Book Title: Chidvilas
Author(s): Dipchand Shah Kasliwal
Publisher: Kundkund Kahan Digambar Jain Trust

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Page 147
________________ प्रसंशात समाधि ] [ १४३ स्वयं को सौंपता है। अत. स्वयं ही सम्प्रदान होता है । स्वयं में से स्वयं को स्थापित करता है, अतः स्वयं ही अपादान होता है । स्वयं के भाव का स्वयं ही प्राधार है, अतः स्वयं अधिकरण होता है। __ स्वयं के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव पर भलीभांति विचार करके स्थिरता से राग आदि विकारों को नहीं आने देना चाहिये । इसप्रकार जैसे-जैसे उपयोग की जानकारी प्रवर्तित होती है, वैसे-वैसे ध्यान की स्थिरता में आनन्द बढ़ता है और समाधि का सुख प्राप्त होता है । वीतराग परमानन्द समरसीभाव स्वसंवेदन सुख को समाधि कहते हैं । द्रव्य का द्रव्यीभाव, गुण का लक्षणभाव, पर्याय का परिणमन के लक्षण द्वारा वेदना का भाव अर्थात् वस्तुरस का सर्वस्व बतलाने वाला भाव - इनको सम्यकप्रकार से जानकर जो समाधि सिद्ध की जाती है, उसे 'प्रसंज्ञात समाधि' कहते हैं। प्रसंज्ञात समाधि के भी तीन भेद हैं - शब्द, अर्थ और ज्ञान । प्रसंज्ञातशब्द शब्द है । प्रसंज्ञात शब्द का सम्यग्ज्ञान रूप भाव अर्थ है, और शब्द और अर्थ का जानपना ज्ञान है। जाननहारे (प्रात्मा) को जानकर, मानकर तथा महातद्रप होकर जो उत्कट समाधि धारण की जाती है, उसे 'प्रसंझात समाधि' कहते हैं ।

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