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[ चिविलास
स्थिरता होने से 'सकलविरति संयम' नाम प्राप्त होता है ।
इसके पश्चात् सातवें गुणस्थान से आगे वीतराग निर्विकल्प समाधि बढ़ती जाती है, निष्प्रमाद दशा होती है, अपने स्वभाव का रसास्वाद मुख्य होता है और क्रमशः गुणस्थान के अनुसार बढ़ता जाता है । मन की पाँच भूमिका
परिणाम मन के द्वारा प्रवर्तित होते हैं । मन की पांच भूमिकायें हैं :- १. क्षिप्त, २. विक्षिप्त, ३. मूढ, ४. चिन्तानिरोध और ५. एकाग्र – इन भूमिकाओं में मन घूमता रहता है । इनका वर्णन करते हैं :
(१) क्षिप्त :-- जहाँ मन विषय-कषायों में व्याप्त होकर रंजकरूप [अशुद्ध] भाव में सर्वस्वरूप से लीन रहता है, उसे क्षिप्त मन कहते है ।
(२) विक्षिप्त :- जहाँ चिन्ता की प्राकुलता से कोई विचार ही उत्पन्न नहीं होता, उसे विक्षिप्त मन कहते हैं।
(३) मूढ़ :- हित को अहित और अहित को हित माने, देव को कुदेव और कुदेव को देव माने, धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म माने तथा जो पर को स्व और स्व को न जाने, उसे विवेकरहित मूढ़ मन कहते हैं।
(४-५) चिन्तानिरोध एवं एकाग्रता :- एकाग्रता को चिन्तानिरोध कहते हैं । बाह्य में स्थिरता हुई, स्वरूपरूप