Book Title: Bhagvati Sutra Part 07
Author(s): Ghevarchand Banthiya
Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh

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Page 6
________________ (5) पुद्गल में परस्पर भी होते हैं तथा जीव और पुद्गल में भी । दोनों द्रव्य सक्रिय हैं। परमाणु से द्वयणुकादि स्कन्ध बनना पुद्गल का परस्पर संयोग है और जीव के साथ शरीर, इन्द्रियादि रूप से जडना, जीव-द्रव्य और पुदगल-द्रव्य का संयोग सम्बन्ध है। इस सम्बन्ध को भगवती सूत्र श. ८ उ.६ में 'प्रयोग बन्ध' कहा है और उसके भेद-प्रभेद बतलाये हैं (मा. ३ पृ. १४७५) इसी से जीव को 'पुद्गली' भी कहा है (श. ८ उ. १० पृ. १५६६)। आत्मा में ही पाप, धर्म, बुद्धि, मति, उत्थानादि, गति, कर्म, लेश्या, दृष्टि, दर्शन, मत्यादि ज्ञान-अज्ञान, औदारिकादि शरीर, योग और उपयोगादि सब आत्मा में ही होते हैं, आत्मा के अतिरिक्त अन्य अजीव-द्रव्य में नहीं होते (श. २० उ. ३ भा. ६ पृ. २८४१ तथा श. १८ उ. ४ पृ. २६९२) । जीव अपनी आत्म-ऋद्धि, आत्म-कर्म एवं आत्म-प्रयोग से ही परभव में उत्पन्न होता है, पराई ऋद्धि से नहीं (श. २५ उ. ८ पृ. ३५४२) । _जब तक जीव का पुद्गल के साथ सम्बन्ध है, तब तक वह कामी-भोगी भी है ही। जीव स्वयं प्रेरक है, प्रयोग करने वाला है, गाहक है--संग्राहक है। यह प्रत्यक्ष में भी दिखाई दे रहा है । अजीव का भोग-परिमोग करते हुए भी अपने आपको सिद्ध के समान अशरीरी, अकर्मक, अभोगी आदि मानना असत्य है। रुचक प्रदेश श. २५ उ. ४ पृ. ३३३३ में अस्तिकाय के आठ मध्य (रुचक) प्रदेशों का उल्लेख है । इनमें जीवास्तिकाय के आठ मध्य प्रदेशों का भी उल्लेख है । इनके विषय में एक मत-भेद चल रहा है। कहा जाता है कि--'ये रुचक प्रदेश कर्म-बन्धनों से सर्वथा रहित निर्मल एवं स्वच्छ है ।' किन्तु यह बात आगम-विधान से प्रमाणित नहीं होती । इसी भगवती सूत्र के श. १ उ. ३ (भा. १ पृ. १६३) में कांक्षामोहनीय कर्म-बन्ध के स्वरूप निरूपण में प्रश्न है कि-- (१) 'कांक्षा-मोहनीय कर्म-दलिक--१ देश से देशकृत है २ देश से सर्वकृत है ३ सर्व से देशकृत है या ४ सर्व से सर्वकृत है ?' भगवान् का उत्तर है कि "गौतम ! न तो देश से देशकृत है, न देश से सर्वकृत है और न सर्व से देशकृत Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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