Book Title: Bhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Author(s): Rajendra Jain
Publisher: Digambar Jain Trishala Mahila Mandal

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Page 261
________________ की परिणति तथा उपयोग परिणाम भी चिद्रूप है। इसी के अन्तस्तत्त्व का प्रवचन अर्हत् तीर्थकर करते हैं। इसके ही विस्तार मय चिन्तन में आगमों का सर्जन हुआ है और संक्षेप में यह निरक्षर ओंकार ध्वनि रूप है। यही सधर्म सदा जीवन्त है। इसका उन्मेष या साक्षात्कार चिन्तन-ध्यान की पराकाष्ठा में, निश्चिंतना के कालजयी क्षण में सम्भव होता है। आत्मतत्त्व की मान्यता, निष्ठा, श्रद्धा ही इस योग धर्म का आधार है। यह मान्यता ही अन्त:प्रविष्ट होकर साकार तथा साक्षात्कार को प्राप्त कराती है। यही आगमचक्षु की सदृष्टि को ग्रहण करके परम सत्य के दर्शन को सम्भव कराती है। सम्यग्दृष्टि ही परम सत्य को आविर्भाव करके निरावरण देखती है। इसीलिए उसका स्वरूप सत्य संस्पर्शी होता है। निज अन्तर्यात्रा में, सम्यक्चारित्र में ज्ञान के अनुरूप जीवन स्थिरता में ही स्वसंवित्ति रूप परम आत्मतत्त्व का दर्शन समुपलब्ध होता है। इस योग विज्ञान में दर्शन, ज्ञान और चारित्र की अखण्डता है। चारित्र ही सारे योग अभ्यास की चरम परिणति है। यह आत्मा को आत्मा के निर्मल स्वरूप में योग कराने से सार्थक रूप ही योगविज्ञान है। विविक्त आत्मा के जो अव्यय, नित्य है, परिज्ञान में ज्ञान और सम्प्राप्ति (अवस्थिति) अन्तर्निहित ही है। इस अवस्था को ही विषमता से निवृत्ति और समता में प्रवृत्ति कहा जाता है। यह समता ही समाधि है। यह आत्म-परिस्पंदन,रूप योगावस्था से अयोग की उत्कृष्ट अयोगिजिनेश्वर रूप आत्मावस्था में ले जाता है। वही पूर्ण योगावस्था है। यह किसी एक नय या दृष्टि की संकीर्णता से बंधा नहीं है। यह अनेकान्त आत्मा का प्रतिपादक और प्रतिष्ठापक है। आत्मविशुद्धि ही अध्यात्म का केन्द्रीय विषय है। अत: यह विज्ञान मानव व्यक्ति को आत्मकेन्द्रित करता है। मानव सामाजिक प्राणी है - समाज में वह जन्मता है और समाज में ही शिक्षित तथा दीक्षित होता हुआ जीवन-यापन के साधन पाता है। उसमें जीवन की सार्थकता, अनुशासन, तप, त्याग आदि समाज के माध्यम से ही पनपते हैं। वैसे समाज भी व्यक्ति का ही विस्तार है। व्यक्तियों से ही समाज बनता है। यह सत्य है कि जो व्यक्ति आत्मकेन्द्र का परिचय पा लेता है, वही आत्मा के जीवन की निर्मलता में स्नात हो जाता है और वही समाज में फिर निर्मलता के मूल्यों को, नैतिकता के मूल्यों को स्थापित भी कर सकता है। आत्मज्ञान बिना व्यक्ति में सत्ता, धन आदि का मद बढ़ जाता है और वह अपना और समाज की सेवा कर सकने के बजाय अपकार ही अधिक करता है। आत्मज्ञान की सामाजिक उपादेयता बहुत है। धर्म संस्थापन का आधार यही ज्ञान मानव 220

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