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धर्म
धर्म उत्कृष्ट मगल है। वह अहिंसा, सयम, तपरूप है। जिस साधक का मन सदा उक्त धर्म मे रमण करता है, उसे देवता भी नमस्कार करते हैं।
जरा और मृत्यु के वेगवाले प्रवाह मे बहते हुए प्राणियो के लिए धर्म ही एक द्वीप (वेट) है, आधार है और उत्तम गति व शरण है।
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जब तक वृद्धावस्था नही आती, जब तक व्याधियो का जोर नही वढता, जब तक इन्द्रियाँ क्षीण नहीं होती, तब तक विवेकी आत्मा को जो भी धर्म का आचरण करना हो, वह कर लेना चाहिए ।
धर्म ही एक ऐसा पवित्र अनुष्ठान है, जिससे आत्मा का शुद्धीकरण होता है।
सदा विषय-वासना मे रचा-पचा रहनेवाला (मूढ) मनुष्य धर्म के तत्त्व को नही पहचान पाता।
धर्म मेरा जलाशय है, ब्रह्मचर्य शान्ति तीर्थ है, और कलुपभाव-रहित आत्मा प्रसन्न लेश्या है, जो मेरा निर्मल घाट है, जहाँ पर आत्मा स्नान कर कर्म-रज से मुक्त होती है ।
राजन् । एक धर्म ही रक्षा करनेवाला है, उसके सिवाय ससार मे कोई भी मनुष्य का रक्षक नहीं है ।