Book Title: Bhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Author(s): Rajendra Jain
Publisher: Digambar Jain Trishala Mahila Mandal

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Page 250
________________ जिस प्रकार पातंजलयोग में जन्म, औषधि, मन्त्र, जप, तप आदि से जनित अनेक प्रकार की सिद्धियों का उल्लेख किया गया है, उसी प्रकार जैन-परम्परा में भी तीन प्रकार की ऋद्धियाँ मानी गई हैं - 1. देव, 2. राज्य और 3. गणि (आचार्य)। इनमें 'देवऋद्धि' जन्म से प्राप्त होती है और राज्यऋद्धि' विविध उपायों से तथा 'गणिऋद्धि' तप से प्राप्त होती है।' जैन परम्परा के सिद्धान्त ग्रन्थों में ऋद्धियों-सिद्धियों का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है, इसलिए आचार्य हरिभद्र, आचार्य शुभचन्द्र, आचार्य हेमचन्द्र तथा उपाध्याय यशोविजय आदि मनीषियों ने अपने योग ग्रन्थों में ऋद्धियों के स्वरूप एवं भेदोपभेद आदि का व्यवस्थित, विस्तृत एवं सर्वांगीण विवरण प्रस्तुत नहीं किया / चूँकि ऋद्धिसिद्धि आदि का साधना के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण स्थान है, इसलिए इनका ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। जैन-परम्परा में वर्णित सिद्धियों का वर्णन इस प्रकार है - जैन आगम व आगमोत्तर ग्रन्थों में विभिन्न प्रकारों की ऋद्धियों (लब्धियों) की / चर्चा की गई है। भगवती सूत्र में जहाँ ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि दस प्रकार की लब्धियों का उल्लेख हुआ है वहाँ तिलोयपण्णत्ती', श्रुतसागरीय तत्त्वार्थवृत्ति तथा धवलाटीका में 64, आवश्यकनियुक्ति में 24, षट्खण्डागम में 44, विद्यानुशासन में 48, मंत्रराजरहस्य में 50, प्रवचनसारोद्धार एवं विशेषावश्यकभाष्य में 28 ऋद्धियों का वर्णन मिलता है। श्रुतसागरीय तत्त्वार्थवृत्ति के अनुसार ऋद्धियों का वर्णन इस प्रकार है - गणधर देव आठ ऋढ़ियों से युक्त होते हैं - बुद्धि, क्रिया, विक्रिया, तप, बल, औषधि, रस और क्षिति (क्षेत्र)।12 बुद्धिऋद्धि 13... बुद्धि नाम अवगम या ज्ञान का है। उसको विषय करने वाली ऋद्धियाँ 18 प्रकार की होती हैं - 1. स्थानांगसूत्र, 3/4/501. 3. भगवतीसूत्र, 8/2. 5. तत्त्वार्थवृत्ति, 3/36. 7. आवश्यकनियुक्ति, 69-70. 9. मन्त्रराजरहस्य, 1-7. 11. विशेषावश्यकभाष्य, 777-807. 13. तिलोयपण्णत्ती, 4/969-1023. 2. वही, 2/2. 4. तिलोयपण्णत्ती, 4/1067-91. 6. धवला, पु. 14, पृ. 58. 8. षट्खण्डागम, 4/1/9. 10. प्रवचनसारोदार, 1492-1508. 12. तत्त्वार्थवृत्ति, 3/36. 209.

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