Book Title: Bhoj Charitra
Author(s): Rajvallabh, B C H Chabda, Shankar Narayanan
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 2
________________ ग्रन्थमाला सम्पादकीय यह बात सच है कि भारतीय प्राचीन साहित्यमें पूर्णतः ऐतिहासिक कृतियोंका प्राय. अभाव है। किन्तु इसका यह तात्पर्य नहीं कि इस साहित्य में ऐतिहासिक तथ्यों और व्यक्तियोंका कोई उल्लेस हो न हो । यहाँ ऐतिहासिक घटनाओं और उनसे सम्बन्धित व्यक्सियोंका उतना ही परिचय मिलता है जितना मानवीय जीवन में आदर्श व उत्कर्ष लाने तथा नीति और सदाचार स्थापित करने के लिए आवश्यक समझा गया । जैन साहित्यम शायः सर्वा क्ष व क पसे इस प्रकार उल्लेख आत-प्रोत है। जैन अर्धमागधी आगमसे लेकर समस्त प्राकृत, संस्कृत व अपभ्रंश रचनाओम तथा आधुनिक भाषात्मक हतियोंमें सैकड़ों आसान ६ उल्लेख ऐसे पाये जाते है जिनसे भारतीय प्राचीन इतिहासको अस्पाट कड़ियोंको जोड़नेमें बड़ी सहायता मिलती है। मध्यकालीन साहित्यमें तो अनेक ऐसे कपानक, प्रबन्ध, चरित्र और रास मिलते हैं जिनके नायक सर्वथा ऐतिहासिक पुरुष है। हाँ इतना अवश्य है कि उनमें ऐतिहासिक तत्वोंके अतिरिक्त अतिशयोक्ति व अलौकिक बातोंका भी इतना समावेश हो गया है कि उक्त दोनों भागोंको पूर्णतः पृथक् कर यशार्थताका निर्णय करना जरा टेढ़ी खीर है। इस सन्दर्भमे प्रस्तुत ग्रन्य अपना एक महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। इसमें ग्यारहवीं पातीके भारतीय सम्राट भोजका चरिव वर्णित है। राजा भोजके कथानक भारतीय आस्मान-परम्परामें बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय है। वे ऐसे दानशील और विद्याप्रेमी थे कि बल्लाल कविने अपने भोजप्रबन्ध भारतके कालिदास व भारमि-जैसे प्राचीन महाकवियोंको उनकी राजसभामं ला बंठाया है और एक-एक मुन्दर पद्यकी रचनापर उन्हें एक-एक लक्ष सुवर्णमुद्राएँ दान करते हुए दिखलाया है। प्रस्तुत ग्रन्थ भोजसम्बन्धी कथा-शृंखलाको एक महत्त्वपूर्ण कई है। इसके रचयिता राजवल्लभ जैनधर्म अनुवायो य पाठक थे, तवा उन्होंने अन्नदानकी महिमा बतलानके लिए यह रचना की। वे राजा भोजसे प्रायः चार सौ वर्ष पश्चात् पन्द्रहवीं पातोके मध्यभागमे हुए थे। ग्रन्थ देखनेसे स्पष्ट है कि उन्होंने अपने समयमै उपलम्म भोजराजसम्बन्धी सभी वार्ताओंका संग्रह कर उन्हें अपने ढंगसे रीतियन शंलीम रखनेका प्रयत्न किया है। इस संस्कृत पद्यात्मक रचनाका प्रथम बार सम्पादन श्रीमान् डा. बहादुरचन्द्र छाबड़ा तथा श्री एस. वांकरनारायणन् ने आठ प्राचीन प्रतियोंके आधारसे किया है। जिनमें सबसे प्राचीन प्रति संवत् १४९८ (सन् १४४१ ) की है, और यही उन्होंने कर्ताके कालको अन्तिम अवधि मानी है। प्रत्यका सम्पावन बहुत कुशलतासे किया गया है, तथा प्रस्तावनामें अन्य व उसके पति सम्बन्धकी समस्त सातव्य बातोंका विद्वत्तापूर्ण रीतिसे विवेचन किया गया है। इस बहुमूल्य देनके लिए हम प्रथितयश विद्वान सम्पादकोके बहुत कृतश है । ऐसी महत्वपूर्ण प्राचीन रचनाओंको आधुनिक ढंगसे सुसम्पादित कराकर प्रकाशित करनेवे लिए भारतीय ज्ञानपीट व उसका अधिकारी वर्ग धन्यवादके पात्र हैं। जबलपुर स्टेशन २७-१२-१९६३ होरालाल जैन आ० ने उपाध्ये ग्रन्यमाला सम्पादक ।

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