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आशीर्वचन
साधना का प्रयोजन है-चित्त-समाधि । चित्त की दो अवस्थाएं होती हैंCo) समाहित और असमाहित । राग-द्वेष या प्रिय-अप्रिय संवेदन चित्त को असमाहित कर देता है । वीतराग-दशा की अनुभूति में चित्त समाहित रहता है ।
जैन-योग में चित्त को समाहित करने की अनेक पद्धतियां निर्दिष्ट हैं । उन पद्धतियों का विधिवत् वर्णन करने वाले ग्रन्थ काल के अन्तराल में निमग्न हो गए । 'समाधि-शतक' और 'कायोत्सर्ग-शतक' जैसे विरल ग्रन्थ बचे हुए हैं । आगम सूत्रों में ध्यान-पद्धति के प्रकीर्ण बीज उपलब्ध हैं । जैन योग के स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए हमने आगमों के विकीर्ण स्थलों का चयन कर द्विवर्षीय पाठ्यक्रम तैयार किया। प्रस्तुत पुस्तक में वह उपलब्ध है । जैन योग के अध्येताओं को इसमें नयी दृष्टि प्राप्त होगी ।
थामला (उदयपुर) दिनांक : १६ जनवरी, १९८६
युवाचार्य महाप्रज्ञ
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