Book Title: Chidvilas
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 155
________________ निर्वितर्कानुगत समाधि ] [ १५१ ___'अहं ब्रह्म, अहंब्रह्म, अहं ब्रह्मोऽस्मि' - ऐसी बार-बार बुद्धि द्वारा प्रतीति करना चाहिए, तब कुछ समय तक ध्यान में ऐसा प्रतीतिभाव दृढ़ रहता है । इसके पश्चात् क्रमशः अपना छट जाता है और केवल 'अस्मि' रह जाता है अर्थात् 'चैतन्य हूँ” – यह भाव रह जाता है। इसप्रकार जब 'मैं चैतन्य हूँ' तथा 'हूं' 'हूं' - ऐसा भाव रह जाय ; तब परमानन्द बढ़ता है, वचनातीत महिमा का लाभ होता है, स्वपद की प्रतीतिरूप स्थिति रहती है, इसी को 'अस्मिदानुगत समाधि' कहते हैं । इससे अपूर्व प्रानन्द की वृद्धि होती है । मस्मिदानुगतसमाधि में भी तीन भेद जानने चाहिये :-- स्वरूप में 'अहं अस्मि' - यह शब्द, 'अहं अस्मि' का भाव -- यह अर्थ तथा उसका जानपना - यह ज्ञान । इस प्रकार तीन भेद है। (७) निवितर्कानुगत समाधि :- अभेद निश्चल स्वरूपभाव द्रव्य या गुण में - जहाँ वितर्कणा नहीं है, निश्चलता में निर्विकल्प निर्भद भावना है तथा एकाग्र स्वस्थिर स्वपद में लीनता है - वहाँ 'निवितर्क समाधि' कही जाती हैं। निवितर्क - ऐसा शब्द, निर्वितर्क अर्थात् तर्क रहित स्वाद में लीनता - ऐसा अर्थ एवं इनका जानपना - ऐसा ज्ञान – ये तीन भेद इसमें भी जानना चाहिए। (८) निश्चिारानुगत समाधि :- अभेद स्वाद में एकत्व अवस्था जानो; उसमें विचार नहीं होता, स्वरूप भावना

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