Book Title: Bhagvati Sutra Part 07 Author(s): Ghevarchand Banthiya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak SanghPage 10
________________ (9) चारित्री हो सकते हैं । यदि उस पुलाक भाव से नहीं लौटे और आत्मा में कलुषितता बनी रहे, तो असंयम में आ गिरें। उनके लिये दो ही स्थान रहते हैं--विगद्ध संयम या असंयम । संयमी रहेंगे, तो कषाय-कुशील-निर्दोष संयमी, अन्यथा अमयमो । बकुश नहीं, प्रतिसेवना-कुशील नहीं और संयमासंयमी भी नहीं। बकुश-निग्रंथ का चारित्र भी दूषित रहता है । वे प्राणातिपातादि मूल गणों में तो दोष नहीं लगाते, किंतु उनके उत्तरगुणों में से किसी में दोष लगता है (पृ. ३३६६) । बकुश का अर्थ है--चारित्र रूपी स्वच्छ चद्दर में दोष रूपी धब्बे लगाने वाला। प्रतिसेवना-कुशील मूलगुण और उत्तरगुण में दोष लगाने वाला। पुलाक निग्रंथ तो इस समय नहीं होते और न निग्रंथ और स्नातक ही होते हैं । इस काल में बकुश, कषय-कुशील और प्रतिसेवना-कुशील ही होते हैं । कषाय-कुशील निग्रंथ का चारित्र तो निर्दोष ही होता है । वे मूलगुणों और उत्तर गुणों में किञ्चित् भी दोष नहीं लगाते । संज्वलन कषाय के उदय के कारण उन्हें 'कुशील' कहा गया है । यदि इनमें से कषाय-भाव निकल जाय, तो तत्काल यथाख्यात-चारित्री वीतराग एवं सर्वज्ञ-सर्वदर्शी बन जाय । वे महात्मा कषाय को नष्ट करने में प्रयत्नशील रहते हैं। बकुश और प्रतिसेवना-कुशील के विषय में कुछ विशेष स्पष्ट करना प्रसंग एवं समयानुकूल लगता है। इस विषय में वर्तमान में कई प्रकार के विचार-भेद उत्पन्न हुए हैं। .. कुछ विचारक सोचते हैं कि बकुश-निग्रंथ शिथिलाचारी होते हैं । वे उत्तर गणों में दोष लगाते रहते हैं और प्रतिसेवना-कुशील के तो मूलगुणों में भी क्षति होती है और उत्तर गुणों में भी। इन दोनों का संयम निर्दोष नहीं होता। ये जीवनभर सुखशीलिये रहते हैं, फिर भी इनमें संयम होता है। आगमों में इन्हें 'निग्रंय' माना है और ये छठेसातवें गुणस्थान में रहते हैं। अतएव शिथिल आचार वाले साधुओं को भी निग्रंथ ही मानना चाहिए। उपरोक्त विचार ठीक नहीं लगता। शिथिलाचारी बना ही रहने वाला व्यक्ति निग्रंथों की गणना में नहीं आ सकता। भगवती सूत्र में जिन्हें 'बकुश' और 'प्रतिसेवना. कुशील' कहा गया, वह अपेक्षा विशेष से है। जिस निग्रंथ को किसी समय बकुश या प्रतिसेवनापन की प्राप्ति हुई और दोष का सेवन हुआ, वह कुछ देर बाद सम्भल कर पुनः कषायकुशीलपन में आ गया और साधना यथावत् करने लगा। किंतु उसने जो दोष सेवन किया, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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