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[ घिविलास
द्वारा 'अहं' शब्द की कल्पना करके प्रतीत्यस्वपद के स्थान पर स्वरूपाचरण द्वारा आनन्दकन्द में सुख उत्पन्न होता है -- ऐसी समाधि वचनयोग के भाव से गुणस्मरण कहलाती है ।
विचार तक ही वचन था, वह विचार छूट गया और मन लीनता में ही रह गया। इसप्रकार वचनयोग से छुटकर मनोयोग से आने पर योग से योगान्तर कहलाता है।
विचारानुगतसमाधि के तोन भेद हैं :- विचारशब्द, विचार का ध्येयवस्तुरूप अर्थ तथा ध्येय वस्तु को विचार से जाननेवाला ज्ञान । अथवा जो उपयोग विचार में आये, उस उपयोग में परिणामों की स्थिरता ही ध्यान है । उससे उत्पन्न हुआ आनन्द और उसमें लीनता बीतराग निर्विकल्पसमाधि है । इसी का नाम 'विचारानुगस समाधि' है ।
(५) मानन्दानुगत समाधि : ज्ञान के द्वारा निजस्वरूप को जानना और जानते समय आनन्द होना ज्ञानानन्द है । दर्शन के द्वारा निजपद को देखते समय आनन्द होना दर्शनानन्द है । निजस्वरूप में परिणमते हुए होनेवाला मानन्द चारित्रानन्द है ।
आनन्द का वेदन करनेवाले की सहज अपने आप ही अपने अपने दर्शन-ज्ञान में परिणति रहती है, तभी आनन्द जानना चाहिये । जब ज्ञान का ज्ञान होता है, दर्शन का दर्शन होता है और घेदन करनेवाले का वेदन होता है; तब