Book Title: Bhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Author(s): Rajendra Jain
Publisher: Digambar Jain Trishala Mahila Mandal

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Page 229
________________ की जोड़ी) है। यह सुख विघ्नों का बीज है। विपत्ति का मूल, पराधीन, भय का स्थान तथा इन्द्रियों से ही ग्रहण करने योग्य है। किसी कारण से द्रव्येन्द्रियों में खराबी आ जाय तो फिर विषय ग्रहण की योग्यता नहीं रहती। जिनका आत्मा इन इन्द्रियविषयों में ठगा गया है अर्थात् विषयों में मग्न हो गया है उनकी विषयेच्छा तो बढ़ जाती है और सन्तोष नष्ट हो जाता है तथा विवेक भी विलीन हो जाता है।" इन्द्रियरोध और मनोरोध के बिना ध्यान करने वालों की व्यर्थता को ज्ञापित करते हुए ग्रन्थकार स्पष्ट लिखते हैं कि - 'जिन्होंने इन्द्रियों को कभी वश में नहीं किया, चित्त को जीतने का कभी अभ्यास नहीं किया और न कभी वैराग्य को प्राप्त हुए तथा न कभी आत्मा को दुःखी ही समझा और वृथा ही मोक्ष प्राप्ति के लिए ध्यान साधना में प्रवृत्त हो गए, उन्होंने अपनी आत्मा को ठग लिया और वे इस लोक तथा परलोक दोनों से ही भ्रष्ट हो गए। _इन्द्रियविषयों के प्राप्ति आसक्ति का फल बतलाते हुए आचार्य शुभचन्द्र ने स्पष्ट किया है - 'रसना के वश मत्स्य अपने गले को छिदाकर मृत्यु को प्राप्त होती है। स्पर्शन इन्द्रिय के वशीभूत हो गड्ढे में बाँधे गए कृत्रिम हथिनी के चित्र से हाथी बँधन को प्राप्त होता है तथा नेत्र इन्द्रिय के विषय दोष से पतंगा दीपक की ज्वाला में जलकर मरण को प्राप्त होता है। जबकि भ्रमर नासिका इन्द्रिय के वशीभूत होकर सुगन्ध से मुग्ध हो नाश को प्राप्त होता है। इसी प्रकार हरिण भी गीत के लोलुप हो कर्ण इन्द्रिय के विषय से काल रूप सर्प के द्वारा मारे गए हैं। ऐसे एक-एक इन्द्रिय विषय से उक्त जीव नष्ट होते दीखते हैं, किन्तु संसारी जीवों की तो सभी इन्द्रिय विषयों में प्रीति होती है, यह बड़ा खेद अथवा आश्चर्य का विषय है।' __ अन्त में इन्द्रिय संयम की महत्ता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है कि - 'जिस प्रकार कछुआ अपने अंगों को संकोचता है उसी प्रकार जो संयमी मुनि इन्द्रियों के सेना समूह को संवर रूप करता है अर्थात् संकोचता वा वशीभूत करता है वही मुनि दोष रूपी कर्दम से भरे इस संसार में विचरता हुआ भी दोषों से लिप्त नहीं होता है। जिस मुनि का मन इन्द्रियों के विषयों से किञ्चिन्मात्र भी कलंकित नहीं होता उस मुनि के दिव्य सिद्धियाँ बिना यत्न के उत्पन्न होती हैं।' उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि विषयकषायों पर विजय प्राप्त किये बिना पुरुष के प्रशस्त ध्यान की सिद्धि नहीं हो 1. ज्ञानार्णव, 20/14-5, 18. 2. वही, 20/21-2. 3. वही, 20/35. 4. ज्ञानार्णव, 20/37-8. * 188

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