Book Title: Bhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Author(s): Rajendra Jain
Publisher: Digambar Jain Trishala Mahila Mandal

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Page 219
________________ गया है। सम्यग्दर्शन प्रकरण में तत्त्वों का स्वरूप विवेचित है। शुद्धोपयोग प्रकरण में आत्मतत्त्व का विशद व्याख्यान किया गया है / अपरिग्र हमहाव्रत के अन्तर्गत परिग्रहत्याग का कथन किया गया है। साम्यभाव प्रकरण में साम्यभाव का स्वरूप लाभ एवं प्रभाव का वर्णन किया गया है। ध्याता की प्रशंसा प्रकरण में परिषहजय की महत्ता बतलाई गई है। जिन मुनियों ने महान् मुनिपन को अंगीकार करके प्राणों का नाश होने पर भी समीचीन संयम की धुरा को नहीं छोड़ा है, वे ही ध्यान रूपी धन के ईश्वर (स्वामी) होते हैं। क्योंकि, संयम से च्युत होने पर ध्यान नहीं होता है। जिन मुनियों का चित्त परीषहरूप . दुष्ट हस्थियों अथवा सर्पो से तथा ग्रामीण मनुष्यों के दुर्वचनरूपी काँटों से किञ्चित् मात्र भी. अपने स्वरूप से च्युत नहीं हुआ। वे योगी ही ध्यान के पात्र हैं।' ध्यान की विविध प्रक्रियाओं के विषय में प्राचीनग्रन्थों में स्फुट उल्लेख मिलते हैं। सम्भवत: उनका समन्वयात्मक निरूपण ज्ञानार्णव में हुआ है। इसमें बताया गया है कि ध्यान के लिए उपयुक्त स्थान, आसन, प्राणायाम तथा ध्यान विधि का ज्ञान आवश्यक है। इस शोध प्रबन्ध में ध्यान की बहिरंग प्रक्रिया का वर्णन ध्यान की सिद्धि में सहायक सामग्री एवं अष्टांग योग विवेचन नामक चौथे अध्याय में किया जा चुका है। अत: यहाँ पुन: उसका विवेचन नहीं किया जा रहा है। ध्यान की अन्तरंग प्रक्रिया के सम्बन्ध में आवश्यक अर्हताओं, ध्यानविषयक ध्येय एवं ध्याता आदि से सम्बन्धित जिन विषयों की अपुनरुक्तता होगी वे ही यहाँ निरूपित की जाएंगी। _____ ध्यान की सिद्धि के लिए योगी को अपने चित्त का दुर्ध्यान, वचन का असंयम एवं काय की चपलता का निरोध करना चाहिए और अपने समस्त दोषों से रहित होकर चित्त को स्थिर करना चाहिए। आचार्य वदृकेर ने ध्यान की सिद्धि के लिए निद्रा विजय का भी निर्देश किया है। वे लिखते हैं - 'हे मुने ! निद्रा को जीतो, निश्चित ही निद्रा नर को अचेतन कर देती है क्योंकि सोया हुआ श्रमण सभी दोषों में प्रवर्तन करता है।'4 इसी तरह कषाय और आरम्भ के त्याग का निर्देश करते हुए लिखा है - 'यह ध्यानतप आरम्भ और कषाय को उसी प्रकार से सहन नहीं करता जिस प्रकार से नेत्र और लवण समुद्र निश्चित ही कचरे को सहन नहीं करते।' संसार के दःखों से डरकर वैराग्य प्राप्त होना, मन का स्थिर होना, एकान्त स्थान में निवास करना और अनेक प्रकार के उपसर्गों को सहन करने की शक्ति होना ये सब मुनियों के ध्यान के साधन हैं। 1. ज्ञानार्णव, 23/15-18. 2.योगसार, 163 3. वृहदद्रव्यसंग्रह, गाथा 48. 4. मूलाचार, गाथा 974. 5. वही, गाथा 979. 6. प्रबोधसार, 191. 178

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