Book Title: Bhagvati Sutra Part 07 Author(s): Ghevarchand Banthiya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 8
________________ (7) प्रदेश ज्ञानावरणीय कर्म के कितने अविभाग पलिच्छेद से आवेष्टित परिवेष्टित "एगमेगेणं मंते ! णेरइयस्त्र एगमेगे जीवपए से णाणाव रणिन्न.......भगवान् फरमाते हैं " गोयमा ! णीयमं अनंते हि " -- नियम से निश्चय ही अनन्त अविभागपलिच्छेद से आवेष्टित-परिवेष्टित हैं । -- भगवान् का यह उत्तर इतना स्पष्ट है कि इससे विपरीत किसी की कोई बात टिक ही नहीं सकती । ने (४) भगवती के इस अंतिम भाग श. २५ उ. ४ पृ. ३३३४ में गणधर महाराज पूछा -- " भगवान् ! जीवास्तिकाय के आठ मध्य प्रदेश आकाश के कितने प्रदेशों का अवगाहन करते हैं ?" भगवान् फरमाते हैं - " जघन्य एक, दो, तीन, चार, पाँच, छह और आठ प्रदेशों का अवगाहन करते हैं, परन्तु सात प्रदेशों का अवगाहन नहीं करते ।" यह विधान स्पष्ट बता रहा है कि जिन आठ मध्य प्रदेशों को निर्बंन्ध बताया जा रहा है, वे निर्बन्ध नहीं है । उनमें संकोच - विस्तार भी होता है। कभी वे एक ही आकाश प्रदेश पर टिक जाते हैं और कभी दो से लगा कर छः और आठ पर भी रह जाते हैं । यह संकोच - विस्तार ही उन्हें कर्मबद्ध बता रहा है। निगोद के सूक्ष्म शरीर में होने पर वे सुकड़ कर एक भाकाश-प्रदेश पर भी रह जाते हैं और बादर शरीर अथवा केवली -समुद्घात के समय यावत् आठ प्रदेशों पर स्थित हो जाते हैं । संकोच - विस्तार कर्मबद्ध अवस्था में ही होता है, मुक्त अवस्था में नहीं । यह भी तर्क दिया जाता है कि - 'जीव के ज्ञान का अक्षर का अनन्तव भाग खुला रहता है, वह अनन्त भाग इन आठ प्रदेशों का ही है ।' परन्तु यह तर्क भी उचित नहीं लगता । अक्षर का अनन्त भाग जो सदैव खुला रहता है, वह समस्त आत्म-प्रदेशों का खुला रहता है, केवल आठ प्रदेशों का ही नहीं । नन्दी सूत्रकार ने इस विधान के आगे बादलों से छुपे हुए चन्द्र-सूर्य की प्रभा का जो उदाहरण दिया है ( श्रुतज्ञानाधिकार सू. ३६) वह समस्त आत्म-प्रदेशों की अपेक्षा है । चन्द्र-सूर्य पर बादलों का काला आवरण छा जाने पर भी जो प्रभा निकलती है, वह समस्त चन्द्र-सूर्य से निकलती है, किसी एक अंश या मध्य के अंश से नहीं। इसी प्रकार अक्षर का अनन्तवाँ भाग जो खुला है, वह भी समस्त प्रदेशों का । इसीसे हमें शरीर के किसी भी प्रदेश पर कोई स्पर्श होता है, तो वहां के आत्म- प्रदेश से हमें ज्ञात हो जाता है। यदि अक्षर का अनन्तवां अनावरित भाग वहां नहीं होता, तो हमें मालूम Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 692