Book Title: Bhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Author(s): Rajendra Jain
Publisher: Digambar Jain Trishala Mahila Mandal

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Page 238
________________ अप्पाणगं' अर्थात आत्मा के द्वारा आत्मा को सम्यक प्रकार से देखो। ___ अर्हन्त श्रमण ध्यान पद्धति की यही मूल पद्धति है कि आप अपने को अपने में देखो, स्वयं, स्वयं को देखो, अपने द्वारा इस प्रकार देखकर अपने को जानो। इस पद्धति में आत्मा स्वयं अपना साधक है, साधन है और साध्य है, आत्मा आप अपना दर्शक है, दर्शन है, और दृश्य है, आत्मा आप अपना ध्याता है, ध्यान और ध्येय है। आत्मा आप अपना ज्ञायक है, ज्ञान है और ज्ञेय है अर्थात् वह इन त्रिपुटियों का अखण्डित अनाकुल ज्योति:पिण्ड ही है, सर्वांग ज्ञान चेतनारूप है। यह अन्तरात्मा ही विभाव मुक्त होकर अन्तर्दृष्टि में अनुभव रूप में आता है। ये दन्दाभिघात, विषम तथा देषादि विभाव तथा कषाय से मुक्त रहकर अन्तर्दृष्टि की अन्तर प्रसरित यात्रा है। उक्त प्रकार से निर्विकल्प विशेष अवलोकन में साधक विभिन्न अन्तर स्तरों की संवेदनाओं को अतिक्रमण करता-करता तटस्थ, साक्षित्व भाव की स्थिति रूप स्थिरता को प्राप्त होने लगता है। सब प्रकार से तनावों, क्षोभों तथा संस्कारों से खाली तथा निर्मल होता जाता है। पूर्वाग्रह और रागद्वेष से मुक्त होकर मात्र निर्विकल्प ही अवलोकन करो। इससे जीवन में पवित्रता, गहनता, गंभीरता, निर्लिप्तता, असंगता, निरन्तर आत्मा स्फूर्ति की प्राप्ति तथा शुद्धता रहने लगती है। जब मन और चित्त में द्रव्य-पुद्गल प्रवाह (कर्म-प्रत्यय प्रवाह) का और प्रतिक्षण बदलते उत्पादव्यय रूप (दुःख-सुख के भाव) प्रवाह का दृष्टा भाव जागता है तब इनकी अनित्यता को जानकर असंगता तथा भिन्नता करते-करते चित्रकला की पारदर्शी कला का सर्जन होने लगता है और चिदकला उदय होने लगती है। चित्त निर्मल, निर्भय और दृश्य हो जाता है। विश्व रहस्यों को जानने लगता है। चित्त के विकार रहित होते ही चित्त ही चिद्रूप परिणत होता है, ऐसे चित्त तथा चिद्रूप के साक्षी एवं दृष्टा रहने का प्रयत्न करना होता है। ... चित्त की उत्तमता (कुशलता) का उसके निर्मल चिद्रप की कलात्मकता का उत्कर्ष करना होता है, उत्तम चित्त में मानवीय एवं देवी गुण संपदा का उदय होता है। यह चैतन्य दर्शन कर सकने की कला पर निर्भर है कि मानव प्राणी मात्र के साथ चैतन्य स्तर पर, एकत्व व समत्व का, अत: अहेतुकी करुणा, सौहार्द, मैत्री, समता, एकता, विश्व वात्सल्य का संवेदन पा सके इसके बिना वह अपने में दूसरों के समान-तत्त्व रूप को न देख सकेगा, न दूसरों में स्वयं के समान दिव्य तत्त्व रूप को। अन्तर वीतराग अनुभूति की गहराई के लिये चित्त को प्रेक्षा व्दारा न केवल अन्तर्दृष्टा बनाओ, न केवल अन्तर्दृष्टिमय बनाओ, उसे निरस्त आग्रह होकर एक आत्म-दर्शक तथा सर्वत्र साम्य वाला भी बनाओ। अर्हत् श्रमण मार्ग तो दर्शन और चिन्तन, भावना रूप अनुप्रेक्षाओं का समन्वित / 1. समयसार, कलश, 13. 2. समयसार, 15. 197

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