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[ चिदविलास
मलिन होता है; इसलिए उसमें परिणाम गुप्त ( तन्मय ) नहीं करना चाहिये, बल्कि स्वरूप में ही लगाना चाहिये । ज्ञान के अशुद्ध रहने पर भी उसका जानपना तो नष्ट नहीं होता, इस जानपने की ओर देखने से निज ज्ञानजाति की भावना में निज रसास्वाद माता है । यह बात कुछ कहने में नहीं आती, इसके तो श्रास्वाद करने में ही स्वाद-आनन्द है; जिसने चखा, श्रास्वाद लिया; वही जानता है । लक्षण लिखने में नहीं भाते हैं ।
यह जीव इधर बाह्य को देख-देखकर, उधर ( अन्तरंग निज-परमार्थस्वरूप ) को भूला हुआ है, इसीकाररण यह जीव चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है। जैसे लोटन जड़ी को देखकर बिल्ली लोटती है, अतः बाह्य का देखना छूटने पर ही चौरासी लाख योनियों का लोटना छूटता है, इसीलिए परदर्शन को मिटाकर निज अवलोकन करने पर ही यह मोक्ष पद होता है, यही अनन्तसुखरूप चिद्विलास का प्रकाश है ।
अनन्त संसार कैसे मिटे ?
कोई कहता है कि संसार तो अनन्त है, वह कैसे मिटे ? उसका उत्तर है कि बन्दर की उलझन इतनी ही है कि वह मुट्ठी नहीं छोड़ता । तोते की उलझन भी इतनी हो है कि वह नलिनी को नहीं छोड़ता । कुत्ते की उलझन भी