________________ सिद्धि में विशेष रूप से सहायक होता है। अतएव उन्होंने लिखा है - पूर्वकाल में वज्रकाय, वज्रवृषभसंहनन युक्त शरीरधारी, महापराक्रमी, अविचलित मनस्वी स्थिर आसन में अवस्थित होते हुए सभी अवस्थाओं में रत रहकर शिव को अर्थात् परम कल्याण को प्राप्त हुए हैं। ध्यान की सिद्धि में आसन की आवश्यकता और उपयोगिता के सम्बन्ध में आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है - 'स्थान, आसन और विधि ये तीनों मिलकर ध्यान की सिद्धि में निबन्धन - कारण हैं। इनमें से यदि एक भी न हो तो साधक का मन विक्षेपरहित, अचंचल या स्थिर नहीं हो सकता।'' वे आगे कहते हैं कि - जिनको आसन सम्यक् रूपसे सिद्ध है उनका मन समाधि एवं ध्यान प्रक्रिया में जरा भी खिन्न नहीं बनता है। जिनके आसन सिद्ध नहीं होता उन्हें शारीरिक स्थिरता प्राप्त नहीं होती शरीर की विकलता - अस्थिरता के कारण ध्यानमूलक प्रयत्न खेद का रूप ले लेता है अर्थात् सुखपूर्वक ध्यान सध नहीं पाता। ध्यानयोग्य दिशा - जो ध्याता प्रसन्नमुख हो ध्यान के समय पूर्वदिशा या उत्तर दिशा के अभिमुख होता है वह प्रशंसा का भाजन होता है। अर्थात् ध्यान के समय पूर्व अथवा उत्तर दिशा में मुख करना योग्य है। आसन विधि - आसन अपनी सुविधानुसार कोई भी अपनाया जाय, सभी आसनों में मेरुदण्ड को सीधा रखना चाहिए, जिससे वक्ष, ग्रीवा एवं शिर उन्नत एवं सम अवस्था में रहें। इस प्रकरण के सन्दर्भ पर गीता में स्पष्ट उल्लेख है कि - "समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर:।''3 अभीष्ट, रमणीय एवं मन के प्रसन्न करने वाले स्थान को पा करके हर्ष से रोमांच को प्राप्त हुआ योगी पर्यंक आसन से अधिष्ठित होता है। इस आसन में योगी चंचलता से रहित और खुले हुए दोनों हाथों रुप कलिकाओं को पर्यंक भाग के मध्य में स्थित करके विकसित कमल के आकार में करता है। अभिप्राय यह है कि दोनों जंघाओं के नीचे के भाग को दोनों पाँवों के ऊपर रखकर दोनों खुली हुई हथेलियों में से बाई हथेली को नाभि के पास नीचे और उसके ऊपर दाहिनी हथेली के रखने पर पर्यंक आसन होता है। इस आसन में योगी अतिशय स्थिर, प्रसन्न, शान्त,स्पन्दनरहित और पुतलियों की मन्दतायुक्त दोनों नेत्रों को नासिका के अग्रभाग में रखता है। इसके साथ ही अपने मुख को सोते हुए 1. ज्ञानार्णव, 26/13, 20. 2. वही, 28/23 3. गीता, 6/12. 130