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________________ कुछ दिनों बाद श्रीकान्ता ने रात्रि के पिछले प्रहर में हाथी, सिंह, चन्द्रमा एवं लक्ष्मी का अभिषेक। ये चार स्वप्न देखे। उस समय उसके गर्भाधान हो गया। नौ माह बाद उनके पुत्र हुआ। प्रोढ़ावस्था में पुत्र पाकर राज दम्पत्ति को अपार प्रसन्नता हुई। पुत्र का नाम 'श्रीवर्मा' रखा जब पुत्र राज कार्य सम्भालने योग्य हो गया। तब राजा श्रीषेन ने श्री वर्मा को राजकार्य सौंप कर जिनदीक्षा धारण करली। राजा श्रीवर्मा बहुत ही चतुर पुरूष था। जिस तरह बाहरी शत्रुओं को जीता था। उसी तरह काम क्रोधादि अंतरंग शत्रुओं को भी जीत लिया था। भरत क्षेत्र के अल्का देश में अयोध्या नगरी में किसी समय अजितंजय नाम का राजा था। उसकी रानी अजितसेना ने एक रात्रि में हाथी, बैल, सिंह, चन्द्रमा, सूर्य, पद्म-सरोवर, शंख एवं जल से भरा हुआ घट ये आठ स्वप्न देखे । प्रातः पतिदेव अजितंजय से स्वप्नों का फल पूछा आज तुम्हारे गर्भ में पुण्यात्मा जीव ने अवतरण लिया है। ये स्वप्न उसी के गुणों का सुयश वर्णन करते हैं। एक गंभीर, अत्यंत बलवान, सबको प्रसन्न करने वाला, तेजस्वी, बत्तीस लक्षणों से शोभित, चक्रवर्ती और निधियों का स्वामी होगा। फल सुनकर रानी को अपार हर्ष हुआ। गर्भकाल व्यतीत होने पर महारानी ने शुभ मुहूर्त में पुत्र रत्न प्रसव किया। वह बड़ा ही पुण्यशाली था। राजा ने उसका नाम अजिसेना रखा। योग्य अवस्था होने पर राजा ने उसे युवराज बना दिया। जैन चित्रकथा | एक दिन राजा श्रीवर्मा सपरिवार महल की छत पर प्रकृति की छटा देख रहे थे, कि आकाश से उल्कापात हुआ। यह देखकर उनका चित्त सहसा विरक्त हो गया। | उल्का की तरह संसार के सब पदार्थों की अस्थिरता का विचार कर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। दूसरे दिन अपने ज्येष्ठ पुत्र श्रीकान्त को राज्य सौंपकर श्रीप्रभ आचार्य के पास दिगम्बर दीक्षा ले ली। अंत में सन्यास पूर्वक शरीर त्यागकर प्रथम स्वर्ग में श्रीप्रभ विमान में श्रीधरनाम का देव हुआ। एक दिन राजा रानी व युवराज अजितसेन राज सभा में बैठे थे। वहां चन्द्ररूचि नामक असुर निकला। उसे युवराज से पूर्वभव का और स्मरण हो आया। उसने क्रोधित होकर समस्त सभा को माया से मुर्छित तर दिया एवं युवराज अजितसेन को उठा कर आकाश में ले गया। इधर जब माया मुर्छा दूर हुई पुत्र को न पाकर राजा रानी बहुत दुखी हुए। चारों तरफ वेगशाली घुड़सवार दोड़ाये, गुप्तचर भेजे गये, पर कहीं उसका पता नही चला। तब तपोभूषण मुनि का आगमन हुआ। राजा का अत्यधिक हर्ष हुआ मुनिराज ने बताया संसार वही है जहां इष्ट वियोग एवं अनिष्ट संयोग हुआ करते हैं तुम विद्वान हो पुत्र का वियोग दुःख नहीं करना चाहिए। विश्वास रखो तुम्हारा पुत्र कुछ दिनों में बड़े वैभव के साथ तुम्हारे पास आ जायेगा। 相 23
SR No.033222
Book TitleChoubis Tirthankar Part 02
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherAcharya Dharmshrut Granthmala
Publication Year
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationBook_Comics, Moral Stories, & Children Comics
File Size9 MB
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