Book Title: Choubis Tirthankar Part 02
Author(s): 
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

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Page 30
________________ चैत्र कृष्णा पंचमी के दिन राणी लक्ष्मणा ने रात्रि के पिछले प्रहर में हाथी बैल आदि एक दिन अलंकार गृह में दर्पण में अपना मुख देखा, मुख पर कुछ विकार सा प्रतीत सोलह स्वप्न देखें। गर्भ का समय बीत जाने पर लक्ष्मणा देवी ने पोष कष्णा एकादशी हुआ। जिससे उनका हृदय सांसारिक भोगों से विरक्त हो गया। सोचने लगेके दिन अनुराधा नक्षत्र में पुत्र को प्रसव किया एवं चन्द्रप्रभ नाम रखा। उनका रंग यह शरीर प्रतिदिन कितना ही क्यों न सजाया जाय, पर काल पाकर विकृत चन्द्रमा के समान धवल था। कई कुलीन कन्याओं के साथ उनका विवाह हुआ था। हुए बिना नहीं रह सकता । विकृत होने की तो बात ही क्या? यह सम्पूर्ण नष्ट ही उनका गृहस्थ जीवन बहुत सुखदाय था। राज्य करते हुए उन्हें चौबीस पूर्वाक बीत हो जाता है। इस शरीर में राग रहने से उससे सम्बन्ध रखने वाले अनेक पदार्थों से राग करना पड़ता है। अब मैं ऐसा कोई कार्य करूंगा जिससे आगे के गये। भव में शरीर ही प्राप्त न हो। Baltri TION भगवान चन्द्रप्रभ अपने पुत्र चन्द्र को राज्य सौंप कर देव निर्मित विमला पालकी भगवान पुष्पदन्त जी (श्री सुविधिनाथ)।। पर सवार होकर सर्वर्तुक नामक वन में पहुंचे निग्रन्थ मुनी हो गये। उसी वन मे नागपष्करार्धदीप के पुष्कलावती देश में समृद्धिशाली पुण्डरी किणी नगरी में अत्यधिक वृक्ष के नीचे फाल्गुन कृष्णा सप्तमी को अनुराधा नक्षत्र में केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। बलवान व बुद्धिमान राजा महापद्म का राज्य था। एक दिन मनोहर वन में महामुनि देवों ने आकर ज्ञान कल्याणक का उत्सव किया। समवशरण की रचना हुई। भृतहित नाथ पधारे। प्रजा व समस्त परिवार सहित मुनिराज के दर्शन के लिए दिव्य ध्वनि के द्वारा कल्याणकारी उपदेश दिया। उन्होंने अनेक देशों में विहार गया। उनके उपदेश से प्रभावित होकर उसने राज्य, स्वीसुख आदि से मोह त्याग किया । असंख्य प्राणियों को संसार सागर से उद्धार कर मोक्ष प्राप्त कराया । अन्त दिया एवं पुत्र घनद को राज्या सौंपकर दीक्षा ले ली। कठिन तपस्या की और में सम्मेद शिखर पर आकर विराजमान हुए। प्रतिमा योग धारण कर एक माह । अध्ययन कर ग्यारह अंगों का ज्ञान प्राप्त कर लिया। एक समय उसने निर्मल हृदय उपरान्त फाल्गुन शुक्ला सप्तमी के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र में मोक्ष को प्राप्त हो गये। देवों से दर्शन विशुद्धि आदि सोलह भावनाओं का चिन्तवन किया। जिससे तीर्थंकर ने आकर उनके निर्वाण क्षेत्र की पूजा की। उनका चिह्न चन्द्रमा का था। पुण्य प्रकृति का बंध हो गया। अन्त में समाधिपूर्वक शरीर त्यागकर चौदहवें अनन्त स्वर्ग में इन्द्र हुआ। ये इन्द्र ही आगे चलकर तीर्थकर पुष्पदंत होंगे। 28 चौबीस तीर्थंकर भाग-2

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