Book Title: Bhagvati Sutra Part 07 Author(s): Ghevarchand Banthiya Publisher: Akhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh View full book textPage 4
________________ प्रथमावृत्ति पर प्रस्तावना भगवती सूत्र का यह सातवाँ-अंतिम--भाग, निग्रंथ-प्रवचन-प्रिय भव्यात्माओं के समक्ष उपस्थित करते हुए हमें हर्ष हो रहा है। प्रथम भाग विक्रम संवत् २०२१ में प्रकाशित हुआ था और यह अन्तिम भाग अब प्रकाशित हो रहा है । इसके पूर्ण होने में आठ वर्ष लग गये। इस संस्करण में मूलपाठ का अनुवाद है। विवेचन अधिकांश टीका के अनुसार हैं। कहीं-कहीं कुछ विशेष विचार भी हुआ है। पाठकों की सुगमता के लिये कठिन शब्दार्थ ही दिये गये हैं। वे भी अंतिम दो भागों में तो बहुत ही कम दिये गये हैं। यह संस्करण एक सामान्य प्रकार का है। मैं चाहता था कि स्थान-स्थान पर विशेष टिप्पण दिये जायें और प्रत्येक भाग की भूमिका, मुख्य विषयों का हार्द स्पष्ट करते हुए लिखी जाय । प्रथम भाग की प्रस्तावना में तो मैने कुछ लिखा भी था, किंतु बाद में नहीं लिख सका। इस बार भी अवकाश कहाँ है, फिर भी कुछ खास बातों पर लिख रहा हूँ। जीव भोगी और अजीव भोग्य एकान्तवादी कहते हैं कि जीव भोगी नहीं, जीव, अजीव को ग्रहण नहीं कर सकता भोग नहीं कर सकता। उनका ऐसा कथन असत्य है। भगवती सूत्र श. २५ उ. २ पृ. ३२०८ में स्पष्ट विधान है कि--'अजीव-द्रव्य, जीव-द्रव्य के परिभोग में आता है।' जीव-द्रव्य ही अजीव को शरीर इन्द्रियों एवं आहार आदि रूप से ग्रहण करता और परि. भोग में लाता है । श. ७ उ. ७ भा. ३ पृ. ११७० में भी काम और भोग जीव के ही होना बतलाया है। एकान्तवादी मत, जीव की विभिन्न स्थितियां नहीं मानता। इतना ही नहीं, वह जीव की प्रत्यक्ष दिखाई देने वाली और अनुभव में आने वाली दशा का लोप कर के एक अंश को ही पकड़े हुए है, जब कि जिनागमों में जीव की सभी स्थितियों का वर्णन है। भगवती सूत्र श. १ उ. १ में दो प्रकार के जीव बतलाये हैं--संसार-समापनक और असंसार-समापनक (भा. १ पृ.८४) असंसार-समापनक जीव सिद्ध भगवंत हैं । इनके Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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