगत में उन्हें| आदिनाथ के समवशरण में पहुंचे। 'वर्णोत्तम ब्राह्मण' नाम से प्रसिद्ध किया। भगवान वृषभदेव ने क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण आपके रहते हुए भी मैनें अपनी बुद्धि-मंदता से ब्राह्मण वर्ग की स्थापना की की स्थापना की थी, अब राजा भरत ने 'वर्णोत्तम ब्राह्मण' वर्ण की स्थापना की। इस तरह || है, उसमें कुछ हानि तो न होगी? सृष्टि की लौकिक एवं धार्मिक व्यवहार के लिए चार वर्णो की स्थापना हुई थी। SEASO . रात्रि के स्वप्न उन्हें कह सुनाये, उनका फल जानना चाहा।। भगवान आदिनाथ ने दिव्य वाणी में कहा- हे वत्स ! पृथ्वीतल में विहार करने के उपरान्त | हाथी के भार से जिसकी पीठ भग्नद हो गई वत्स ! यद्यपि इस समय ब्राह्मणों की पूजा श्रेयस्करी पर्वत के शिखरों पर बैठे तेइस सिंहों के देखने ऐसे घोड़े को देखने से यह प्रकट होना है कि है। उससे कोई हानि नहीं है, तथापि कालान्तर में का फल- आरम्भ में तेइसतीर्थकरों के समय पंचम काल के साधु तप का भार सहन नहीं वह दोष का कारण होगी। यही लोग कलिकाल में ||में दुर्नय की उत्तपती नही होगी पर दूसरे स्वप्न | कर सकेंगे, सूखे पत्ते खाते हुए बकरों को देखना समीचीन धर्म मार्ग में जाति अंहकार से विद्वेष करेंगे। में एक सिंह बालक के साथ जो हाथी खड़ा| बनाता है कि कलिकाल में मनुष्य सदाचार को छोड़कर दुराचारी हो जावेंगे। देखा है, उससे प्रतीत होता है कि अंतिम तीर्थंकर महावीर के तीर्थ में कुलिंगी साधु अनेक दुर्नय प्रकट करेंगे। HTRA जैन चित्रकथा Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदोन्मत हाथी की पीठ पर बैठा | कौओं के द्वारा उल्लुओं का मारा नृत्य करते भूतों को देखने से प्रतीत जिसका मध्य भाग सखा व आसपास हुआ बंदर इस बात का प्रतीक है|| जाना बताता है कि मनुष्य कालान्तर होता है कि आगे चलकर प्रजा के जा के जल भरा दशा है ऐसे तालाब प्राण कि दुःषमाकाल में अकुलिन मनुष्य | | में सुख प्रदायक जैन-धर्म को छोड़ लोग व्यन्तरों को ही देव समझ कर का फल कालान्तर में मध्य खण्ड में| शासन करेंगे। कर दूसरे मतों का अवलम्बन पूजा करेंगे। संद्धर्म का अभाव हो जायेगा एवं करने लगेगें। आसपास स्थिर रहेगा। धूलि धूमारत्नों को देखने से ज्ञात होता है दु:षसा काल में मूर्तियों के ऋदियां उत्पन्न नहीं होगी। ADML कुत्ते का सत्कार देखना यह घूमते हए जवान बैल को चन्द्रमा के घेरा देखने से परस्पर मिल कर जाते बैलों। सूर्य का मेघों में छिप जाना बताता है कि आगे चल कर देखने का फल है कि मनुष्य | लगता है कि कलिकाल में को देखने से लगता है कि बतलाता है कि पंचम काल व्रत रहित ब्राह्मण पूजे युवावस्था में ही मुनिव्रत मुनियों को अवधिज्ञान प्राप्त साधु एकांकी विहार नही । में प्राय: केवल ज्ञान उत्पन्न जायेंगे। धारण करेंगे। नहीं होगा। कर सकेंगे। नही होगा। सूखा वृक्ष देखने से प्रकट होता है कि पुरूष एवं स्त्रियां चरित्र से च्युत केवल ज्ञान से शोभायमान वृषभदेव पोष मास की पूर्णिमा के दिन कैलाश पर्वत हो जावेंगे। वृक्षों के जीर्ण पत्तों को देखने से लगता है पंचम काल में पर जा पहुंचे- अचल हो कर आत्म ध्यान में लीन हो गये। सम्राट भरत उसी महौषधियां तथा रस आदि नष्ट हो जायेंगे। इस प्रकार स्वप्नों का फल समय सपरिवार कैलाश गिरि पहुंचे एवं चौदह दिन तक पूजा करते रहे। माघ कृष्ण बतलाकर चक्रवर्ती भरत आदि समस्त श्रोताओं को विघ्न शान्ति के लिए चतुर्दशी प्रात: उनकी आत्मा तत्क्षण लोक शिखर पर पहुंच गई शरीर देखते धर्म में दृढ रहने का उपदेश दिया- महाराज भरते अयोध्या लौट गये। -देखते विलीन हो गया। केवल नख तथा केश बचे थे। सब देवों ने मिलकर उनका अंतिम संस्कार किया। भगवान वृषभदेव का निर्वाण महोत्सव मनाया। चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिता के निर्वाण के पश्चात राजाधिराज भरत कुछ समय तक राज्य एक दिन राजा भरत दर्पण में अपना मुख देख रहे थे कि सफेद बाल देखकर वैराग्य उमड़ पड़ा शासन तो अवश्य करते रहे पर अन्तर से बिल्कुल उदासीन रहते थे। उन्होंने तप को कल्याण का सच्चा मार्ग समझकर पुत्र अर्ककीर्ति को राज्य भार सोंप कर स्वयं भगवान वृषभदेव की निर्वाण भूमि कैलाश गिरि सिद्ध क्षेत्र में चौबीस वृषभसेन गणधण के पास जाकर दीक्षा लेली। मुनि भरत का हृदय इतना अधिक निर्मल था कि तीर्थंकर के सुन्दर मंदिर बनवा कर उनमें मणिमयी जिन प्रतिमाएं विराजमान करायी थी। उन्हें कुछ ही समय बाद केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। स्थान-स्थान पर विहार कर धर्म का प्रचार किया अन्त में आत्म स्वातन्त्र्य रुप मोक्ष प्राप्त किया। इस तरह प्रथम तीर्थंकर भगवान वृषभनाथ का पवित्र चरित्र पूर्ण हुआ। इनके बैल का चिह्न था। NAVITADA 200nad भगवान श्री अजितनाथ जी।। भारत में अत्यन्त शोभायमान अयोध्यापुरी है, राजा जितशत्रु राज्य करते थे। जम्बुद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीता नदी के दक्षिण किनारे पर मत्स्य नाम उनकी महारानी का नाम विजय सेना था। इन्द्र की आज्ञा से कुबेर रत्न बरसाता के देश में सुसीमा नगरी में विमल वाहन राजा थे। एक दिन राजा विमल था। इसके बाद जेष्ठ मास की अमावस्या को रात्रि के पिछले प्रहर में महारानी वाहन का कुछ कारणवश वैराग्य उत्पन्न हो गया वे सोचने लगे। |विजय सेना ने ऐरावत आदि सोलह स्वप्न देखे। प्रात: महारानी ने स्वप्नों का | संसार के भीतर कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं है। यह मेरी आत्मा भी एक दिन) फल राजा अजितशत्रु से पूछा। हे देवी! तुम्हारे तीर्थकर पुत्र उत्पन्न होगा। इस शरीर को छोड़ कर चली जायेगी। इसलिए आयु पूर्ण होने के पहले ही | उसी के पुण्य बल से छह माह पहिले ही प्रतिदिन रत्न बरस रहे हैं एवं आत्म कल्याण की ओर प्रवृति करनी चाहिए। आज तुमने सोलह स्वप्न देखें हैं। AALI FOLDK9ENO इस प्रकार विचार कर वन में जाकर एक दिगम्बरयति के सानिध्य में दीक्षित हो गये। दर्शन-निशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का चिन्तवन भी किया था, जिससे उसके । तीर्थकर महापुण्य-प्रकृति का बंध हो गया। आयु के अन्त में सन्यास पूर्वक मरकर विजयविमान में अहमिन्द्र हए। यही अहमिन्द्र आगे चलकर भगवान अजितनाथ जी हए। जैन चित्रकथा -13 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माघ शुक्ला दशमी के दिन महारानी विजयसेना ने पुत्र रत्न का प्रसब किया। वह पुत्र जन्म से ही मति श्रुति एवं अवधि इन तीनों ज्ञानों से शोभायमान था। उसी समय देवों ने सुमेरू पर्वत पर लेजाकर उनका जन्माभिषेक किया एवं अजित नाम रखा। भगवान अजितनाथ धीरे-धीरे बढ़ने लगे। आपस के खेल कुद में भी जब इनके भाई इनसे पराजित हो जाते थे तब वे इनका नाम अजित सार्थक मानने लगे थे। एक दिन भगवान अजितनाथ महल की छतपर बैठे हुए थे कि उन्होंने दमकती हुई विद्युत को अचानक नीचे गिरकर नष्ट होते हुए देखा। उसे देख कर उनका हृदय विषयों से विरल हो गया। वे सोचने लगे...... 14 Buy ये बहुत ही वीर एवं क्रीड़ा चतुर पुरुष थे। युवावस्था में इनके शरीर की शोभा देखते ही बनती थी। महाराज जितशत्रु ने अनेक सुन्दरी कन्याओं के साथ इनका विवाह कर दिया एवं शुभ मुहूर्त में राज्य भार सौंप कर स्वयं धर्म सेवन करते हुए सद्गति को प्राप्त हुए। भगवान अजित नाथ ने प्रजा का पालन किया। समयोपयोगी अनेक सुधार किये। peny संसार का हर एक पदार्थ इसी विद्युत की तरह क्षणभंगुर है मेरा यह सुन्दर शरीर एवं यह मनुष्य पर्याय भी एक दिन इसी तरह नष्ट हो जायेंगे। जिस उद्देश्य के लिए मेरा जन्म हुआ था। उसके लिए तो मैंने अभी तक कुछ भी नहीं किया। अपनी आयु का बहुभाग व्यर्थ ही खो दिया। अब आज से मैं सर्वथा विरक्त हो कर दिगम्बर मुद्रा को धारण कर वन में रहूंगा, क्यों कि इन रंग बिरंगे महलों में रहने से चित को शान्ति नहीं मिल सकती। | चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होने अपने पुत्र अजित सेन को राज्य भार सौंपा फिर चन जाने को तैयार हो गये। सुप्रभा नाम की पालकी में सवार हो गये। पालकी को मनुष्य, विद्याधर एवं देवगण उठाकर अयोध्या के सहेतुक वन में ले गये। वहां सप्तवर्ण वृक्ष के नीचे विराजमान द्वितीय जिनेन्द्र अजितनाथ ने वस्त्राभूषण उतारकर फेंक दिये। पंच मुष्ठियों से केश उखाड़ डाले। जिस दिन भगवान अजितनाथ ने दीक्षा धारण की थी। उस दिन माघ शुक्ल पक्ष की नवमी थी तथा रोहणी नक्षत्र का उदय था । MIHIN जैन चित्रकथा बारह वर्ष तक उन्होंने कठिन तपस्या की पौष मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन सायंकाल रोहणी नक्षत्र के उदयकाल में 'केलज्ञान' प्राप्त हो गया। देवों ने आकर ज्ञान कल्याण का उत्सव मनाया। अन्त में जब उनकी आयु एक महीना शेष रह गयी तब वे श्री सम्मेद शिखर पर जा पहुंचे चैत्र शुक्ला पंचमी के दिन रोहणी नक्षत्र के उदयकाल में प्रात: के समय मुक्तिधाम को प्राप्त किया। भगवान अजितनाथ के हाथी का चिह्न था। AUA ॥ भगवान श्री सम्भवनाथ जी।। जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में सीतानदी के तट पर कच्छ नाम के देश में क्षेमपुर नगर में विमलवाहन राज्य करते थे। एक दिन राजा विमलवाहन किसी कारण वश संसार से विरक्त हो गये जिससे उन्हें पांचो इन्द्रियों के विषय भाग काले भुजंगों की तरह दुःखदायी प्रतीत होने लगे। वे बैठकर सोचने लगे। 'यमराज' किसी भी छोटे-बड़े का भेद नही करता है। ऊंचे से ऊंचे एवं दीन से दीन सभी मनुष्य इसकी कराल दंष्ट्रातल के नीचे दले जाते हैं। जब ऐसा है, तब क्या मुझे छोड़ देगा? इसलिए जब तक मृत्यु निकट नहीं आती तब तक तपस्या आदि से आत्महित की ओर प्रवृति करनी चाहिए D NITH ऐसा सोचकर अपने पुत्र विमलकीर्ति को राज्य देकर स्वयं प्रभमुनीन्द्र के द्वारा दीक्षित हो गये। कठिन से कठिन तपस्याओं द्वारा आत्मशुद्धि की दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का चिन्तवन किया जिससे उन्हें तीर्थकर पुष्प प्रकृति का बंध हो गया अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्यागकर सुदर्शन नामक विमान में अहमिन्द्र हुए। उन्हें जन्म से ही 'अवधीज्ञान' था। • शरीर में अनेक ऋद्धियां थी। यही अहमिन्द्र आगे चलकर भगवान श्री सम्भवनाथ जी हुए थे। पुण Phon Emeri 15 Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में श्रावस्ती नगरी में दृढराज्य राजा थे। वे अत्यन्त प्रतापी, भगवान सम्भवनाथ द्वितीया चन्द्रमा की तरह धीरे-धीरे बढने लगे। धर्मात्मा, सौम्य एवं साधु स्वभाव के व्यक्ति थे। अद्वितीय सुन्दरी, सुषेणा उनकी उनके शरीर का रंग स्वर्ण के समान पीला था। द्रढराज्य ने योग्य महारानी थी। राजा दढराज्य के गह पर प्रतिदिन असंख्य रत्नों की वर्षा होने लगी- | कुलीन कन्याओं के साथ इनका विवाह कर दिया था। समय की प्रगति अनेक शुभ शकुन होने लगे थे। जिससे राज दम्पत्ती आनन्द से फूले न समाते थे। को देखते हुए आपने राजनीति में बहुत परिवर्तन किया था। एक दिन रात्रि के पिछले पहर महारानी सुषेणा ने सोते समय ऐरावत हाथी आदि सोलह स्वप्न देखे, मुख में प्रवेश करते हुए गन्ध सिन्दुरमत्त हाथी को देखा। | प्रात:काल ही उसने पतिदेव से स्वप्नों का फल पूछा। आज तुम्हारे गर्म में तीर्थकर पुत्र ने अवतार लिया है। पृथ्वीतल पर तीर्थकर । के जैसा पुण्य किसी का नही होता। देखो न वह छह महीने पहले से ही असंख्य राशि रत्न बरस रहे हैं। प्रत्येक वस्तु कितनी मनोहर हो गयी है। ROID 4TA कार्तिक शुक्ला पूर्णमासी के दिन मृगशिर नक्षत्र में उनके पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। देवों ने पहिले तीर्थकरों की तरह मेरुपर्वत पर इनका भी जन्माभिषेक किया, उनका नाम भगवान सम्भवनाथ रखा गया। एक दिन महल की छत पर प्रकृति की शोभा देख रहे थे। उनकी दृष्टि एक स्वेता भगवान सम्भवनात्रथ निजपुत्र को राज्य देकर वन जाने के लिए बादल पर पड़ी। वायु के वेग से क्षण भर में बादल विलीन हो गया। कहीं का कहीं | तैयार हो गये। देवगणों ने आकर उनके तप कल्याणक का उत्सव चला गया। उसी समय उनके चरित्र मोहनीय के बंधन ढीले हो गये, वे सोचने लगे- मनाया, तदन्तर सिद्धार्थ नाम की पालकी पर सवार होकर सहेतुक संसार की सभी वस्तुएं इस बादल की तरह क्षण भंगुर है। एक दिन मेरा यह वन में गये। वहां मार्गशीष शुक्ला पूर्णिमा के दिन शाल वृक्ष के दिव्य शरीर भी नष्ट हो जायेगा। मैं जिन स्यीपत्रों के मोह में उलझा हआ आत्म। नीचे जिन दीक्षा ले ली।। हित की ओर प्रवृत नही हो रहा हूँ। वे एक भी मेरे साथ नही जायेंगे। JOOD 1000 OULIC जब तक छद्मस्थ रहे तब तक मौन धारण कर तपस्या करते रहे, इस तरह चौदह वर्ष तपस्या करने के बाद उन्हें कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी दिन मृगशिर नक्षत्र के उदय काल में संध्या के समय केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। उन्होंने समस्त आर्य क्षेत्रों में विहार किया। चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंत में सम्मेद शैल के एक शिखर पर विराजमान हए। योगाभगवान श्री अभिनन्दन नाथ जी धारण कर आत्मध्यान में लीन हो गये। चैत्र शुक्ला षष्ठी के जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह क्षेत्र में मंगलावती देश में रत्नसंचय नामक नगर में वैभव शाली दिन सायकाल के समय मृगशिर नक्षत्र के उदय काल में सिद्धि राजा महाबल राज्य करता था। देवांगताओं से भी सुन्दर रानियों के साथ देवोपम सुख सदन को प्राप्त हुए। देवों ने आकर उनका निर्वाण महोत्सव | भोगते हुए अधिकांश समय व्यतीत हो गया। एक दिन किसी विशेष कारण से उनका मनाया। इनका चिह्न घोड़े का था। चित्त विषय वासनाओं से विरक्त हो गया। जिससे वह अपने पुत्र धनपाल को राज्य देकर आचार्य विमलवाहन के पास दीक्षित हो गया। उन्होंने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, सोलह भावनाओं का हृदय में चिन्तन किया। जिससे तीर्थकर प्रकृति का बंध हो गया। आयु के अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्याग कर महाऋद्धि धारी अहमिन्द्र हुए। ये ही अहमिन्द्र आगे चलकर अभिनन्दन नाथ हुए। जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में अयोध्यानगरी में उस समय स्वयम्वर राजा राज्य गर्भ के दिन पूर्ण होने पर रानी सिद्धार्था ने माघ शुक्ला द्वादशी के दिन करते थे। उनकी महारानी सिद्धार्थी अनुपम सुन्दरी थी। राज दम्पत्ती आदित्य योग एवं पुनर्वसु नक्षत्र में उत्तम पुत्र प्रसव किया। देवों ने नवजात तरह-तरह के सुख भोगते हुए दिन बिताते थे। राजा स्वयम्वर के महल के जिनेन्द्र बालक का मेरुपर्वत पर अभिषेक किया। अयोध्या पुरी में अनेक आंगन में प्रतिदिन रत्नों की वर्षा होने लगी। अनेक शुभ शकुन हुए। जिन्हे | उत्सव मनाये। बालक का नाम अभिनन्दन रखा। देख भावी शुभ की प्रतीक्षा करते हुए राज दम्पत्ति बहुत हर्षित थे। महारानी सिद्धार्था ने रात्रि के पिछले पहर में सुरकुंजर आदि सोलह स्वप्न देखे एवं अंत में अपने मुख में एक स्वेत वर्ण वाले हाथी को प्रवेश करते देखा। प्रात:काल महाराजा स्वयम्वर ने रानी के पूछने पर यह कहाप्रिय आज तुम्हारे गर्भ में स्वर्ग से चयकर किसी पुण्यात्मा ने अवतार लिया है। जो नो माह बाद तुम्हारे तीर्थकर पुत्र रत्न होगा। जिसके बल, विद्या, वैभव के सामने देव-देवेन्द्र भी अपने को तुच्छ मानेंगे। EDE जैन चित्रकथा Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब युवक हुए उनका पीला सुवर्ण जैसा वर्ण था। उनके शरीर से सूर्य के समान बस इसी घटना से उन्हें आत्मज्ञान प्रकट हो गया। जिससे उन्होंने राज्यकार्य से तेज निकलता था। वे मूर्तिधारी पुण्य के प्रतीक थे। महाराज स्वयम्वर ने इन्हें मोह त्याग कर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। अभिनन्दन स्वामी राज्य का भार राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली। अभिनन्दन स्वामी ने भी राज्य सिंहासन पर पुत्र को सौंप कर देव निर्मित हस्त चित्रा पालकी पर सवार हुए। देव उस पालकी को विराजमान होकर साढे छत्तीस लाख पूर्व तथा आठपूर्वाक तक राज्य किया। एक उग्र उद्यान में ले गये। वहां उन्होंने माघ शुक्ला द्वादशी को पुनर्वसु नक्षत्र के उदय दिन वे महल की छत पर बैठकर आकाश की शोभा देख रहे थे। अरे! ये काल में दीक्षा धारण कर ली। वन में जाकर कठिन तपस्या करने लगे । एक दिन बेल बादलों का समूह मध्य आकाश में स्थित मनोहर नगर सा लगता था। पर उपवास का व्रत धारण कर शाल वृक्ष के नीचे विराजमान थे। उसी समय उन्होंने कुछ ही क्षण में वायु के प्रबल झोंके से नष्ट हो गया। कहीं का कहीं चला गया। शुक्ल ध्यान के अवलम्बन से क्षपक श्रेणी में पहुंच कर क्रम से बढकर पोष शुक्ला चतुर्दशी की संध्या को पुनर्वसु नक्षत्र में अन्नत ज्ञान दर्शन सुख एवं वीर्य प्राप्त हो उन्होंने संसार के दुःखों का वर्णन कर उससे मुक्ति के उपाय बतलाये। वे जो कुछ भगवान श्री सुमतिनाथ जी।। करते थे। वह विशुद्ध हृदय से कहते थे, इसलिए लोगों के हृदय पर उनका गहरा दूसरे घात की खण्ड द्वीप के पुष्कलावती देश में पुण्डरीक किणी नगरी के प्रभाव पड़ता था। आर्य क्षेत्र में स्थान-स्थान पर विहार कर उन्होंने धर्म का महाराज रतिषेण बड़े ही यशस्वी, दयालु व धर्मात्मा थे। अनेक प्रकार के प्रचार किया एवं संसार सिन्धु में पड़े हुए प्राणियों को हस्तावलम्बन देकर तरने में | विषय भोगते हुए जब उनकी आयु का बहुभोग व्यतीत हो गया तब एक दिन सहायता की। आयु के अन्तिम समय में श्री सम्मेद शिखर पर जा पहुंचे एवं किसी कारण वश संसार से उदासीनता उत्पन्न हो गयी। ज्यों ही उन्होंने प्रतिमायोग धारण कर अचल होकर बैठ गये। बैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन पुनर्वसु विवेक रूपी नेत्र से अपनी ओर देखा, त्यों ही उन्हें अपने बीते जीवन पर बहुत नक्षत्र में प्रात:काल के समय मुक्ति मंदिर विराजे । इनका चिह्न वानर का था। अधिक संताप हुआ। - हाय, मैंने अपनी लम्बी आयु इन विषय सुखों के भोगने में ही बिता दी, पर विषय सुख भोगने से सुख मिलता है क्या? इसका कोई उत्तर नहीं है। मैं आज तक भ्रम वश दु:ख के कारणों को ही सुख का कारण मानता रहा हूँ। ओह ! कैसा मायाजाल है ? H600XSASAROO अपने पुत्र अतिरथ को राज्य देकर वन में कठिन तपस्या करने लगे। उन्होंने अहंनन्दन गुरू के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। सोलह भावनाओं का चिन्तन किया, जिससे तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो गया। आयु के अन्त में वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए। यही आगे भगवान सुमतिनाथ हुए। चौबीस तीर्थकर भाग-2 18 Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिरपरिचित अयोध्या नगरी में किसी समय मेघरथ राजाथे। उनकी महारानी मंगला सचमुच मंगला ही थी। महाराज मेघरथ के महल पर देवों द्वारा रत्न | वर्षा होने लगी। मंगला देवी ने रात्रि के शेष प्रहर में ऐरावत हाथी आदि सौलह | स्वप्न देख अपने मुख में प्रवेश करता हाथी देखा। प्रात: होते ही उसने प्राणनाथसे स्वप्नों का फल पूछा- आज तम्हारे गर्भ में तीर्थकर बालक ने अवतार लिया है- सौलह स्वप्न उसी की विभूति के परिचायक हैं। नौ महीने बाद चैत्रशुक्ला एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में महारानी ने श्रेष्ठ पुत्र रत्न को जन्म दिया। तीनों लोकों में आनन्द छा गया। सुमेरू पर्वत पर देवों ने अभिषेक किया व अयोध्या में भव्य जन्मोत्सव मनाया। बालक का नाम सुमतिनाथ रखा। बालक सुमतिनाथ द्वितीया चन्द्रमा की तरह बढ़ते गये तथा अपनी कलाओं से माता-पिता का हर्षोल्लास बढाते थे। शरीर की कांति तपे हुए स्वर्ण की तरह थी। अंग प्रत्यंग से लावण्य फूट पड़ता था। युवा होने पर महाराज मेघरथ उन्हें राज्य भार सौंपकर दीक्षित हो गए। भगवान सुमतिनाथ ने राज्य व्यवस्था को बहुत सुचारू रूप दे दिया था। राज्य में हिंसा, चोरी, झूठ, व्याभिचार आदि समाप्त हो गये थे। स्वप्नों का फल सुनकर भावी पुत्र के सुविशाल वैभव की कल्पना करके वह बहुत खुश हुई। उनका पाणिग्रहण योग्य कन्याओं के साथ हुआ था। सुख शान्तेि से उनका समय | भगवान सुमतिनाथ अपने पुत्र को राज्य देकर देवनिर्मित 'अभय' पालकी व्यतीत हो रहा था। तब एक दिन किसी कारणवश उनका चित्त विषय वासनाओं से पर बैठ गये। देवता अभया को समीप ही सहेतुक वन में ले गये। वहां उन्होंने विरक्त हो गया। जिससे उन्हें संसार के भोग नीरस एवं दु:ख प्रद प्रतीत होने लगे।। नर सुरगण साक्षी में बैशाख शुक्ला नवमी के दिन मघा नक्षत्र में दिगम्बरी हाय ! मैंने एक मूर्ख की भांती इतनी सूदीर्घ आयु व्यर्थ ही गवा दी। दूसरों को हित का मार्ग| | दिक्षा धारण कर ली। आत्मध्यान में लीन हो गये। थोड़े-थोड़े दिनों के अंतराल से आहार लेकर कठिन तपस्या करते हुए। बीस बरस बीत गये। बताऊं उनका भला करूं । यह जो बाल्यवस्था में सोचा करता था। वह सब इस यौवन तब उन्हें प्रियंकु वृक्ष के नीचे शुक्ल ध्यान के प्रताप से धातिया कर्मों का नाश एवं राज्य के सुख के उन्मांद में प्रवाहित हो गया। जैसे सैकड़ों नदियों का पान करने पर हो जाने पर चेत्र सुदी एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त हुआ। भी समुद्र की तृप्ति नहीं होती। ये विषयभिलाषाएं मनुष्य को आत्महित की ओर अग्रसर होने ही नही देती, इसलिए अब मैं इन विषय वासनाओं को तिलांजली देकर आत्महित MARATOP की ओर प्रवृति करता हूँ। INDIAN गर जैन चित्रकथा Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवेन्द्र ने आकर उनका ज्ञान कल्याणक मनाया। समवशरण की भगवान श्री पद्मप्रभ जी।। रचना की। उन्होंने उपस्थित जनसमूह को धर्म अधर्म का स्वरूप दूसरे घात की खण्ड दीप स्थित वत्स देश के ससीमा नगर में किसी समय अपराजित बतलाया। उन्होने आर्य क्षेत्रों विहार कर समीचीन धर्म का खूब प्रचार नाम के राजा थे। वह हमेशा अपनी प्रजा की भलाई में लगा रहता था। उसकी रानियां किया। अंतिम दिनों में सम्मेद शैल पर आये वहीं योग निरोधकर | अनुपम सुन्दर थीं। उनके साथ सांसारिक सुख भोगता हआ दीर्घ काल तक पृथ्वी का विराजमान हो गये। चेत्र सुदी एकादशी के दिन मघा नक्षत्र में मुक्ति | पालन करता रहा। एक दिन किसी कारण से उसका चित्त विषय वासनाओं से विरक्त हो मंदिर में प्रवेश किया। देवों ने वहीं मोक्ष कल्याणक उत्सव मनाया गया, इसलिए वह अपने पुत्र को राज्य सौंपकर वन में जाकर दीक्षित हो गया। सोलह उनका चिह्नचकवा था। भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थकर प्रकृति का बंध कर लिया। आयुसमाप्त होने पर शुद्ध आत्मा के ध्यान में लीन हो गया। जिससे नव में ग्रैवेयक के प्रीतिकर विमान में ऋद्धिधारी अहमिन्द्र हुआ।ये ही अहमिन्द्र भगवान पद्मप्रभ होंगे। जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र की कौशाम्बी नगरी में इक्ष्वाकुवंशीय राजा धरण का | जब युवा हुए तब राजा धरण इन्हें राज्य देकर आत्म कल्याण की ओर शासन था। उनकी महारानी सुसीमा सर्वगुण सम्पन्न थी। रत्नों की वर्षा प्रवृत हो गये। भगवान पद्मप्रभ भी नीति से प्रजापालन करने लगे। अनेक देखकर कुछ भला होने वाला है। यह सोचकर राजा धरण अत्यन्त हर्षित । सुन्दरी सुशील कन्याओं से विवाह हुआ। आनन्द पूर्वक समय व्यतीत हो होते थे। महारानी सुसीमान सोलह स्वप्न देखने के बाद मुख में प्रवेश करते। रहा था। एक दिन वे द्वार पर बंधे हुए हाथी के पूर्व भव सुनकर प्रतिबुद्ध हो हुए हाथी को देखा। रानी के पूछने पर राजाधरण ने स्वप्नों का फल बनाया। गये। उसी समय उन्हें अपने पूर्व भवों का ज्ञान हो आया। जिससे उनके आज तुम्हारे गर्भ में तीर्थंकर बालक ने प्रवेश किया है। ये स्वप्न उसी | अंतरंग नेत्र खुल गये। सोचा- मैं जिन पदार्थों को अपना समझ के अभ्युदय के सूचक हैं। उनमें अनुराग कर रहा हूँ वे किसी भी तरह मेरे नहीं हो सकते, क्यों कि मैं सचेतन जीव द्रव्य हूँ एवं ये पर-पदार्थ अचेतन पुण्डल रूप है। एक द्रव्य का दूसरा द्रव्य रूप परिणमन त्रिकाल में भी नही हो सकता। खेद है कि मैंने इतनी विशाल आयु इन्हीं भोग विलासों में बिता दी। SUCC नौ माह बाद कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन मघानक्षत्र में माता सुसीमा ने उत्तम बालक को जन्म दिया। देवों ने बालक को मेरूशिखर पर ले जाकर क्षीर। सागर के जल से उसका अभिषेक किया। बालक के शरीर की कान्ति पद्म के समान थी इसलिए उस का नाम पद्मप्रभ रखा। 20 चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | भगवान पद्मप्रभ पुत्र को राज्य सौंपकर देव निर्मित 'निवृति' नामक पालकी पर आरूढ हो कर मनोहर नाम के वन में गये। वहां उन्होंने जिनेश्वरी दीक्षा धारण करली। । आत्म ध्यान में लीन हो गये। दो या चार दिन के अन्तर से आहार लेकर तपस्या करते हुए छह माह मौन पूर्वक बीत गये। क्षपक श्रेणी में आरूढ होकर शुक्ल ध्यान से चैत्र शुक्ला पूर्णिमा के दिन चित्रानक्षत्र में 'केवल ज्ञान' प्राप्त हुआ। देव देवन्द्रों ने आकर ज्ञान कल्याणक का उत्सव मनाया। Comp. Vikas समय सरण व विहार करके समस्त आर्य क्षेत्रों में जैन धर्म का प्रचार किया। अंत में सम्मेद शिखर पर पहुंचे। वहां प्रतिमा योग धारण किया। शुद्ध आत्मा के स्वरूप का ध्यान किया। एक महने के बाद फाल्गुन कृष्णा चतुर्थी के दिन चित्रा नक्षत्र में शुक्ल ध्यान के प्रताप से अविनाशी परम पद को प्राप्त हुए। इनका चिह्न कमल का था। उसने अपने पुत्र धनपति को राज्य सिंहासन पर बैठा दिया एवं वन में जाकर अर्हन्नन्दन मुनराज से दीक्षा ले ली। उसने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। सोलह भावनाओं का चिन्तवन किया। जिससे तीर्थकर प्रकृति बंध हो गया। आयु के अन्त में समाधि पूर्वक शरीर त्याग कर सुभद्र नामक विमान में अहमिन्द्र हुआ। ये ही आगे चलकर भगवान सुपार्श्वनाथ होंगे। जैन चित्रकथा 2 ॥ भगवान श्री सुपार्श्वनाथ जी।। घात की खण्ड द्वीप के सुकच्छ देश में क्षेमपुर नगर के राजा नन्दिषेण बड़े विद्वान एवं चतुर शासक थे। उसकी रानियां अनुपम सुन्दरियां थी। वह धर्म कार्यों में सुदृढ़चित रहता था। बहुत समय व्यतीत हो गया तब एक दिन उसे सहस वैराग्य उत्पन्न हो गया। जिससे उसे समस्त भोग काले भुजंग की तरह प्रतीत होने लगे। अपने विशाल राज्य को विस्तृत कारागार समझा सोचायह जीव अरहट की घड़ी के समान निरन्तर चारों गतियों में घूमता रहता है। जो आज देव है वो कल तिर्यज हो सकता है। जो आज सिंहासन पर बैठा है। वही कल भिखारी भी हो सकता है। ओह! इतना सब होते हुए भी मैंने अभी तक इस संसार से छुटकारा पाने के लिए कोई उत्तम कार्य नहीं किया। अब मैं शीघ्र ही मोक्ष प्राप्ति के लिए प्रयत्न करूंगा । KOP न् SPOULTROUN 0200 जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में काशी देश के वाराणसी नगर में महाराजा सुप्रतिष्ठि राज्य करते थे। महारनी पृथ्वीसेना के साथ दम्पति सुख से रहते थे। महाराज सुप्रतिष्ठि के महल पर रत्नों की वर्षा होने लगी। कुछ समय बाद महारानी पृथ्वीसेना सोलह स्वप्न देखे अन्त में मुख में प्रवेश करता हुआ हाथी देखा। प्रातः काल पतिदेव से स्वप्नों का फल पूछा। राजा ने हर्ष से पुलकित होते हुए कहाप्रिय आज तुम्हारा नारी जीवन सफल हुआ। मेरा भी गृहस्थ जीवन निष्फल नहीं गया। आज तीर्थंकर पुत्र ने अवतार लिया है। 21 Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्मकाल के दिन पूर्ण होने पर रानी पृथ्वीसेना ने ज्येष्ठ शुक्लाद्वादशी के दिन शुभयोग में भगवान सुपार्श्वनाथ राज्य का भार पुत्र को सौंपकर देव निर्मीत 'मनोगति पुत्र रत्न प्रसव किया। पुत्र की कान्ति से समस्त गृह प्रकासित हो गया था। देवों ने नामकी पालकी में बैठकर सहेतुक वन में गये। पालकी से उतर कर दिगम्बर आकर मेरुपर्वत पर पाण्हक शिला पर बालक का अभिषेक किया बालक का नाम दीक्षा धारण कर ली। एक दिन उसी वन में उपवास का नियम लेकर शिरीष वक्षा सुपार्श्व रखा। भगवान सुपार्श्वनाथ बाल्यावस्था से युवावस्था में पहुंचे। उनका के नीचे विराजमान हुए। केवलज्ञान प्राप्त किया। देवों ने आकर ज्ञान कल्याणक राज्याभिषेक हुआ। उनका शासन अत्यन्त लोक प्रिय था। अनेक आर्य कन्याओं के उत्सव मनाया । समवशरण की रचना की। अनेक देशों में विहार किया। लोगों साथ इनका विवाह हुआ था। वे भोगों से निर्लिप्त रहते थे। मुक्त भोग नूतन कर्म बंध के को धर्म का स्वरूप समझाया। आय के अन्तिम समय में श्री सम्मेद शिकर जा कारण नहीं होते थे। इस तरह सुख पूर्वक राज्य करते हुए उन्हें किसी कारण वश संसार पहुंचे। प्रतिमा योग धारण कर फाल्गुन शुक्ल सप्तमी के दिन विशाखा नक्षत्र में से विरक्ती हो गई। अब तक की आयु के व्यर्थ बीत जाने पर घोर पश्चाताप किया। राज,।। जा मोक्ष प्राप्त किया। भगवान सुपार्श्वनाथ का स्वस्तिक का चिह्न था। घर, परिवार का मोह त्याग वन में जाकर तप करने का दृढ निश्चय किया। 2000000 ||भगवान श्री चन्द्रप्रभ जी।। एक दिन राजा श्रीषेण महारानी श्रीकान्ता के साथ वन विहार कर रहे थे, कि वहां समुद्रों से घिरे हुए मध्यलोक में पुष्कर द्वीप के सुगन्धि देश में श्रीपुर नगर में उनकी दष्टी एक मनिराज पर पडी। रानी के साथ उन्हें नमस्कार करके धर्म श्रवण श्रीषेण का राज्य था। वह बहुत बलवान, धर्मात्मा एवं नीतिज्ञ था। उनकी करने की इच्छा से उनके पास बैठ गये। धर्म चर्चा के बाद उन्होंने मुनिराज से पूछामहारानी श्रीकान्ता दिव्य सौन्दर्य की स्वामिनी थी। धन धान्य सम्पन्न थे। नाथ ! मैं इस तरह कब तक राजन ! तुम्हारे हृदय में निरन्तर पुत्र की इच्छा बनी सुख पूर्वक समय व्यतीत हो रहा था। श्री कान्ता का यौवन व्यतीत होने को गृह जंजाल में फंसा रहूंगा? रहती है। बस पुत्र की इच्छा ही मुनि बनने में बाधक आया । पर उनके कोई सन्तान नही हुई। राजा ने रानी को समझाया क्या कभी मुझे दिगम्बर मुद्रा है। आपकी महारानी श्री कान्ता ने पूर्व भव में गर्भ जो वस्तु मनुष्य के पुरुषार्थ से सिद्ध नहीं हो सकती उसकी चिन्ता नहीं करनी | भार से पीड़ित युवती को देखकर अभिलाषा की थी। चाहिए। कर्मों के ऊपर किसका वश है? तुम्ही कहो, किसी तीव्र पाप का उदय मेरे कभी यौवनावस्था में सन्तान न हो। इसी कारण ही पुत्र-प्राप्ति में बाधा है, इसलिए पात्रदान, जिनपूजन, व्रत उपवास आदि पुत्र नहीं हुआ। अब दुष्कर्मों का निवारण होने वाला शुभकार्य करो, जिससे अशुभ कर्मों का बल नष्ट होकर शुभ कर्मों का बल बढे। है। शीघ्र ही आपके पुत्र होगा। फिर पुत्र को राज्य देकर दीक्षित हो जायेंगे। प्राप्त होगा? RA चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ दिनों बाद श्रीकान्ता ने रात्रि के पिछले प्रहर में हाथी, सिंह, चन्द्रमा एवं लक्ष्मी का अभिषेक। ये चार स्वप्न देखे। उस समय उसके गर्भाधान हो गया। नौ माह बाद उनके पुत्र हुआ। प्रोढ़ावस्था में पुत्र पाकर राज दम्पत्ति को अपार प्रसन्नता हुई। पुत्र का नाम 'श्रीवर्मा' रखा जब पुत्र राज कार्य सम्भालने योग्य हो गया। तब राजा श्रीषेन ने श्री वर्मा को राजकार्य सौंप कर जिनदीक्षा धारण करली। राजा श्रीवर्मा बहुत ही चतुर पुरूष था। जिस तरह बाहरी शत्रुओं को जीता था। उसी तरह काम क्रोधादि अंतरंग शत्रुओं को भी जीत लिया था। भरत क्षेत्र के अल्का देश में अयोध्या नगरी में किसी समय अजितंजय नाम का राजा था। उसकी रानी अजितसेना ने एक रात्रि में हाथी, बैल, सिंह, चन्द्रमा, सूर्य, पद्म-सरोवर, शंख एवं जल से भरा हुआ घट ये आठ स्वप्न देखे । प्रातः पतिदेव अजितंजय से स्वप्नों का फल पूछा आज तुम्हारे गर्भ में पुण्यात्मा जीव ने अवतरण लिया है। ये स्वप्न उसी के गुणों का सुयश वर्णन करते हैं। एक गंभीर, अत्यंत बलवान, सबको प्रसन्न करने वाला, तेजस्वी, बत्तीस लक्षणों से शोभित, चक्रवर्ती और निधियों का स्वामी होगा। फल सुनकर रानी को अपार हर्ष हुआ। गर्भकाल व्यतीत होने पर महारानी ने शुभ मुहूर्त में पुत्र रत्न प्रसव किया। वह बड़ा ही पुण्यशाली था। राजा ने उसका नाम अजिसेना रखा। योग्य अवस्था होने पर राजा ने उसे युवराज बना दिया। जैन चित्रकथा | एक दिन राजा श्रीवर्मा सपरिवार महल की छत पर प्रकृति की छटा देख रहे थे, कि आकाश से उल्कापात हुआ। यह देखकर उनका चित्त सहसा विरक्त हो गया। | उल्का की तरह संसार के सब पदार्थों की अस्थिरता का विचार कर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। दूसरे दिन अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीकान्त को राज्य सौंपकर श्रीप्रभ आचार्य के पास दिगम्बर दीक्षा ले ली। अंत में सन्यास पूर्वक शरीर त्यागकर प्रथम स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में श्रीधरनाम का देव हुआ। एक दिन राजा रानी व युवराज अजितसेन राज सभा में बैठे थे। वहां चन्द्ररूचि नामक असुर निकला। उसे युवराज से पूर्वभव का और स्मरण हो आया। उसने क्रोधित होकर समस्त सभा को माया से मुर्छित तर दिया एवं युवराज अजितसेन को उठा कर आकाश में ले गया। इधर जब माया मुर्छा दूर हुई पुत्र को न पाकर राजा रानी बहुत दुखी हुए। चारों तरफ वेगशाली घुड़सवार दोड़ाये, गुप्तचर भेजे गये, पर कहीं उसका पता नही चला। तब तपोभूषण मुनि का आगमन हुआ। राजा का अत्यधिक हर्ष हुआ मुनिराज ने बताया संसार वही है जहां इष्ट वियोग एवं अनिष्ट संयोग हुआ करते हैं तुम विद्वान हो पुत्र का वियोग दुःख नहीं करना चाहिए। विश्वास रखो तुम्हारा पुत्र कुछ दिनों में बड़े वैभव के साथ तुम्हारे पास आ जायेगा। 相 23 Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतना कह मुनिराज विहार कर गये। राजा भी शोक पूर्वक समय काटने लगा । चन्द्ररूचि असुर ने युवराज अजितसेन को आकाश में ले जाकर मारने के इरादे से मगरमच्छ आदि से भरे हुए एक तालाब में पटक दिया। स्वयं निश्चिंत होकर चला गया। युवराज अजितसेन को उसने बहुत अधिक ऊंचे से पटका अवश्य था, पर पुण्य के उदय काल से कोई चोट नहीं लगी । तैरकर शीघ्र ही तट पर आ गया। inter कुमार को क्रोध आ गया दोनों झपटकर मल्लयुद्ध करने लगे। कुछ समय बाद कुमार ने उसे भू पर पछाड़ने के लिए ऊपर उठाया एवं उसे आकाश में घुमाकर पछाड़ना ही चाहते थे कि Wh Sierr 24 चारों तरफ भयंकर जंगल था, वृक्ष इतने घने थे कि सूर्य का प्रकाश भी नहीं फैल पाता था। स्थान-स्थान पर सिंह, व्याघ्र आदि दुष्ट जीव गरज रहे थे। वयस्क युवराज धैर्यपूर्वक संकीर्ण मार्ग से उस भयानक जंगल में प्रवेश हो गया। कुछ दूर जाने पर एक पर्वत आया वह उस पर चढ गया। एक मेघ के समान काला पुरूष उसके सामने आया। क्रोध से गरज कर कहने लगा अरे कौन है तूं ? मरने की इच्छा है क्या? मेरे स्थान पर क्यों आया है? जहां सूर्य एवं चन्द्रमा की किरण भी नही पहुंच सकती। वहां तेरा आगमन कैसे हुआ? मैं दैत्य हूँ इसी समय तुझे यमलोक पहुंचा देता हूँ। WRENCH By ty. whj आप बड़े योद्धा प्रतीत होते हैं। इस भीषण अटवी पर आपका कैसा अधिकार है? यहां का राजा तो कोइ मृगराज होना चाहिए। युवराज अजितसेन ने हंसते हुए कहा । उसने मायावी रूप त्याग दिया एवं असली रूप में आकर कहने लगा। बस कुमार बस ! मैं समझ गया कि आप बहुत अधिक बलवान हैं। उस मां को धन्य है, जिसने आप जैसा पुत्र उत्पन्न किया। मैं हिरणनाम का देव हूँ। अकृत्रिम चैतालयों की वंदना के लिए गया था। कृत्रिम वेश में यहां मैनें आपकी परीक्षा ली। आप धीर हैं, वीर हैं, गम्भीर हैं, मैं आप से बहुत प्रसन्न हूँ। अब आप अनन्त वैभव के साथ अपने पिता के पास पहुंच जायेंगे। अब में आपके जन्मान्तर की बात बताता हूँ। ww The VER 435 चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इस भव से तीन भव पूर्व आप सुगन्धि नामक देश के राजा थे। आपकी राजधानी श्रीपुर थी। वहां से कुमार थोड़ा चला वह विशाल अटवी समाप्त हो गई। वह पास के किसी देश वहां आप श्रीवर्मा नाम से प्रसिद्ध थे। उसी नगर में राशि एवं सूर्य नाम के दो किसान रहते |में जा पहुंचा। वहां उसने देखा- नगर के लोग घबराये से भागे जा रहे हैं। कारण जानने थे। एक दिन राशि ने सूर्य के मकान में प्रवेश कर उसके धन का हरण कर लिया। जब सूर्य | के लिए उसने पूछा, उत्तर मिला- भाई मैं परदेशी हूँ। मुझे यहां का कुछ ने आपसे निवेदन किया तब आपने पता लगा कर राशि को खूब पिटवाया एवं सूर्य का धन क्या आकाश से टपके हो जो भी हाल ज्ञात नही है। आपत्ति न हो तो वापस दिलवादिया। पिटते-पिटते राशि मर गया। जिससे वह चन्द्र रूचि नामक असुर अनजान से बनकर पूछ रहे हो। बताने का कष्ट कीजिए। हुआ। पूर्वभव के बैर से ही उसने आपका हरण किया और कष्ट दिया और उपकार से कृतज्ञ होकर मैं आपका मित्र हुआ। इतना कह कर देव अन्तर्ध्यान हो गया। तब उस मनुष्य ने हड़बड़ाहट में कहा- यह अरिंजय नाम का देश है। सामने शत्रु की मृत्यु सुनकर महाराज जयवर्मा बहुत प्रसन्न हुए। वे कुमार को बड़े आदर सत्कार का नगर इसकी राजधानी है। इसका नाम विपुलपुर है। यहां के राजा जय वर्मा व से अपने महल ले गये। वहां शशिप्रभा व युवराज का विवाह करना स्वीकार हो गया। | रानी जयश्री हैं। शशिप्रभा इनकी कन्या अपूर्व सुन्दरी है। किसी देश के महेन्द्र नाम | विजया गिरि के दक्षिणश्रेणी में आदित्य नाम का नगर है। उसमें धरणीध्वज नाम का के राजा ने जय वर्मा से शशिप्रभा की याचना की। महाराज तैयार हो गये पर किसी | विद्याधर राजा था। उसको किसी क्षुल्लक जी ने बताया विपुलपुर की राजकुमारी |निमित्त ज्ञानी ने 'महेन्द्र अल्पायु है' कहकर वैसा करनेसे रूकवा दिया। राजा शशिप्रभा का जिसके साथ विवाह होगा । वह तुम्हें मारकर भरत क्षेत्र का राजा बनेगा। उसने विद्याधरों की सेना लेकर विपुलपुर को घेर लिया और संदेश भेजामहेन्द्र को सहन नहीं हुआ। लड़कर जबरदस्ती राजकुमारी का हरण करने के लिए आया हुआ है। राजा जयवर्मा की उसका सामना करने की क्षमता नही है। उसके जो अज्ञात व्यक्ति के साथ शशिप्रभा का विवाह स्वीकार कर लिया है। वह सैनिक नगर में उधम मचा रहे हैं, इसलिए पुरवासी डरकर अन्यत्र भाग रहे हैं। उचित नहीं है। क्योंकि जिसके कुल, बल, पौरूष का पता नहीं हो उसके साथ कन्या का विवाह करने से अपयश ही होगा, इसलिए शशिप्रभा का विवाह तुरन्त चाहे कुलीन हो या अकुलीन एक बार दी हुई कन्या फिर किसी दूसरे को नहीं दी जा सकती। VA hun LADKDLA व इतना कहकर वह मनुष्य भाग गया। जब कोतुहल पूर्वक विपुलपुर की सीमा में जा पहुंचे नगर के भीतर जाने लगे, राजा महेन्द्र के सैनिकों ने रोक दिया, जिससे उन्हें क्रोध आ गया। युवराज ने वहीं पर किसी एक के हाथ से धनुषबाण छीनकर राजा महेन्द्र से युद्ध करना आरंभ कर दिया एवं थोड़ी देर में उसे धराशाही कर दिया। अन्य सैनिक भाग गये। जैन चित्रकथा कहकर दूत को वापस कर दिया एवं लड़ाई की तैयारी शुरू कर दी। 25 Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जयवर्मा को युद्ध के लिए चिन्तित देख कर अजितसेन ने कहा- ऐसा कहकर युवराज ने हिरण्यक देव का स्मरण किया। शीघ्र ही वह दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से भरा रथ आप मेरे रहते जरा भी चिन्ता न कीजियेगा। मैं इन गीदडो लेकर युवराज के पास आ गया। युवराज अजितसेन उस रथ पर सवार हए हिरण्यक देव चतराई। को अभी मार भगाये देता हूँ। पूर्व रथ चलाने लगा। विद्याधरेन्द्र धरणीध्वज एवं कुमार अजितसेन का जमकर युद्ध हआ। अन्त में कमार ने उसे मार गिराया। उसकी समस्त सेना भाग खड़ी हुई। कार्य पूरा होने पर धूम धाम से नगर में प्रवेश किया। कुमार की अनुपम वीरता देककर समस्त नगर वासी हर्ष से फूले न समाये। AAORN राजा जयवर्मा ने शुभ मुहूर्त में युवराज के साथ शशिप्रभा का विवाह कर दिया। CLAWAR फिर कुछ दिनों बाद अयोध्यापुरी वापस पिता अजितसेन ने वधु सहित आये| कुछ समय बाद राजा अजितंजय ने दीक्षा ले ली। युवराज को पिता के वियोग से पुत्र को बड़े उत्सव के साथ नगर में प्रवेश किया। पुत्र के वीर कार्यों को सुन बहुत दुख हुआ। संसार की रीति का चिन्तवन करके सामान्य हो गये। मंत्रिमंडल कर माता-पिता बहुत हर्षित हुए। ने युवराज का राज्याभिषेक कर दिया। उधर मनिराज अजितंजय को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ। इधर अजितसेन की आयुधशाला कें चक्ररत्न प्रकट हुआ। पहले पिता के केवल्य महोत्सव में गये, फिर वहां आकर दिग्विजय के लिए गये। उस समय उनकी सेना लहराते हुए समुद्र की तरह प्रतीत होती थी। सेना के आगे चक्ररत्न चल रहा था। क्रम से उन्होंने समस्त भरत क्षेत्र को आधीन कर लिया। जब चक्रधर अजितसेन दिग्विजयी बनकर वापिस लौटे, तब हजारों मुकुटबद्ध राजाओं ने उनका स्वागत किया। राजधानी अयोध्या में आकर महाराज अजितसेन न्यायपूर्वक प्रजा का पालन करने लगे। YAVAN चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन राजा अजित सेन गुणप्रभ तीर्थकर से अपना भवान्तर सुनकर विरक्त हो। गये। पुत्र जितशत्रु को राज्य सौंपकर जिनदीक्षा धारण कर ली। अतिचार रहित तपश्चरण किया तथा आयु के अन्त में समाधि पूर्वक शरीर त्याग कर सोलहवें अच्युत स्वर्ग के शान्तिकर विमान में इन्द्रपद प्राप्त किया। वहां संचय कर वह पूर्व घातकी खंड में मंगलावती देश के रत्न संचपुर नगर में राजा कनकप्रभ एवं रानी कनकमाला के 'पद्मनाभ' नाम का पुत्र हुआ। पद्मनाभ बड़ा ही तार्किक विद्वान एवं न्यायशास्त्र का वेत्ता था। उसके बल पौरूष की सब और प्रशंसा हुई थी। इधर पद्मनाभ ने नीतिपूर्वक राज्य करते हुए अनेक राजकुमारीयों के साथ विवाह किया। जिनमें सोमप्रभा मुख्य थी। काल क्रम से सोमप्रभा के सुवर्षनाभि नाम का पुत्र हुआ। उन सब से पद्मनाभ का गृहस्थ जीवन बहुत सुखमय हो गया था। जैन चित्रकथा AaQh एक दिन कनकप्रभ महाराज महल की छत पर से नगर की शोभा देख रहे । थे। उनकी नजर एक जलाशय पर पड़ी। नगर के बहुत से बैल उसमें | जल पी-पीकर बाहर निकल जाते थे। एक बुढ़ा बैल कीचड़ में फस गया। कीचड़ से बाहर नहीं निकल सका, प्यास के मारे वही तड़पने लगा। उसकी बैचेनी देखकर कनकप्रभ महाराज का हृदय विषय भोगों से विरक्त हो गया। जिससे वे पद्मनाभ को राज्य सौंपकर श्रीधर मुनिराज से दीक्षा लेकर तपस्या करने लगे। DD aad एक बार मनोहर उद्यान में मुनिराज श्रीधर का आगमन हुआ, राजा पद्मनाभ ने मुनिराज के पास पहुंचकर उन्हें साष्टांग नमस्कार किया बाद में मुनिराज से उन्होंने अपने पूर्व भर्ती की जानकारी ली। फिर कुछ दिनों तक शासन करते रहे। अन्त में किसी कारणवश उनका चित्त विषय वासनाओं | से विरक्त हो गया। जिससे उन्होंने अपने पुत्र सुवर्ण को राज्यभार सौंप कर जिनदीक्षा ले ली। मुनिराज पद्मनाभ ने खूब अध्ययन किया। उन्हें ग्यारह अंगों का ज्ञान हो गया । सौलह भावनाओं | का चिन्तवन कर तीर्थकर प्रकृति का बंध कर लिया। आयु के अंत में सन्यास पूर्वक शरीर त्यागकर जयन्त नामक विमान में अहमिन्द्र पद प्राप्त किया। यही अहमिन्द्र आगे भव में अष्टम तीर्थंकर भगवान चन्द्रप्रभ होंगे। जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में चन्द्रप्रभ नगर में राजा महासेन राज्य करते थे। रानी लक्ष्मणा के साथ सुख पुर्वक समय व्यतीत हो रहा था। राजा महासेन के महल पर प्रतिदिन अनेक रत्नों की वर्षा होने लगी। देवियां आकर महारानी की सेवा करने लगी। यह सब देखकर | राजा को निश्चय हो गया कि लक्ष्मणा की कुक्षि से तीर्थंकर पुत्र होने वाला है। 27 Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चैत्र कृष्णा पंचमी के दिन राणी लक्ष्मणा ने रात्रि के पिछले प्रहर में हाथी बैल आदि एक दिन अलंकार गृह में दर्पण में अपना मुख देखा, मुख पर कुछ विकार सा प्रतीत सोलह स्वप्न देखें। गर्भ का समय बीत जाने पर लक्ष्मणा देवी ने पोष कष्णा एकादशी हुआ। जिससे उनका हृदय सांसारिक भोगों से विरक्त हो गया। सोचने लगेके दिन अनुराधा नक्षत्र में पुत्र को प्रसव किया एवं चन्द्रप्रभ नाम रखा। उनका रंग यह शरीर प्रतिदिन कितना ही क्यों न सजाया जाय, पर काल पाकर विकृत चन्द्रमा के समान धवल था। कई कुलीन कन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ था। हुए बिना नहीं रह सकता । विकृत होने की तो बात ही क्या? यह सम्पूर्ण नष्ट ही उनका गृहस्थ जीवन बहुत सुखदाय था। राज्य करते हुए उन्हें चौबीस पूर्वाक बीत हो जाता है। इस शरीर में राग रहने से उससे सम्बन्ध रखने वाले अनेक पदार्थों से राग करना पड़ता है। अब मैं ऐसा कोई कार्य करूंगा जिससे आगे के गये। भव में शरीर ही प्राप्त न हो। Baltri TION भगवान चन्द्रप्रभ अपने पुत्र चन्द्र को राज्य सौंप कर देव निर्मित विमला पालकी भगवान पुष्पदन्त जी (श्री सुविधिनाथ)।। पर सवार होकर सर्वर्तुक नामक वन में पहुंचे निग्रन्थ मुनी हो गये। उसी वन मे नागपष्करार्धदीप के पुष्कलावती देश में समृद्धिशाली पुण्डरी किणी नगरी में अत्यधिक वृक्ष के नीचे फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को अनुराधा नक्षत्र में केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। बलवान व बुद्धिमान राजा महापद्म का राज्य था। एक दिन मनोहर वन में महामुनि देवों ने आकर ज्ञान कल्याणक का उत्सव किया। समवशरण की रचना हुई। भृतहित नाथ पधारे। प्रजा व समस्त परिवार सहित मुनिराज के दर्शन के लिए दिव्य ध्वनि के द्वारा कल्याणकारी उपदेश दिया। उन्होंने अनेक देशों में विहार गया। उनके उपदेश से प्रभावित होकर उसने राज्य, स्वीसुख आदि से मोह त्याग किया । असंख्य प्राणियों को संसार सागर से उद्धार कर मोक्ष प्राप्त कराया । अन्त दिया एवं पुत्र घनद को राज्या सौंपकर दीक्षा ले ली। कठिन तपस्या की और में सम्मेद शिखर पर आकर विराजमान हुए। प्रतिमा योग धारण कर एक माह । अध्ययन कर ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक समय उसने निर्मल हृदय उपरान्त फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में मोक्ष को प्राप्त हो गये। देवों से दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का चिन्तवन किया। जिससे तीर्थंकर ने आकर उनके निर्वाण क्षेत्र की पूजा की। उनका चिह्न चन्द्रमा का था। पुण्य प्रकृति का बंध हो गया। अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्यागकर चौदहवें अनन्त स्वर्ग में इन्द्र हुआ। ये इन्द्र ही आगे चलकर तीर्थकर पुष्पदंत होंगे। 28 चौबीस तीर्थंकर भाग-2 Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में काकन्दी महामनोहर नगरी में इश्वाकुवंशीय राजा सुग्रीव प्राणनाथ से स्वप्नों का फल सुनकर रानी को बहुत प्रसन्नता हुई। गर्भ का का राज्य था। उनकी रानी का नाम जयरामा था। देवों ने महाराज सुग्रीव के समय पूरा होने पर मार्गशीर्ष शुक्ला प्रतिपदा के दिन उत्तम पुत्र का जन्म हुआ। महल पर रत्नों की वर्षा शुरू कर दी। अनेक देव कुमारियां आकर महारानी देवों ने क्षीर सागर के जल से बालका का जन्माभिषेक किया एवं उनका जयरामा की सेवा करने लगी। रानी जयरामा ने सोलह स्वप्न देखे। प्रात: काल | पुष्पदंत नाम रखा। महाराज सुग्रीव ने हर्षोल्लास पूर्वक पत्रोत्सव मनाया। पतिदेव से स्वप्नों का हाल पूछा- आज तुम्हारे गर्भ में तीर्थकर पुत्र ने बालक पुष्पदंत बाल इन्दु की तरह क्रम से बढ़ने लगे। कुमार अवस्था के बाद उन्हें राज्य प्राप्त हुआ। राज्य की बागडोर हाथ में आते ही उनका साम्राज्य अवतार लिया है। वह महापुण्यशाली पुरूष है। देखो ! उसके गर्भ में आने | प्रतिदिन बढ़ने लगा। कुलीन कन्याओं के साथ इनका विवाह हुआ। राज्य के छह माह पहले से प्रतिदिन करोड़ों रत्न बरस रहे हैं एवं देव कुमारियां करते हुए इन्हें बहत वर्ष व्यतीत हो गये। तुम्हारी सेवा कर रही हैं। 200 000000हा - एक दिन उल्कापात देखने से उनका हृदय विरक्त हो गया। वे सोचने लगे- निदान वे समति नामक पत्र को राज्य का भार सौंप कर देव निर्मित इस संसार में कोई भी पदार्थ स्थिर नही हैं। सूर्योदय के समय जिस वस्तु को 'सूर्यप्रभा' पालकी द्वारा पुष्पक वन में गये। जिन दीक्षा ले ली। आत्मज्ञान में देखता हूँ, उसे सूर्यास्त के समय नहीं पाता हूँ। जिस तरह इन्धन से कभी लीन हो गये। वे ध्यान पूर्ण होने पर कभी प्रतिदिन कभी दो तीन चार या अग्नि सन्तुष्ट नहीं होती, उसी तरह पंचेन्द्रिय के विषयों से मानव अभिलाषाएं उससे अधिक दिनों के अन्तराल से आहार लेने के लिए जाते थे। इस तरह कभी सन्तष्ट नहीं होती। खेद है कि मैंने अपनी विशाल आय साधारण मनष्यों चार वर्ष व्यतीत हो गये। एक दिन नाग वक्ष के नीचे ध्यान लगाकर बैठे थे।। का तरह यो ही बीता दी। दर्लभ मनुष्य पर्याय पाकर मैंने उसका अभी तक वहा कातक शुक्ला द्वीतीया के दिन मूल नक्षत्र में केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। सदुपयोग नहीं किया। आज मेरे अंतरंग नेत्र खुल गये हैं। जिसमें मुझे कल्याण देवों ने आकर उनका ज्ञान कल्याणक उत्सव मनाया। समवशरण की रचना की। देश विदेश में विहार कर सद्धर्भ का प्रचार किया। आय के अन्त में का मार्ग स्पष्ट दीख रहा है। समस्त परिवार व राजकार्य से मुक्त हो निर्जन वन सम्मेद शिखर पर योगनिरोध किया। शुक्ल ध्यान के द्वारा अधातिया कों| में बैठकर आत्मध्यान करूं। का नाश कर भादों शुक्ला अष्टमी के दिन मूल नक्षत्र में मोक्ष प्राप्त किया। देवों | ने निर्वाण कल्याणक की पूजा की। भगवान पुष्पदन्त का ही दूसरा नाम सुविधिनाथ था। इनके मगर का चिह्न था। जैन चित्रकथा 29 Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान श्री शीतल नाथ जी।। पुष्कर द्वीप के वत्स देश में सुसीमा नगरी के राजा पद्मगुल्म साम, दाम, दण्ड एवं भेद, इन चार नीतियों से पृथ्वी का पालन करते थे। उनका निर्मल यश सम्पूर्ण प्रदेश में फैला हुआ था। वे अत्यन्त प्रतापी होकर भी साधु स्वभावी पुरूष थे। एक बार बसन्त आगमन पर सपरिवार वसन्तोत्सव मना रहे थे। नृत्य संगीत आदि के मनोहारी उत्सव मनाये गये। बसन्त केदो माह कब बीत गये। राजा को उसका पता भी नहीं चला। जब धीरे-धीरे वन से बसन्त की शोभा विदा हो गई। ग्रीष्म की तप्त लू चलने लगी। तब राजा का ध्यान उस ओर गया। वहां उन्होने बसन्त की प्रतीक्षा की पर उसका एक भी चिह्न नहीं दिखाई दे रहा था। यह देख कर राजा पद्मगुल्म का हृदय विषयों से विरक्त हो गया। उन्होंने सोचासंसार के सब पदार्थ इस बसन्त की तरह क्षण भंगुर है। मैं चिरंतर समझकर तरह-तरह की रंगरेलिया कर रहा था। आज वही बसन्त यहां दृष्टिगोचर तक नहीं होता। अब न आमों में बौर दिखाई पड़ रहा है एवं न कहीं उन पर कोयल की मीठी आवाज ही सुनाई दी जा रही है। अब मलयाल का पता ही नहीं है। उसके स्थान पर ग्रीष्म की तप्त लू बह रही है। अहो अचेतन चीजों में इतना परिवर्तन । पर मेरे हृदय के भोग-विलासों में कुछ भी परिवर्तन नहीं हुआ। खेद है कि मैंने अपनी आयु का बहुत भाग यूं ही बिता दिया पर आज मेरे अन्तरंग नेत्र खुल गये हैं। मैं अपना हित भी ढूंढ सकूँगा? बस मिल गया मन्त्र-हित का मार्ग । वह मार्ग यह है कि मैं अतिशीघ्र राज्य जंजाल से छुटकारा पाकर-दीक्षा कर लूं एवं निर्जन वन में रहकर आत्म भण्डार को शान्ति सुधा से भरलूं। टिकटकos 000 SOC SUALLW AL ऐसा विचार कर महाराज पद्मगुल्म वन से महल वापस आये एवं पुत्र | इसी जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में मलयदेश के भद्रपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशीय दृढरथ राजा थे। चन्दन को राज्य सौंपकर पुन: वन में पहुंच गये। वहां आनन्द नामक उनकी महारानी का नाम सुनन्दा था। भगवान शीतलनाथ के गर्भ में आने के छह माह पूर्व आचार्य के पास दीक्षा ले ली। आत्म शुद्धि करने लगे। ग्यारह अंगों तक ही देवों ने इनके महल पर रत्नों की वर्षा शुरू कर दी। महारानी सुनन्दा ने रात्रि के पिछले का ज्ञान प्राप्त किया, सोलह भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थकर | प्रहर में सोलह स्वप्न देखे । माघ कृष्णा द्वादशी के दिन पूर्वाषाढ नक्षत्र में सुनन्दा के गर्भ से महापुण्य का बंध किया। आयु के अन्तिम समय में समाधि में स्थित हो भगवान शीतलनाथ का जन्म हुआ। देवों ने मेरूपर्वत पर उनका जन्माभिषेक किया। वहां गये। मरकर पन्द्रहवे आरण स्वर्ग में इन्द्र हए। यही इन्द्र आगे भव में| से आकर भद्रपुर में धूम धाम से जन्म का उत्सव मनाया गया। उनका नाम शीतलनाथ भगवान शीतलनाथ होंगे। रखा गया। राज परिवार में बड़े ही लाड प्यार से उनका पालन हुआ। इनका शरीर सुवर्ण के समान उज्जवल पीतवर्ण का था। युवावस्था में इन्हे राज्य की प्राप्ति हुई। इन्होंने भली भांति राज्य का पालन किया। धर्म, अर्थ, काम का समान रूप से सेवन किया। 30 चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन भगवान शीतलनाथ विहार के लिएवन में गये, तब सब वृक्ष हिम ओस पुत्र को राज्य सौंपकर देव निर्मित 'शुक्रप्रभा पालकी पर सवार होकर स्वयं से आच्छादित थे। पर थोड़ी ही देर बाद सूर्य का उदय होने पर वह ओस अपने सहेतुक वन में जा पहुंचे। दिगम्बर दीक्षा धारण कर ली। तपश्चरण करते हुए। आप नष्ट हो गयी थी। यह देखकर उनका हृदय विषयों की ओर से सर्वथा। तीन वर्ष बीत गये। पोष कृष्णा चतुर्दशी के दिन पूर्वासाढ नक्षत्र में उन्हें दिव्य विरक्त हो गया। उन्होंने संसार के सब पदार्थों को हिम के समान क्षणभंगुर आलोक केवलज्ञान प्राप्त हुआ। देवों ने आकर ज्ञान कल्याणक उत्सव समझ कर उनसे राग भाव त्याग दिया एवं वन में जाकर तप करने का निश्चय मनाया। समवशरण की रचना हुई। सार्वभौम धर्म का उपदेश देकर उपस्थित कर लिया। जनता को सन्तुष्ट किया। उन्होंने अनेक देशों में विहार कर संसार एवं मोक्ष का स्वरूप बतलाया। आयु के अन्त में श्री सम्मेद शिखर पर प्रतिमा योग से विराजमान हो गये एवं अश्विन शुक्ला अष्टमी के दिन पूर्वाषाढ नक्षत्र में अघातिया कमों का नाश कर स्वतंत्र सदन को प्राप्त हए। देवों ने आकर निर्वाण भूमि की पूजा की । इनके कल्प वृक्ष का चिह्न था। P HOTOS BMIRTUN ittini SHAYRICS गाभगवान श्री श्रेयांसनाथ जी।। पुष्कर द्वीप के सुकच्छ देश में क्षेमपुर नगर राजा नलिनप्रभ की राजधानी था। उसने अपने प्रचन्ड बाहुबल से समस्त क्षत्रियों को जीत कर अपना राज्य निष्कंटक बना लिया था। सुन्दर व सुशील रानियां थी। आज्ञाकारी पुत्र थे, निष्कंटक राज्य था, असीम सम्पत्ति थी, वह स्वस्थ एवं निरोग था। हर प्रकार के सुख सम्पन्न प्रजा का पालन करता था। एक बार सहसाम्रवन में अनन्त नामक जिनेन्द्र ने प्रभावक शब्दों में तत्वों का व्याख्यान किया एवं अंत में संसार के दु:खों का निरूपण किया। जिसे सुनकर नलिनप्रभ सहसा प्रतिबुद्ध हो गया। उस समय उसकी अवस्था मानों किसी दुःस्वप्न देख कर जागे हुए मनुष्य की तरह हो गयी थी। वह विषय वासनाओं से अत्यंत विरक्त हो गया। SHEDA उसने राजधानी जा कर पहले पुत्र को राज्य सौंप दिया एवं फिर वन में जाकर मुनि दीक्षा ले ली। वहां ग्यारह अंगों का अभ्यास कर सोलह भावनाओं का चिन्तवन किया। जिससे तीर्थकर पुण्य प्रकृति बंध हो गया। आयु के अंत में सन्यास पूर्वक शरीर त्याग कर अच्युत स्वर्ग में पुष्पोत्तर नामक विमान में इन्द्र हुआ। यही इन्द्र आगे भव में भगवान श्री श्रेयांसनाथ होंगे। जैन चित्रकथा Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में सिंहपुर नगर में इक्ष्वाकुवंशीय राजा विष्णु राज्य करते थे। उनकी महारानी का नाम सुनन्दा था। रात्रि के अन्तिम प्रहर में महारानी सुनन्दा ने हाथी, बैल आदि सोलह स्वप्न देखे। प्रातः काल उसने प्राणनाथ से स्वप्नों का फल सुना। जिससे वह बहुत अधिक प्रसन्न हुई। वह गर्भस्थ बालक का ही प्रभाव था जो उसके गर्भ में आने के छह माह पहले से लेकर पन्द्रह माह तक महाराज विष्णु के महल पर रत्नों की वर्षा होती रही एवं देव कुमारियां महारानी सुनन्दा की सेवा करती रहीं । 32 Als युवावस्था में उन्हें राज्य प्राप्त हुआ। योग्य कुलीन कन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ था। उनका राज्य काल सुख से बीतता था। इन्होंने बयालीस लाक वर्ष तक राज्य किया। एक दिन बसन्त ऋतु का परिवर्तन देखकर इन्हें वैराग्य उत्पन्न हो गया, जिससे दीक्षा लेकर तप करने का निश्चय कर लिया। E | गर्भ का समय व्यतीत होने पर फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन श्रवण नक्षत्र में सुनन्दा देवी के पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। उस समय अनेक शुभ शकुन हुए। देवों ने मेरूपर्वत पर ले जाकर बालक का कलशाभिषेक किया। फिर सिंहपुर प्रत्यावर्तन कर जन्म महोत्सव मनाया बालक का नाम श्रेयांस रखा। राजपरिवार में बड़े प्रेम से उनका लालन पालन होने लगा। पुया अपने श्रेयस्कर नामक पुत्र को राज्य सौंपकर देव निर्मित विमलप्रभा पालकी पर सवार होगर देवों द्वारा मनोहर नामक उद्यान में गये। वहां उन्होंने दिगम्बर दीक्षा ले ली। मौन पूर्वक दो वर्ष व्यतीत होने पर तुम्बुर वृक्ष के नीचे माघकृष्णा अमावस्या के दिन श्रवण नक्षत्र में पूर्णज्ञान प्राप्त हो गया। देवों ने आकर केवल्य महोत्सव मनाया। समवशरण की रचना हुई। आर्य क्षेत्रों में सर्वत्र विहार कर जैन धर्म का प्रचार किया। आयु के अंत में श्री सम्मेद शिखर पर एक महीने तक योग निरोध कर प्रतिमायोग से विराजमान हो गये। वहीं पर श्रावण शुक्ला पूर्णमासी के दिन धनिष्ठा नक्षत्र में मुक्ति मंदिर में प्रवेश किया। देवों ने आकर उनके निर्वाण क्षेत्र की पूजा की। उनका चिह्न गैंडा था । चौबीस तीर्थकर भाग-2 Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ जैन धर्म के प्रसिद्ध महापुरुषों पर आधारित रंगीन सचित्र जैन चित्र कथा - जैन धर्म के प्रसिद्ध चार अनुयोगों में से प्रथमानुयोग के अनुसार जैनाचार्यों के द्वारा रचित ग्रन्थ जिनमें तीर्थंकरों, चक्रवर्ति, नारायण, प्रतिनारायण, बलदेव, कामदेव, तीर्थक्षेत्रों, पंचपरमेष्ठी तथा विशिष्ट महापुरुषों के जीवन वृत्त को सरल सुबोध शैली में प्रस्तुत कर जैन संस्कृति, इतिहास तथा आचार-विचार से सीधा सम्पर्क बनाने का एक सरलतम् सहज साधन जैन चित्र कथा जो मनोरंजन के साथ-साथ ज्ञान वर्द्धक संस्कार शोधक, रोचक सचित्र कहानियां आप पढ़ें तथा अपने बच्चों को पढ़ावें आठ वर्ष से अस्सी तक के बालकों के लिये एक आध्यात्मिक टोनिक जैन चित्र कथा द्वारा आचार्य धर्मश्रुत ग्रन्थमाला सम्पर्क सूत्र : अष्टापद तीर्थ जैन मन्दिर विलासपुर चौक, दिल्ली-जयपुर N.H. 8, गुड़गाँव, हरियाणा फोन : 09466776611 , 09312837240 एवं मानव शान्ति प्रतिष्ठान ब्र. धर्मचन्द शास्त्री प्रतिष्ठाचार्य Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ जैन म अष्टापद न्दिर HINDI विश्व की प्रथम विशाल 27 फीट उत्तंग पद्मासन कमलासन युक्त युग प्रर्वतक भगवान आदिनाथ, भरत एवं बाहुबली के दर्शन कर पुण्य लाभ प्राप्त करें। मानव शान्ति प्रतिष्ठान विलासपुर चौक, निकट पुराना टोल, दिल्ली-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 8, गुड़गांव (हरियाणा) फोन नं. : 09466776611, 09312837240