Book Title: Bhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Author(s): Rajendra Jain
Publisher: Digambar Jain Trishala Mahila Mandal

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Page 269
________________ से रहित, नीच कर्मों में निर्लज्ज एवं पाप में ही आनन्द मानने वाला होता है यह ध्यान पहले से पाँचवे गुणस्थान में स्थित जीवों के होता है। धर्म और शुक्लध्यान को सद्, शुभ या प्रशस्त माना है। इसी ध्यान में जीव का रागभाव परिणाम न्यून होता है और वह आत्मचिन्तन में लीन होता है। इसी दृष्टिकोण से इस ध्यान को आत्मविकास का प्रथम चरण माना गया है। दादशांग रूप जिनवाणी, इन्द्रिय, गति, काय, योग, वेद, कषाय, संयम, ज्ञान, दर्शन, लेश्या, भव्याभव्य, सम्यक्त्व, सैनी-असैनी, आहारक-अनाहारक इस प्रकार 14 मार्गणा, 14 गुणस्थानं, 12 भावना, 10 धर्म का चिन्तन करना धर्मध्यान है। धर्मध्यान शुक्लध्यान की भूमिका है। शुक्ल ध्यानवर्ती जीव सातवें गुणस्थान में श्रेणी चढ़ना प्रारम्भ कर देता है। धर्मध्यान में बाह्य साधनों का आधार रहता है, परन्तु शुक्लध्यान में सिर्फ आत्मा का आलम्बन रहता है। इसी ध्यान में आत्मा और कर्म का युद्ध होता है। धर्मध्यान में कर्म को धमकाया जाता है और शुक्लध्यान में कर्म रूपी सेना का श्रुतज्ञान के सहाय से पराभव करने की योजना बनाई जाती है। तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवी जीवों में मन का अभाव रहता है। चौदहवें गुणस्थान में मन, वचन, काय इन त्रियोग का कम्पन नहीं रहता अत: यहाँ का ध्यान सर्वोत्कृष्ट कहा गया है और इन्द्रियनिग्रह की चरमोत्कृष्ट अवस्था यही है। रुपातीत ध्यान में ध्याता-ध्येय ध्यान आत्मा ही है। ___ अभ्यास की पूर्ण अवस्था होने पर मन को एकाग्र करने में समय की आवश्यकता नहीं रहती। सुबह के समय अवचेतन मन में विशेषत: कामशक्तियाँ या अन्य प्रवृत्तियों का प्रभाव रहता है, अत: ऐसे समय में मन को विचलित न होने देने के लिए ध्यान के लिए सुबह का समय निर्धारित किया गया है। विश्राम के पहले का समय भी योग्य माना है। ध्यान के योग्य स्थान ऐसा हो जहाँ ध्यान भंग के कारण, बाधाएँ और उपद्रव की संभावना न हो। ध्याता को ऐसी जगह कभी भी ध्यान नहीं करना चाहिए कि जहाँ स्त्री, पशु, नपुंसक, राक्षस और कोलाहल हो। जिस स्थान पर ध्यान करना हो उसी स्थान पर आसन सुखदायक और ध्यान की मर्यादा टिक सके ऐसा हो / विक्षोभ के कारण न हों, सुखासन, सहज साध्य, ध्यान में व्याघात न पहुँचता हो, इस प्रकार का आसन और स्थान होना चाहिए / ध्यान के लिए अनेक आसनों का विधान किया गया है। उनमें पर्यंकासन और खडगासन मुख्य हैं। आचार्य शुभचन्द्र ने पूर्ववर्ती आचार्यों की कृतियों को आधार बनाकर ज्ञानार्णव ग्रन्थ की रचना की है। अत: पूर्वाचार्यों के समान ही उनके वचन प्रामाणिक एवं संग्रहणीय माने जाते हैं। यही कारण है कि उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने आचार्य शुभचन्द्र और उनके 228

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