Book Title: Bane Arham Author(s): Alka Sankhla Publisher: Dipchand Sankhla View full book textPage 3
________________ मैंने शुद्ध सामायिक करते हुए देखा है हमारे दोनों परिवार पर माँसा का सदैव आशीर्वाद रहा। बेटी कंचनदेवी (बाँए) तथा बहू अलका सांखला (दाँए) को संथारे के समय आशीर्वाद देते माँसा सुबादेवी। गया था। कब खाना, और कितना खाना निश्चित था। समय-समय पर त्याग करते रहना उनका स्वभाव ही बन गया था। शांत और सरल जीवन उनकी प्रकृति बन गई थी। हालांकि हम समय-समय पर उनका ध्यान रखते थे, फिर भी वह किसी से कुछ मांगते नहीं थे। उन्हें किसी से कुछ अपेक्षा रखना अच्छा नहीं लगता था। व्यवहार में भी पूर्ण समता थी। किसी को एक भी ऊँचा नीचा शब्द कहना मानो उनकी जीवन की पोथी में था ही नहीं। मैं जब भी पूछती “आपके लिए क्या बनाना है, आपको क्या अच्छा लगता है तो एक ही वाक्य कहते - "जो अच्छा लगे वो बनाओ, मुझे हर चीज अच्छी लगती है।'' "क्या करें ? कैसे करें ?" पूछने से एक ही उत्तर मिलता – “जो अच्छा लगे वो करो'' उनकी भाषा में "जच जियां करो।" "मने कोई ठा न ठिकाणो।" क्या सरलता और मृदुता थी उनके जीवन में। धार्मिक संस्कार तो उनके रग-रग में बसे हुए थे। किस चीज से कर्म बंधता है और किससे कर्मों का बन्धन हल्का होता है ? समझाते रहते थे। मेरा पिहर (मायका) महाराष्ट्र में है। मेरा भोजन बनाने का तरीका और राजस्थानी भोजन बनाने के तरीकों में काफी अंतर है।सब कहते थे, 'इनका भोजन अलग है, परंतु मेरे सासुजी कहते थे, अच्छा भोजन है क्योंकि मैं न तो महाराष्ट्रियन पद्धति का भोजन बनाती और न ही राजस्थानी। मेरा सात्विक और योगिक भोजन था इसलिए उन्हें अच्छा लगता था। किसी की सेवा लेना उन्हें अच्छा नहीं लगता था। यहाँ तक कि कभी पैर दबाने को कहते तो भी वो मना कर देते थे। ऐसे समतामय व्यक्तित्व को पूर्ण तन्मयता, एकाग्रता और मनोभाव से सामायिक करते देखती तो मन में आता-शुद्ध सामायिकतो इसे कहते है। सबसे महत्त्वपूर्ण रहा उनका "संथारा" यानी आजीवन अन्नजल का त्याग। उनका अन्तिम ध्येय था-संथारा। जिसकी भावना वो हमेशा भाते रहते थे। उनकी सासूजी का संथारा, उनकी माँ और नानीसा का संथारा न जाने क्या छाप छोड़ गए थे उन पर।हमेशा एक ही रट रहती थी “क्या मेरा भी एक दिन ऐसा आयेगा?'' हमें हमेशा यही शिक्षा देते थे - "मुझे संथारे बिना मत जाने देना" "मुझे मेरा जीवन सफल करना है।" जब भी साध्वी श्री कनकश्रीजी (संसार पक्षीय पुत्री) की सेवा दर्शन करने जाते तो अक्सर पूछा करते थे - मुझे संथारा कब आयेगा? साध्वीश्री हमेशा फरमाते कि जब आपकी इच्छा होगी तभी आ जायेगा। जितना उनका जीवन सरल, अध्यात्ममय और शादी के बाद ही मेरा तेरापंथ धर्म संघ में प्रवेश हुआ। बचपन से लेकर आज तक मैंने सामायिक करने वालों को देखा है। कई ऐसे भी व्यक्तियों को देखा है, जिनकी न तो सामायिक शुद्ध होती है और न ही जीवन में समता दिखाई देती है। ससुराल में मैंने अपनी सासूजी जिन्हें हम 'माँसा' कहते थे, उन्हें सामायिक करते देखा। जिसमें शुद्धता तो थी ही साथ ही साथ उनके व्यवहार में सरलता, सहजता और ऋजुता का भी दर्शन होता था। क्या समतामय जीवन था उनका! उनकी आयु की (लगभग ८० वर्ष) कई महिलाओं को मैंने देखा, जिनके जीवन और व्यवहार में धार्मिकता बहुत ही कम दिखाई देती थी। माँसा के जीवन से मैंने बहुत कुछ पाया और उनकी वात्सल्यमयी प्रेरणा से मैंने आध्यात्मिक जीवन जीना शुरु किया। उनकी जीवन चर्या बहुत ही व्यवस्थित और समतामय थी। जल्दी उठकर सामायिक करना, दिन भर थोकड़े चितारना और समतामय जीवन जीना जैसे उनका लक्ष्य बनPage Navigation
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