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(८०) ‘भगवान केवलीने बतलाया है कि कौन कौन गुणस्थानोंमें कितने कितने आस्रवद्वार होते हैं । आस्रवके मूल भेद चार हैं और उत्तर भेद ५७ हैं । हे भव्यो, संवरतत्वको जानकर इनके नाश करनेका प्रयत्न करो।
चौदह गुणस्थानोंमें १२० प्रकृतियोंका बन्ध । इकसौ सतरै एक एकसौ,
चौहत्तर सतहत्तर मान। सतसठ तेसठ उनसठ ठावन,
बाइस सतरै दसमें थान ॥ ग्यारम बारम तेरम साता,
एक बंध नहिं अंत निदान । सब गुणथानक बँधै प्रकृति इम,
निह. आप अबंध पिछान ॥६॥ अर्थ-पहले मिथ्यात्वगुणस्थानमें ११७ प्रकृतियोंका बंध होता है । काँकी सब मिलाकर १४८ प्रकृतियां हैं। इनमेंसे स्पर्शादिक २० प्रकृतियोंका स्पर्शादिक ४ में और ५ बंधन और ५ संघातोंका पांच शरीरों में अन्तर्भाव हो जाता है। इस कारण भेद-विवक्षासे सव १४८ और अभेद
१ आस्रवके १ द्रव्यवन्धका निमित्तकारण, २ द्रव्यबन्धका उपादानकारण, ३ भावबन्धका तिमित्तकारण और ४ भावबन्धका उपादानकारण ये चार भेद हैं।