Book Title: Atmabodh Author(s): Dada Bhagwan Publisher: Dada Bhagwan Foundation View full book textPage 6
________________ है? आत्मबोध आत्मा - निर्गुण या सगुण ? प्रश्नकर्ता: भगवान को निर्गुण, निराकार बोलते हैं, वह सच्ची बात दादाश्री : भगवान निराकार हैं, लेकिन निर्गुण नहीं है। निर्गुण तो यहाँ पर एक पत्थर भी नहीं हैं। भगवान में प्राकृतिक एक भी गुण नहीं है पर खुद स्वाभाविक गुण का धाम हैं। प्रकृति के गुण है, वे सब नाशवंत है। उन नाशवंत गुणों से आत्मा निर्गुण है और स्वाभाविक गुणों से, परमानेंट गुणों से वो भरपूर है। वो सब गुण हमने देखे हैं। उन सभी गुणों को हम जानते हैं। जैसे सोने का गुण है और तांबे का भी गुण है, दोनों अपने स्वाभाविक गुणों से अलग रहते हैं। गुण के बिना तो वस्तु की कैसे पहचान हो सकती है? वस्तु का अपना गुण रहता है। प्रकृति के सब गुण विनाशी हैं। कोई बड़े संत पुरुष हों, वे 'ज्ञानी' नहीं हुये और उन्हें आत्मा का अनुभव नहीं हुआ तो वे प्राकृत गुण में ही हैं। उनको कितनी भी गाली दो, मार मारो तो भी समता रखते हैं, तो आपको लगेगा कि ये कितनी समता, शांति, क्षमा, सत्य, त्याग, बैराग गुणवाले हैं, लेकिन उनको कभी सन्निपात होता है तो वो बड़े संत पुरुष भी गाली देगें, मार मारेंगे। वो प्रकृति का गुण है और वो सब गुण नाशवंत है। प्रकृति का अच्छा गुण हो, तो उसमें खुश होने की जरूरत नहीं है। जिसे आत्मा का अनुभव हो गया फिर उसे कुछ नहीं होता है। २ आत्मबोध प्रकृति का एक भी गुण शुद्धात्मा में नहीं है और शुद्धात्मा का एक भी गुण प्रकृति में नहीं है। मनुष्य को जो इच्छा होती है, वो प्राकृत गुण है, उसमें आत्मा तन्मयाकार हो जाती है, तो उससे कर्म बँधते हैं। आत्मा तन्मयाकार नहीं होती, तो दोनों अलग ही हैं। अज्ञानता से तन्मयाकार हो जाती है और ज्ञान मिले फिर तन्मयाकार नहीं होती है। आत्मा, द्वैत या अद्वैत ? प्रश्नकर्ता: आत्मा द्वैत है या अद्वैत है? दादाश्री : कई लोग बोलते हैं कि आत्मा द्वैत है, तो कई लोग बोलते हैं कि विशिष्टाद्वैत है, अद्वैत है, शुद्धाद्वैत है, ऐसा तरह तरह का कहते हैं। लेकिन आत्मा द्वैत नहीं है, अद्वैत भी नहीं है। आत्मा द्वैताद्वैत है। 'ज्ञानी पुरुष' द्वैत भी हैं और अद्वैत भी है, दोनों साथ में रहते हैं। अद्वैत में ज्ञाता- द्रष्टा और परमानंदी है और द्वैत में क्रिया करती है। द्वैत क्रिया करता है, उसका अद्वैत ज्ञाता द्रष्टा रहता है। द्वैत ज्ञेय है और भगवान ज्ञाता-द्रष्टा, परमानंदी है। जहाँ तक देह है, वहाँ तक आत्मा अकेली अद्वैत नहीं हो सकती। द्वैताद्वैत रहती है। बाय रिलेटिव व्यू पोइंट आत्मा द्वैत है। बाय रीयल व्यू पोइंट आत्मा अद्वैत है। इसलिए आत्मा को द्वैताद्वैत कहा है। पहले खुद की पहचान चाहिए कि 'मैं स्वयं कौन हूँ'। क्या नाम है आपका? प्रश्नकर्ता रवीन्द्र । दादाश्री : तो आप खुद रवीन्द्र है? वो तो आपका नाम है। जब तक भ्रांति है, वहाँ तक खुद की शक्ति प्रगट नहीं होती। 'मैं रवीन्द्र हूँ' वो तो भ्रांति है और 'मैं कौन हूँ' जान लिया कि सब भ्रांति चली गई। प्रश्नकर्ता: पंचभूत माया के आधीन ही है? दादाश्री : माया किसकी लड़की है?Page Navigation
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