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व्यंतर इंद्र बतीस, भवन चालीसौं आवें । रवि ससि चक्री सिंह, सुरग चौवीसौं ध्यावें ॥ सब देवनके सिरदेवजिन, सुगुरुनिके गुरुराय हो । हू दयाल मम हालौ, गुण अनंत समुदाय हौ * २
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चरचाशतकपर हरजीमल्लराय पानीपतनिवासीकी जो टब्बारूप टीका है, उसमें दूसरे छप्पयके आगे यह एक छप्पय और भी मिलता है, परन्तु एक तो मूल पुस्तकों में यह कहीं मिलता नहीं है, दूसरे इसके न केवल अन्तके दो चरण ही दूसरे छप्पय के समान हैं, किन्तु भाव भी प्रायः एकसा है । इस लिये हमारी समझमें यह प्रक्षिप्त है होगा, और पीछे संशोधन के काटकर उसके स्थान में दूसरा लिख दिया होगा । कटा हुआ समझ कर दोनोंको लिख लिया होगा । उस छप्पयको हम यहां अर्थसहित लिख देते हैं:
। अनुमान होता है कि, समय पसन्द न आनेसे
कविने पहले इसे बनाया अपनी प्रतिपरसे इसको पीछे नकल करनेवालोंने
इंद्र फनिंद नरिंद, पूजि नमि भक्ति बढ़ावें । बलि नारायण मुकटबंदि, पद सोभा पावें ॥ विन जाने जिय भमै, जानि छिन सुरग बसावे ध्यान आन रिधिवान, अमरपद आप लहावे ॥ सब देवनके सिरदेव जिन, सुगुरुनिके गुरुराय हो । हूजे दयाल मम हाल पै, गुन अनंत समुदाय हौ ॥ अर्थ- हे नेमिनाथ भगवन् ! आपको इंद्र, - तथा नमस्कार करके अपनी भक्ति को बढ़ाते हैं, यणके मुकुट आपके चरणोंकी बन्दना करके शोभा पाते हैं आपको जाने बिना यह जीव इस जन्ममरणरूप संसार में भ्रमण करता रहता है, जानकरके वा श्रद्धान करके क्षणभरमें स्वर्ग पहुंच सकता है, और ध्यान करके इन्द्र चक्रवर्ती आदिकी ऋद्धियां प्राप्त करके आप स्वयं अमरपद वा मोक्षपदको प्राप्त होता है । आप सच देवोंके सिरताज देव हैं, सुगुरुओं के महान गुरु हैं और अनंत गुणोंके समुदाय हैं । मेरे हालपर दयाल हूजिये अर्थात् मुझे दुखी देखकर दया कीजिये ।
धरणेन्द्र और नरेन्द्र पूज करके और बलभद्र तथा कृष्ण नारा
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