Book Title: Bhaktamar Kalyanmandir Mahayantra Poojan Vidhi
Author(s): Veershekharsuri
Publisher: Adinath Marudeva Veeramata Amrut Jain Pedhi

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Page 272
________________ RER at जललग्नाद् भागादपरो भागो घटस्य निजं पृष्ठं तत्रलग्नान नरान् यत् तारयसि तद् युक्तमेव । ॥२९॥ tran* श्री माय मुनि समे छे - कर्मणां-ज्ञानावरणीयादीनां विपाकः-फलोपभोगस्तेन शून्यः रहितः। * મન્દિર पार्थिवघटस्तुकर्मभिः कुम्भकारक्रियाभिः विपचन विपाकस्तेन शून्यो न भवति अमिविपाकयुक्तो भवतीत्यर्थः। સહાયન भावार्थ - हे जिनेश्वर ! अपने आश्रितों को संसार सागर से पार उतारते हैं - हे नाथ ! आप भव समुद्र से पराङ्मुख होते हुए भी वि अपने पीछे लगे हुए प्राणियों को उक्त समुद्र से पार उतारते हो अर्थात् ज्ञान, दर्शन और चारित्र्य के मार्ग पर चलने वाले प्राणियों को आप भवसागर से पार उतारते हो। यह योग्य ही हैं क्यों कि आप पार्थिव निप अर्थात् मिट्टी के घडे की तरह हैं। जिस प्रकार मिट्टी का घडा उस्या रखकर उसे पकड़ने से वह तैरने में सहायक होता हैं, परन्तु माश्चर्य यह हैं कि आप कर्म विपाकसे रहित हैं जब कि पार्थिवनिप मिट्टी का घरा वैसा नहीं होता। इससे विरोधाभास हुआ। उसके परिहार हेतु इस प्रकार मर्थ करेंपार्थिव अर्थात राजा और निप अर्थात् पालनकर्ता ऐसे आपका प्राणियों को तारना योग्य ही है तथा माप ज्ञानावरणादि पाठ कर्मों के विपाक से रहित है ॥ (२९) मन्त्र- ॐ तेजोऽहं सोम सुधा हंस स्वाहा ॥ ॐ अर्ह ही वी स्वाहा । १६ पक्ष ॥ ॐ ही संसार सागर तारकाय श्री जिनाय नमः । १८ अक्षरी ॥ *le - ॐ ही अर्ह णमो देवाणुप्पियाए । १२ ४६॥ ॥ - - ॐ ही क्रौ ही हूँ फट् . स्वाहा । ८ ॥ ॐ... परम....अवन्ति.... पाना २२३नानन्त्रीजी (गाजी थाणी) Man • on on५. (२८) पास माहिता पास freyes, 4G न निवाश मा॥ २१ामा २; सेनेला KKITKAU

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