Book Title: Bhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Author(s): Rajendra Jain
Publisher: Digambar Jain Trishala Mahila Mandal

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Page 243
________________ उपाय है। सम्भवत: इसी से 'स्वाध्याय: परमं तप:' कहा गया है। उपर्युक्त दो मुख्य उपाय ही इन्द्रियों और मन को नियंत्रित करने के माने गये हैं / इन्द्रिय और मन के नियंत्रित हो जाने पर ही ध्यान किया जा सकता है। अन्य सब ओर से चित्त की वृत्तियों को रोककर उसे एकमात्र आत्मा में स्थिर करने का नाम ही ध्यान है। चित्त को जब तक एक ओर केन्द्रित नहीं किया जाता तब तक न आत्मदर्शन होता है, न आत्मज्ञान और न आत्मा में आत्मा की चर्या / और जब तक ये तीनों प्राप्त नहीं होते तब तक दोष और आवरणों की निवृत्ति सम्भव नहीं। अत: योगी ध्यान के द्वारा चित्त और आनन्दस्वरूप होकर स्वयं परमात्मा हो जाता है। आचार्य रामसेन लिखते हैं कि 'जिस प्रकार सतत् अभ्यास से महाशास्त्र भी अभ्यस्त एवं सुनिश्चित हो जाते हैं, उसी प्रकार निरन्तर के ध्यानाभ्यास से ध्यान भी अभ्यस्त एवं सुस्थिर हो जाता है। वे योगी को ध्यान करने की प्रेरणा करते हुए कहते हैं - हेयोगिन् ! यदि तूसंसार-बंधन से छूटना चाहता है तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को ग्रहण करके बन्ध के कारणरूप मिथ्यादर्शनादि के त्यागपूर्वक निरन्तर सध्यान का अभ्यास कर।" आचार्य अमितगति ने ध्यान करने वालों को शिक्षा देते हुए योग्य ही कहा है - 'कि आत्मा संयोग के कारण नाना दुःखों को पाता है। 2 अगर वह इस तथ्य को समझ ले तो उस संयोग के छोड़ने में उसे एकक्षण भी न लगे / तत्त्वज्ञान से क्या असम्भव है ? यह तत्त्वज्ञान श्रुतज्ञान है और श्रुतज्ञान ही ध्यान है। अत: ध्यान के अभ्यास के लिए सर्वप्रथम आवश्यक है कि इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण / जब तक दोनों पर नियंत्रण नहीं होगा तब तक मनुष्य विषय-वासनाओं में डूबा रहेगा और उनसे कष्टों को भोगता रहेगा। पर यह तथ्य है कि कष्ट या दुःख किसी को इष्ट नहीं है, सभी को सुख और शान्ति इष्ट है। जब वास्तविक स्थिति यह है तब मनुष्य को सत्संगति से या शास्त्रज्ञान से उक्त तथ्य को समझकर विषय-वासनाओं में ले जाने वाली इन्द्रियों और मन पर नियंत्रण करना जरूरी है। जब इन्द्रिय और मन नियंत्रित रहेंगे तो मनुष्य की प्रवृत्ति आत्मोन्मुखी अवश्य होगी, क्योंकि वे निर्विषय नहीं रह सकते। आत्मा उनका विषय हो जाने पर स्वाधीन सुख और शान्ति की उत्तरोत्तर अपूर्व उपलब्धि होती जायेगी। नि:संदेह ध्यान एक ऐसी अवस्था है, जो परलोक के लिए उत्तम पाथेय है। वह इस लोक को भी सुखी, स्वस्थ और यशस्वी बनाता है। यह ध्यान गृहस्थ और मुनि दोनों के लिए अपनी-अपनी भूमिका के अनुसार उपयोगी है। यदि मानव इसके महत्त्व को . 1. तत्त्वानुशासन, 88. 2. सामायिकपाठ, 28. 202

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