Book Title: Choubis Tirthankar Part 02
Author(s): 
Publisher: Acharya Dharmshrut Granthmala

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Page 20
________________ जब युवक हुए उनका पीला सुवर्ण जैसा वर्ण था। उनके शरीर से सूर्य के समान बस इसी घटना से उन्हें आत्मज्ञान प्रकट हो गया। जिससे उन्होंने राज्यकार्य से तेज निकलता था। वे मूर्तिधारी पुण्य के प्रतीक थे। महाराज स्वयम्वर ने इन्हें मोह त्याग कर दीक्षा लेने का निश्चय कर लिया। अभिनन्दन स्वामी राज्य का भार राज्य देकर दीक्षा धारण कर ली। अभिनन्दन स्वामी ने भी राज्य सिंहासन पर पुत्र को सौंप कर देव निर्मित हस्त चित्रा पालकी पर सवार हुए। देव उस पालकी को विराजमान होकर साढे छत्तीस लाख पूर्व तथा आठपूर्वाक तक राज्य किया। एक उग्र उद्यान में ले गये। वहां उन्होंने माघ शुक्ला द्वादशी को पुनर्वसु नक्षत्र के उदय दिन वे महल की छत पर बैठकर आकाश की शोभा देख रहे थे। अरे! ये काल में दीक्षा धारण कर ली। वन में जाकर कठिन तपस्या करने लगे । एक दिन बेल बादलों का समूह मध्य आकाश में स्थित मनोहर नगर सा लगता था। पर उपवास का व्रत धारण कर शाल वृक्ष के नीचे विराजमान थे। उसी समय उन्होंने कुछ ही क्षण में वायु के प्रबल झोंके से नष्ट हो गया। कहीं का कहीं चला गया। शुक्ल ध्यान के अवलम्बन से क्षपक श्रेणी में पहुंच कर क्रम से बढकर पोष शुक्ला चतुर्दशी की संध्या को पुनर्वसु नक्षत्र में अन्नत ज्ञान दर्शन सुख एवं वीर्य प्राप्त हो उन्होंने संसार के दुःखों का वर्णन कर उससे मुक्ति के उपाय बतलाये। वे जो कुछ भगवान श्री सुमतिनाथ जी।। करते थे। वह विशुद्ध हृदय से कहते थे, इसलिए लोगों के हृदय पर उनका गहरा दूसरे घात की खण्ड द्वीप के पुष्कलावती देश में पुण्डरीक किणी नगरी के प्रभाव पड़ता था। आर्य क्षेत्र में स्थान-स्थान पर विहार कर उन्होंने धर्म का महाराज रतिषेण बड़े ही यशस्वी, दयालु व धर्मात्मा थे। अनेक प्रकार के प्रचार किया एवं संसार सिन्धु में पड़े हुए प्राणियों को हस्तावलम्बन देकर तरने में | विषय भोगते हुए जब उनकी आयु का बहुभोग व्यतीत हो गया तब एक दिन सहायता की। आयु के अन्तिम समय में श्री सम्मेद शिखर पर जा पहुंचे एवं किसी कारण वश संसार से उदासीनता उत्पन्न हो गयी। ज्यों ही उन्होंने प्रतिमायोग धारण कर अचल होकर बैठ गये। बैशाख शुक्ला षष्ठी के दिन पुनर्वसु विवेक रूपी नेत्र से अपनी ओर देखा, त्यों ही उन्हें अपने बीते जीवन पर बहुत नक्षत्र में प्रात:काल के समय मुक्ति मंदिर विराजे । इनका चिह्न वानर का था। अधिक संताप हुआ। - हाय, मैंने अपनी लम्बी आयु इन विषय सुखों के भोगने में ही बिता दी, पर विषय सुख भोगने से सुख मिलता है क्या? इसका कोई उत्तर नहीं है। मैं आज तक भ्रम वश दु:ख के कारणों को ही सुख का कारण मानता रहा हूँ। ओह ! कैसा मायाजाल है ? H600XSASAROO अपने पुत्र अतिरथ को राज्य देकर वन में कठिन तपस्या करने लगे। उन्होंने अहंनन्दन गुरू के पास ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। सोलह भावनाओं का चिन्तन किया, जिससे तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो गया। आयु के अन्त में वैजयन्त विमान में अहमिन्द्र हुए। यही आगे भगवान सुमतिनाथ हुए। चौबीस तीर्थकर भाग-2 18

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