Book Title: Bhagvati Sutra Part 07 Author(s): Ghevarchand Banthiya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak SanghPage 11
________________ ( 10) उस दोष की शुद्धि नहीं की और आगे बढ़ गया । ज्ञानादि के उत्तरगुण में बकुश ने या मूलोत्तरगुण में प्रतिसेवी ने जो दोष लगाये, उनकी शुद्धि नहीं कर के यों ही छोड़ कर साधना करता रहा । जैसे किसी साधु ने पात्र को सुशोभित बनाया । बनाते समय उनकी भावना दूषित हुई और बनाने के बाद भी उनकी सुन्दरता से तुष्टि की भावना कुछ काल रही, लेकिन बाद में वह भावना हट गई और संयम में रमण करने लगे। इस प्रकार की स्थिति में ही निग्रंथता सुरक्षित रह सकती है, अन्यथा नहीं। उन्हें बकुश इसलिये कहा कि उनमें उस अवस्था का दोष विद्यमान है । वे शुद्धि कर के निर्दोष नहीं हुए। __ पाँव में कांटा लगा हो, उसकी हलकी-सी टीस हो, किन्तु उसकी उपेक्षा कर के चलते रहे । कांटा नहीं निकाला और यात्रा आगे बढ़ती रही। यही स्थिति बकुश और कुशील की है । यदि कांटा लगे, वहीं पथिक बैठ जाय और आगे नहीं बढ़े, तो उसका न तो आगे बढ़ना होता है और न वह 'पथिक' ही रहता है, फिर तो उसका स्थायी निवास वहाँ हो जाता है । इसी प्रकार यदि बकुश और कुशील, उस दूषित अवस्था के भावों में ही रमे रहें, तो वे 'निग्रंथ' नहीं रह कर 'सग्रंथ' हो जाते हैं । उनकी स्थिति संयतासंयती अथवा असंयती की हो जाती है। भगवती सूत्र बतलाता है कि बकुश और प्रतिसेवना कुशील की स्थिति वैसी नहीं है । वे दूषित भावों से ऊपर उठ कर साधना करते हैं और उनमें से कई आराधक भी होते हैं (पृ. ३३८३) उनमें से कोई विरोधक हो, तो भी वे कम-से-कम प्रथम स्वर्ग में तो जाते ही हैं, अन्यथा बकुश और प्रति-सेवना कुशील उत्कृष्ट बारहवें स्वर्ग-अच्युत कल्प तक जा सकते हैं (पृ. ३३८२) यहां तक पहुंचने वाला बकुश और प्रतिसेवना कुशील को शिथिलाचारी एवं जीवन भर दोष सेवन करने वाला कैसे माना जा सकता है ? जो संयम की विराधना करने वाला है, वह तो जघन्य भवनपति में और उत्कृष्ट सौधर्म स्वर्ग में जाता है (भ. श. १ उ. २ भा. १ पृ. १५३) ऐसी स्थिति में इन्हें विराधना करने वाला कैसे माना जाय? बकुश और प्रतिसेवना कुशील छठे और सातवें गुणस्थान में होते हैं । जो साधु अप्रमत्त होता है, उसे शिथिलाचार में ही रत कैसे माना जाय ? , बकुश और प्रतिसेवना कुशील केवल स्थविर-कल्प में ही नहीं होते, जिनकल्प में भी होते हैं (पृ. ३३६२) जिनकल्पी को शिथिलाचारी मानना तो किसी भी प्रकार उचित नहीं हो सकता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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