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बहुत कुछ मार्ग अतिक्रमण करने पर राजा भरत गंगानदी के पास पहुंचे। गंगातट पर सेना का पड़ाव डालकर दूसरे दिन अत्यन्त ऊंचे विजयार्थ नामक हाथी पर बैठ कर समस्त सेना के साथ गंगानदी के किनारे प्रस्थान किया। बीच-बीच में अनेक नरपाल मुक्ताफल, कस्तूरी, सुवर्ण, रजत आदि का उपहार लेकर। सम्राट भरत से भेंट करने आ जाते थे।
राजा मगधदेव के क्रोध का पारावार नहीं रहा।
यह चक्रवती राजा भरत का बाण है। इसकी पूजा करनी चाहिए। इस समय दिग्विजय के लिए निकले हुए हैं। भरत क्षेत्र के छह खण्डों पर उनका एक छत्र राज्य होगा अतः प्रबल शत्रु से लड़ना उचित नहीं है।
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स्थलमार्ग से वेदी द्वार में प्रविष्टि हुए यहां गंगा नदी के किनारे के वनों में अपनी विशाल सेना को ठहरा कर परमेष्ठी पूजा सामयिक आदि नित्यकर्म करके अजित जंच नामक रथ पर सवार होकर गंगाद्वार से लवण समुद्र में प्रस्थान किया। जब बारह योजन आगे निकल गये उन्होने अपना नामांकित बाण छोड़ा। त्यों हि वह बाण, मगधदेव की सभा में जा पड़ा।
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अब यह अनेक मणि मुक्ताफल लेकर मंत्री आदि आत्मीयजनों के साथ सम्राट भरत के पास पहुंचा।
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सेवक की इस अल्प भेंट को भी स्वीकार करें।
चौबीस तीर्थंकर भाग-2