Book Title: Atmabodh
Author(s): Dada Bhagwan
Publisher: Dada Bhagwan Foundation
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध दादा भगवान प्ररूपित आत्म बोध कमल और पानी में कोई झगड़ा नहीं है, ऐसा संसार और ज्ञान में कोई झगड़ा नहीं। दोनों अलग ही हैं। मात्र रोंग बिलीफ है। ज्ञानी पुरुष' सब रोंग बिलीफ को फ्रेक्चर कर देते हैं और संसार सब अलग हो जाता है। अभी आप'ज्ञानी' से विमुख हैं। जब'ज्ञानी' के सन्मुख हो जायेंगे, तब संसार छूट जायेगा। - दादाश्री Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : दादा भगवान फाउन्डेशन की ओर से श्री अजित सी. पटेल 5, ममतापार्क सोसायटी, नवगुजरात कोलेज के पीछे, उस्मानपुरा, अहमदाबाद - 380014 फोन - 7540408, 7543979 E-Mail: info@dadabhagwan.org दादा भगवान प्ररूपित a :संपादक के आधीन आत्मबोध प्रथम आवृत्ति : ३००० प्रतियाँ, डिसेम्बर, २००३ भाव मूल्य : 'परम विनय' और 'मैं कुछ भी जानता नहीं', यह भाव! द्रव्य मूल्य : १५ रुपये लेज़र कम्पोज : दादा भगवान फाउन्डेशन, अहमदाबाद. संकलन : डॉ. नीरुबहन अमीन मुद्रक : महाविदेह फाउन्डेशन (प्रिन्टिंग डिवीज़न), पार्श्वनाथ चैम्बर्स, नये रिजर्व बैंक के पास, इन्कमटैक्स, अहमदाबाद-३८० ०१४. फोन : (०७९) ७५४२९६४ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिमंत्र दादा भगवान कौन? जून १९५८ की एक संध्या का करीब छ: बजे का समय, भीड़ से भरा सूरत शहर का रेल्वे स्टेशन । प्लेटफार्म नं. 3 की बेंच पर बैठे श्री अंबालाल मूलजीभाई |पटेल रूपी देहमंदिर में कुदरती रूप से, अक्रम रूप में, कई जन्मों से व्यक्त होने के लिए आतुर 'दादा भगवान' पूर्ण रूप से प्रगट हुए । और कुदरत ने सर्जित किया आध्यात्म का अद्भुत आश्चर्य। एक घण्टे में उनको विश्व दर्शन हुआ । 'मैं कौन ? भगवान कौन ? जगत कौन चलाता है ? कर्म क्या ? मुक्ति क्या ?' इत्यादि जगत के सारे आध्यात्मिक प्रश्नों के संपूर्ण रहस्य प्रकट हुए। इस तरह कुदरत ने विश्व के सन्मुख एक अद्वितीय पूर्ण दर्शन प्रस्तुत किया और उसके माध्यम बने श्री अंबालाल मूलजीभाई पटेल, चरोतर क्षेत्र के भादरण गाँव के पाटीदार, कान्ट्रेक्ट का व्यवसाय करने वाले, फिर भी पूर्णतया वीतराग पुरुष ! उन्हें प्राप्ति हुई, उसी प्रकार केवल दो ही घण्टों में अन्य मुमुक्षु जनों को भी वे आत्मज्ञान की प्राप्ति करवाते थे, उनके अद्भुत सिद्ध हुए ज्ञानप्रयोग से । उसे अक्रम मार्ग कहा। अक्रम, अर्थात बिना क्रम के, और क्रम अर्थात सीढ़ी दर सीढ़ी, क्रमानुसार उपर चढ़ना। अक्रम अर्थात लिफ्ट मार्ग । शॉर्ट कट । आपश्री स्वयं प्रत्येक को 'दादा भगवान कौन ?' का रहस्य बताते हुए कहते थे |कि "यह दिखाई देनेवाले दादा भगवान नहीं है, वे तो 'ए. एम. पटेल' है। हम ज्ञानी पुरुष हैं और भीतर प्रकट हुए हैं, वे 'दादा भगवान' हैं । दादा भगवान तो चौदह लोक के नाथ हैं । वे आप में भी हैं । सभी में हैं। आपमें अव्यक्त रूप में रहे हुए हैं और 'यहाँ' संपूर्ण रूप से व्यक्त हुए हैं । दादा भगवान को मैं भी नमस्कार करता हूँ।" __'व्यापार में धर्म होना चाहिए, धर्म में व्यापार नहीं', इस सिद्धांत से उन्होंने पूरा |जीवन बिताया। जीवन में कभी भी उन्होंने किसी के पास से पैसा नहीं लिया। बल्कि अपने व्यवसाय की अतिरिक्त कमाई से भक्तों को यात्रा करवाते थे। परम पूजनीय दादाश्री गाँव-गाँव, देश-विदेश परिभ्रमण करके ममक्ष जनों को |सत्संग और स्वरूपज्ञान की प्राप्ति करवाते थे। आपश्री ने अपने जीवनकाल में ही |पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन को स्वरूपज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त करवाने की ज्ञानसिद्धि प्रदान की थी। दादाश्री के देहविलय पश्चात आज भी पूजनीय डॉ. नीरूबहन अमीन गाँव-गाँव, देश-विदेश भ्रमण करके मुमुक्षुजनों को सत्संग और स्वरूपज्ञान की प्राप्ति, निमित्त भाव से करवा रहे हैं, जिसका लाभ हजारों मुमुक्षु लेकर धन्यता का अनुभव कर रहे हैं। Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संपादकीय परम पूज्य दादा भगवान, जो इस काल के पूर्ण ज्ञानी हो गये, उन्हों ने ये सारी बातें सीधी, सरल और सहज भाषा में समझाई है। इस तरह से सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी समझ जाये ऐसी भाषा में, उदाहरणों के साथ बताने से, गुह्य बात समझने में बहुत सरल हो गई है। शास्त्रों की बात दिमाग में समझ में जल्दी आती जाती ही नहीं। आत्मा को पहचानने का दादाश्री का संदर भेदज्ञान का प्रयोग है. जिसके जरिये सिर्फ दो ही घंटे में ज्ञान प्राप्त हो जाता है ! जिससे बाकी रहे शेष जीवन में आमूल परिवर्तन आता है और हमेशा 'मैं शुद्धात्मा हूँ' यही खयाल में रहता है। - डॉ. नीरुबहन अमीन के जय सच्चिदानंद आत्मा का साक्षात्कार पाने के लिये, आत्मा को जानने के लिये तमाम धर्मों ने बताया है। लेकिन आत्मा कैसे प्राप्त करें? आत्मा का सच्चा स्वरूप क्या है? आत्मा क्या करता है? इन सब प्रश्नों का समाधान कैसे करें? यह ज्ञान कहां से प्राप्त हो सकता है? कभी कभार आत्मज्ञानी पुरूष अवतरित होते हैं, तभी यह आध्यात्मिक रहस्य खुला हो जाता है। संसार में जो भी ज्ञान है वह भौतिक ज्ञान है, रिलेटिव ज्ञान है। उससे आत्म साक्षात्कार कभी नहीं हो सकता। ज्ञानी पुरूष को आत्मा का अनुभव होने से आत्म साक्षात्कार की प्राप्ति हो सकती है। आत्मा पर तो गीता में, उपनिषद में, वेद में, आगम में बड़े बड़े ग्रंथ संकलित हो जाये इतना कुछ कहा है। मगर जब खुद ज्ञानी पुरूष रहते हैं, तब मूल तत्वों की बात का संक्षिप्त में सारा ज्ञानार्क प्राप्त हो जाता है। आत्मा क्या चीज है? कषाय और आत्मा का क्या संबंध है? कषाय आत्मा का गुण है या जड़ का? आत्मा निर्गुण है या सगुण? वह द्वैत है या अद्वैत? ब्रह्म सत्य है या जगत? क्या आत्मा सर्वव्यापी है? जड़ और चेतन की भेदरेखा, आत्म शक्ति और प्राकृत शक्ति में क्या अंतर है? आत्मा सक्रिय है या अक्रिय? दरअसल में आत्मा क्या चीज है? आत्मा का स्थान कहाँ? वह कैसे दिखाई दे? जड़ तत्त्व और चेतन तत्त्व के मिश्रण से जो विशेष परिणाम 'सायन्टिफिकली' उत्पन्न हुआ है, जो सारे संसार परिभ्रमण की जड़ है, उसका यथार्थ विज्ञान पूज्यश्री ने यहाँ सुस्पष्ट किया है ! विश्व के छः सनातन तत्त्वों का भी सुंदर, सरल भाषा में वर्णन किया इन सारी बातों को ज्ञानी के अलावा और कौन बता सकता है? Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका निवेदन आप्तवाणी मुख्य ग्रंथ है, जो दादा भगवान की श्रीमुख वाणी से, 'ओरिजिनल' वाणी से बना है, उसी ग्रंथ के सात विभाजन किये गये है, ताकि वाचक को पढ़ने में सुविधा हो । 1. ज्ञानी पुरूष की पहचान 2. जगत कर्ता कौन ? 3. कर्म का विज्ञान 4. अंत:करण का स्वरूप 5. यथार्थ धर्म 6. सर्व दु:खों से मुक्ति 7. आत्मा जाना उसने सर्व जाना परम पूज्य दादाश्री हिन्दी में बहुत कम बोलते थे। कभी हिन्दी भाषी लोग आ जाते थे, जो गुजराती नहीं समझ पाते थे. उनके लिए पज्य श्री हिन्दी बोल लेते थे। उस वाणी का कैसेट में से ट्रान्स्क्राइब करके आप्तवाणी ग्रंथ बना है ! उसी आप्तवाणी ग्रंथ को फिर से संकलित करके यह सात छोटेछोटे ग्रंथ बनाये हैं ! उनकी हिन्दी 'प्योर' हिन्दी नहीं है, फिर भी सुननेवाले को उनका अंतर आशय एक्जैक्ट' पहुँच जाता है। उनकी वाणी हृदयस्पर्शी, मर्मभेदी होने के कारण, जैसी निकली वैसी ही संकलित करके प्रस्तुत की गई है, ताकि जिज्ञासु वाचक को उनके 'डाइरेक्ट' शब्द पहूँचे। उनकी हिन्दी, याने गुजराती, अंग्रेजी और हिन्दी का मिश्रण। फिर भी सुनने में, पढ़ने में बहुत मीठी लगती है, नेचरल लगती है, जीवंत लगती है। जो शब्द है, वह भाषाकीय द्रष्टि से सीधे-सादे हैं किन्तु 'ज्ञानी पुरुष' का 'दर्शन' निरावरण है, इसलिए उनके प्रत्येक वचन आशयपूर्ण, मार्मिक, मौलिक और सामनेवाले के व्यू पोइंट को एक्जैक्ट समझकर निकलने के कारण श्रोता के 'दर्शन' को सुस्पष्ट खोल देते हैं और अधिक ऊँचाई पर ले जाते १. आत्मा - निर्गुण या सगुण ? २. आत्मा - द्वैत या अद्वैत ? ३. सत्य क्या ? ब्रह्म? जगत ? ४. मालिकीभाव, वहाँ चेतन ? ५. सर्वव्यापी, चैतन्य या चैतन्यप्रकाश ? ६. जड़, चेतन : स्वभाव से ही भिन्न ! ७. आत्मशक्ति और प्राकृत शक्ति ! ८. क्या चेतन सर्वत्र है ? ९. सक्रियता में शुद्ध चेतन कहाँ ? १०. आत्मा का रीयल स्वरूप ! ११. आत्मा का स्थान कहाँ ? १२. चेतन तत्त्व को देखना कैसे? १३. विशेष परिणाम का सिद्धान्त ! १४. विश्व के सनातन तत्त्व ! १५. जगत की वास्तविकता ! १६. आप खुद कौन हो? १७. 'I' कौन? 'My' क्या ? १८. अध्यात्म में ब्लन्डर्स क्या? मिस्टेक्स क्या ? १९. परनानेन्ट शांति - कैसे? २०. संसार परिभ्रमण का रूट कोज़ ! २१. मिथ्यात्व द्रष्टिः सम्यक द्रष्टि ! २२. पात्रता का प्रमाण ! २३. आत्मज्ञान-प्राप्ति कैसे ?! २४. आत्म अनुभव : ज्ञान से या विज्ञान से? २५. ड्रामा कभी सच हो सकता है ?! २६. व्यवहार का निरीक्षक, परीक्षक कौन ? २७. महत्वता, भौतिक ज्ञान की या स्वरूप ज्ञान की? २८. ज्ञान-अज्ञान का भेद ! २९. क्या आप 'अपने' धर्म में हो? ३०. संसार में मोक्ष (!) ३१. साध्यप्राप्ति में 'आवश्यक' क्या ? ३२. क्या पसंद? सीड़ी या लिफ्ट ? - डॉ. नीरबहन अमीन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है? आत्मबोध आत्मा - निर्गुण या सगुण ? प्रश्नकर्ता: भगवान को निर्गुण, निराकार बोलते हैं, वह सच्ची बात दादाश्री : भगवान निराकार हैं, लेकिन निर्गुण नहीं है। निर्गुण तो यहाँ पर एक पत्थर भी नहीं हैं। भगवान में प्राकृतिक एक भी गुण नहीं है पर खुद स्वाभाविक गुण का धाम हैं। प्रकृति के गुण है, वे सब नाशवंत है। उन नाशवंत गुणों से आत्मा निर्गुण है और स्वाभाविक गुणों से, परमानेंट गुणों से वो भरपूर है। वो सब गुण हमने देखे हैं। उन सभी गुणों को हम जानते हैं। जैसे सोने का गुण है और तांबे का भी गुण है, दोनों अपने स्वाभाविक गुणों से अलग रहते हैं। गुण के बिना तो वस्तु की कैसे पहचान हो सकती है? वस्तु का अपना गुण रहता है। प्रकृति के सब गुण विनाशी हैं। कोई बड़े संत पुरुष हों, वे 'ज्ञानी' नहीं हुये और उन्हें आत्मा का अनुभव नहीं हुआ तो वे प्राकृत गुण में ही हैं। उनको कितनी भी गाली दो, मार मारो तो भी समता रखते हैं, तो आपको लगेगा कि ये कितनी समता, शांति, क्षमा, सत्य, त्याग, बैराग गुणवाले हैं, लेकिन उनको कभी सन्निपात होता है तो वो बड़े संत पुरुष भी गाली देगें, मार मारेंगे। वो प्रकृति का गुण है और वो सब गुण नाशवंत है। प्रकृति का अच्छा गुण हो, तो उसमें खुश होने की जरूरत नहीं है। जिसे आत्मा का अनुभव हो गया फिर उसे कुछ नहीं होता है। २ आत्मबोध प्रकृति का एक भी गुण शुद्धात्मा में नहीं है और शुद्धात्मा का एक भी गुण प्रकृति में नहीं है। मनुष्य को जो इच्छा होती है, वो प्राकृत गुण है, उसमें आत्मा तन्मयाकार हो जाती है, तो उससे कर्म बँधते हैं। आत्मा तन्मयाकार नहीं होती, तो दोनों अलग ही हैं। अज्ञानता से तन्मयाकार हो जाती है और ज्ञान मिले फिर तन्मयाकार नहीं होती है। आत्मा, द्वैत या अद्वैत ? प्रश्नकर्ता: आत्मा द्वैत है या अद्वैत है? दादाश्री : कई लोग बोलते हैं कि आत्मा द्वैत है, तो कई लोग बोलते हैं कि विशिष्टाद्वैत है, अद्वैत है, शुद्धाद्वैत है, ऐसा तरह तरह का कहते हैं। लेकिन आत्मा द्वैत नहीं है, अद्वैत भी नहीं है। आत्मा द्वैताद्वैत है। 'ज्ञानी पुरुष' द्वैत भी हैं और अद्वैत भी है, दोनों साथ में रहते हैं। अद्वैत में ज्ञाता- द्रष्टा और परमानंदी है और द्वैत में क्रिया करती है। द्वैत क्रिया करता है, उसका अद्वैत ज्ञाता द्रष्टा रहता है। द्वैत ज्ञेय है और भगवान ज्ञाता-द्रष्टा, परमानंदी है। जहाँ तक देह है, वहाँ तक आत्मा अकेली अद्वैत नहीं हो सकती। द्वैताद्वैत रहती है। बाय रिलेटिव व्यू पोइंट आत्मा द्वैत है। बाय रीयल व्यू पोइंट आत्मा अद्वैत है। इसलिए आत्मा को द्वैताद्वैत कहा है। पहले खुद की पहचान चाहिए कि 'मैं स्वयं कौन हूँ'। क्या नाम है आपका? प्रश्नकर्ता रवीन्द्र । दादाश्री : तो आप खुद रवीन्द्र है? वो तो आपका नाम है। जब तक भ्रांति है, वहाँ तक खुद की शक्ति प्रगट नहीं होती। 'मैं रवीन्द्र हूँ' वो तो भ्रांति है और 'मैं कौन हूँ' जान लिया कि सब भ्रांति चली गई। प्रश्नकर्ता: पंचभूत माया के आधीन ही है? दादाश्री : माया किसकी लड़की है? Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध प्रश्नकर्ता : भगवान की है। सत्य क्या ? ब्रह्म ? जगत ? दादाश्री : भगवान की लड़की?! देखिये, मैं आपको सच बता दूं कि माया क्या है! स्वरूप की अज्ञानता, वो ही माया है। जहाँ तक स्वरूप की अज्ञानता है, वहाँ तक माया है। स्वरूप का ज्ञान हो गया कि माया चली जाती है। प्रश्नकर्ता : जगत नहीं है? दादाश्री : जगत है, नींद में भी है और जागृत में भी है। प्रश्नकर्ता : लेकिन ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या कहते हैं न? प्रश्नकर्ता : माया कोई वस्तु है? उसका कुछ अस्तित्व (एक्जिस्टेंस) है? दादाश्री: कोई अस्तित्व ही नहीं है। वो रिलेटिव है, वो रीयल नहीं है। वेदान्त में क्या लिखा है, भगवान प्राप्त करने के लिए क्या चाहिए? मल, विक्षेप और अज्ञान जाने चाहिए तो भगवान मिलते है। तो अज्ञान, वो ही माया है। प्रश्नकर्ता : तो अज्ञान कैसे जाता है? दादाश्री : जगत मिथ्या नहीं है। जगत सत्य है। मिथ्या बोलते हैं, वो दूसरी भाषा में बोलते हैं। वो भाषा आपको समझ में नहीं आती है। वो बोलते है वो गलत नहीं बोलते हैं, लेकिन अपनी समझ में आना चाहिए कि किसे मिथ्या बोलते हैं! जगत सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है। The world is relative correct and Brahma (18) is real correct. कोई रस्ते पर पैसे फेंक देता है? कभी भी कहीं किसी रास्ते पर एक पैसा भी मिलता है? कितने पैसे गिरते है, लेकिन पूरे रास्ते पर एक पैसा भी नहीं मिलता है। अरे, २४ घंटे पैसे फेंको तो भी सब लोग तुरंत उठा लेते हैं। जगत मिथ्या तो नहीं है। जगत मिथ्या रहता तो नींद में मुँह में मिरची डाल देने पर कोई उठेगा ही नहीं। लेकिन मिरची डाल दिया तो फिर उसे उठाना नहीं पड़ता है। उसको इफेक्ट हो जाती है। ऐसे जगत भी सत्य है। कभी किसी ने गाली दे दिया, तो जगत मिथ्या लगता है? जगत रिलेटिव सत्य है, आत्मा रीयल सत्य है। दादाश्री : वो 'ज्ञानी पुरुष' मिलते हैं, तो उनकी कृपा से सब चला जाता है। जो मुक्त हो गये, वो सब कुछ कर देते हैं। दुनिया में आये हैं तो कुछ समझना तो चाहिए न ! ये दुनिया किसने बनायी? क्यों बनायी? प्रश्नकर्ता : वैसे तो कहा है कि, 'एकोहम् बहुस्यामि', तो इसके बनाने का कहीं अर्थ ही नहीं निकलता है। और स्वप्न में जगत नहीं है, ये जागृत प्रश्नकर्ता: सुषुप्त में अवस्था में जगत आता है? दादाश्री : वो आत्मा है न, वो ही भगवान है और वो ही 'एकोहम् बहुस्यामि' है। भगवान तो सभी जगह पर एक ही समान है। भगवान में फर्क नहीं है, डिफरन्स नहीं है। 'एकोहम् बहुस्यामि' वो तो ऐसा बोलते है कि भगवान एक ही है और बहुस्यामि याने अलग-अलग आत्मा के रूप में है। सब आत्मा मिलायें तो एक ही होती है. एक लाइट में सभी लाइट मिल जाती है ऐसा बोलते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है। क्योंकि इसमें अपने को क्या फायदा? दादाश्री : नहीं, स्वप्न में जो जगत है, वह दो शरीर का जगत है। वह जो स्वप्न है, वह दो शरीर का स्वप्न होता है, वह बंद आँख का स्वप्न है। ये खुली आँख का स्वप्न है, यह तीन शरीर का स्वप्न है। इसमें जागृत हो गया, फिर मुक्त हो गया। जहाँ तक स्वप्न है. वहाँ तक जगत सत्य लगता है। स्वप्न खुल गया तो सत्य नहीं लगता। Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध मालिकी भाव, वहाँ चेतन ? प्रश्नकर्ता : भगवान सर्वव्यापी हैं लेकिन वह दिखाई क्यों नहीं देते? दादाश्री : सर्वव्यापी याने क्या? प्रश्नकर्ता : omnipresent, हर चीज में भगवान हैं। दादाश्री : तो ये टेपरिकार्डर तोड़ डाले तो हिंसा होती है न? प्रश्नकर्ता : हाँ। दादाश्री : और चिड़िया को मार डाले तो भी हिंसा होती है? प्रश्नकर्ता : हाँ, होती है। दादाश्री : चिड़िया की हिंसा और टेपरिकार्डर की हिंसा समान है? प्रश्नकर्ता : इसमें प्राणी की हत्या होती है, और उसमें दिखाई नहीं तो जड़ ही है, उसमें भगवान रहते ही नहीं। प्रश्नकर्ता : लेकिन भगवान सर्वव्यापी तो निश्चित रूप से हैं या उसमें भी कोई शंका है? दादाश्री : सर्वव्यापी का अर्थ यह है कि भगवान का जो प्रकाश है, वो प्रकाश सर्वव्यापी हो जाता है। यदि देह का आवरण इनको नहीं हो तो इनका प्रकाश कैसा है? सर्वव्याप्त है। सच्चा भगवान जड़ में नहीं है, सब क्रियेचर के अंदर है और शुद्ध चेतन रूप में है। सारा ब्रह्मांड क्रियेचर से भरा हुआ है। सब के अंदर भगवान है। God is in every creature, whether visible or invisible; not in creation ! ये भगवान का सच्चा एड्रेस है। वो सच्चा एड्रेस जानने में क्या फायदा है कि ये टेबल को आप तोड देंगे तो इसका कोई पाप नहीं लगता है। इसके मालिक को पूछकर मैं तोड़ देता हूँ, तो कोई पाप नहीं लगता है। एक bug (खटमल) मार दिया तो पाप होता है, क्योंकि उसके अंदर भगवान है। जिधर भगवान है, वहाँ हिंसा मत करो और इसकी, टेबल की हिंसा हो जाये, तोड़ डालो तो भी कोई हर्ज नहीं और नया बना दो तो भी कोई हर्ज नहीं। जो आदमी बना नहीं सकता, एक bug को आदमी बना नहीं सकता है, वो क्रियेचर के अंदर भगवान है। प्रश्नकर्ता : जितने क्रियेचर है, उन सब के अंदर शुद्ध चेतन है? दादाश्री : सब में ही शुद्ध चेतन है। प्रश्नकर्ता : तो फिर जड़ में भी शुद्ध चेतन होना चाहिए। दादाश्री : जड़ में शुद्ध चेतन नहीं है। जड़ तो जड़ ही है। जड़ तो निकाल कर देने की चीज है, ग्रहण करने की चीज नहीं है। इसके अंदर संकल्प चेतन है। मैं उसका मालिकभाव छोड दूं तो उसमें से इतना चेतन निकल जाता है। जड़ पदार्थ के अंदर संकल्प चेतन है और जो सच्चा भगवान है वो शुद्ध चेतन रूप है। देती। दादाश्री : हाँ, तो ये जड़ है और चिड़िया में चेतन है। जहाँ चेतन है, वहाँ नुकसान करे तो हिंसा होती है और जड़ को नुकसान करे तो हिंसा नहीं होती। लेकिन इसमें क्या होता है, वो जानने की जरूरत है। यदि टेपरिकार्डर का कोई मालिक नहीं हो, तो हम टेपरिकार्डर को तोड़ डाले, तो हमको हिंसा नहीं लगती। लेकिन उसका कोई मालिक हो तो टेपरिकार्डर तोड़ डालने से उसके मालिक को दु:ख होता है, इस तरह हिंसा होती है। इस लिए सब में भगवान हैं, ऐसा बोला है। यदि जड़ की किसी की मालिकी नहीं हो, तो इसके अंदर भगवान नहीं हैं, लेकिन कोई मालिक है, तो मालिक को दुःख होता है, इसलिए इतना ही चेतन जड़ में है ऐसा बोला है। उसको 'संकल्प चेतन' बोलते हैं। नहीं तो जड़ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध दादाश्री : ऐसा नहीं है। चैतन्य का स्वभाव व्याप्त है लेकिन स्वाभाविक चैतन्य इधर दुनिया में रहता ही नहीं। जो चैतन्य दुनिया में है वो विशेषभावी है, स्वभावभावी नहीं है। जो स्वभावभावी चैतन्य हो तो उसकी लाइट सारी दुनिया में व्याप्त हो जाती है!!! प्रश्नकर्ता : चैतन्य सब जगह व्याप्त है न? दादाश्री : हाँ, व्याप्त कभी होता है? कोई दफा हजारो-लाखों में एक होता है, नहीं तो व्याप्त नहीं होता। कोई इधर से भगवान स्वरुप हो गया और वह मोक्ष में जाता है, उस वक्त उसकी लाइट सब जगह व्याप्त हो जाता है। ये हरेक को नहीं होता। सब के लिए तो आत्मा आवरणमय ही है। हम 'ज्ञानी पुरुष' हैं, फिर भी सर्वव्याप्त नहीं है। हम हरेक चीज देख सकते हैं। हमारे को पुस्तक की जरूरत नहीं है। हम 'देखकर' बोलते हैं। प्रश्नकर्ता : आत्मद्रष्टि हो जाये तो ये सब बाहर के आवरण नहीं जहाँ ज्ञान नहीं है, emotions नहीं है वहाँ चेतन नहीं है। चेतन का अर्थ ही ज्ञान है। अपने शुद्ध स्वरुप का ज्ञान, वो ही चेतन है। तो जहाँ ज्ञान है वहाँ चेतन है। नहीं तो जहाँ ज्ञान नहीं हो, लेकिन वहाँ किसी का मालिकी भाव हो तो उसको 'संकल्प चेतन' बोला जाता है। संकल्प चेतन सच्चा चेतन नहीं है। मालिकीभाव छोड़ दें तो कुछ भी नहीं। सर्वव्यापी, चैतन्य या चैतन्यप्रकाश ? प्रश्नकर्ता : चैतन्य सर्वव्यापी है, वह कैसे कहा गया है? दादाश्री : वो सर्वव्यापी ही है। सर्वव्यापी कैसे है, वो आपको बताऊं, सीमीली (उदाहरण) बताऊं? इस रूम में लाइट करे तो लाइट कितनी व्याप्त होती है? ये रूम जितना हो, उतना ही व्याप्त होती है। इसी लाइट को एक मटके के अंदर रख दिया तो मटके में उतनी ही लाइट व्याप्त रहती है। मटका तोड़ दो, तो पूरे रूम में लाइट फैल जाती है। ऐसा आत्मा, अंतिम जन्म में जब यह देह छूट जाती है न, तो सारे ब्रह्मांड में प्रकाश हो जाता है। आत्मा सिर्फ प्रकाश रूप है। ये सब आप जो देखते हैं, वो सब टेम्पररी है। चेतन कोई जगह पर आपने देखा है? प्रश्नकर्ता : कहीं नहीं दिखाई पड़ता। दादाश्री : तो क्या देखते हो? जड़ देखते हो? प्रश्नकर्ता : स्थूल रूप में सारे द्रश्य दिखाई पड़ते है। दादाश्री : हाँ, स्थूल जो दिखता है वो जड़ है, लेकिन जो नहीं दिखता ऐसा सूक्ष्म भी जड़ है। ये सब चाबी दिया हुआ जड़ है, चेतन ऐसा नहीं है। प्रश्नकर्ता : चैतन्य है, वह अणु है और विराट भी है और वह सभी जगह में व्याप्त है। रहते? दादाश्री : इन सबको आत्मा का स्वरूप बताया है। इनको दिव्यचक्षु दिये है। ये सब आपकी आत्मा देख सकते है। पेड़ की आत्मा भी देख सकते हैं। ये दुनिया का ग्यारहवाँ (Eleventh) आश्चर्य है!!! ऐसा कभी हुआ नहीं। ये बिलकुल नयी बात है। वैसे बात तो पहले की है. जो त्रिकाल सत्य है। वो त्रिकाल सत्य एक ही बात रहती है। ये दुनिया जैसी दिखती है न, ऐसी नहीं है। जैसी सब लोगों ने जानी है, ऐसी भी नहीं है। जड़, चेतन : स्वभाव से ही भिन्न ! इस दुनिया में छ: तत्व हैं। वो छ: तत्व अविनाशी हैं। इसमें एक शुद्ध चेतन तत्व है, वो आत्मविभाग है। दूसरे पाँच तत्व हैं, जो अनात्म विभाग के हैं। उन सब में चेतन नहीं है, वो आत्मविभाग नहीं है। Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध प्रश्नकर्ता : मैंने ऐसा पढ़ा है कि जड़ में भी भगवान है, इसलिए जड़-चेतन में कोई फर्क नहीं है, सब में ही भगवान है। दादाश्री : जड़ और चेतन के बीच डिफरन्स है। जो चेतन है न, उसमें जानने की शक्ति, देखने की शक्ति और परमानंद शक्ति है और जिसमें जानने-देखने की शक्ति नहीं, परमानंद शक्ति नहीं है, वो सब जड़ है। जड़ में चेतन जैसी शक्ति नहीं है। प्रश्नकर्ता : तो फिर जड़ से चेतन पैदा नहीं हो सकता है? दादाश्री : नहीं, नहीं। जड़ में से चेतन कभी हो सकनेवाला ही नहीं और चेतन में से जड़ भी होनेवाला नहीं। चेतन में कोई संयोग पदार्थ ही नहीं है। चेतन कोई कम्पाउन्ड स्वरुप नहीं है। वो स्वतंत्र है। जड़ भी स्वतंत्र है और चेतन भी स्वतंत्र है। और दोनों संयोग स्वरुप है, कम्पाउन्ड स्वरुप नहीं है। प्रश्नकर्ता : लेकिन जड़-चेतन एक ही हैं न? दादाश्री : नहीं, नहीं। दोनों अलग हैं। जड़-चेतन एक है, वह बात गलत है। ये सब रिलेटिव करेक्ट है, लेकिन रीयल करेक्ट नहीं है। Real is real and relative is relative! प्रश्नकर्ता : What is relative correct ? दादाश्री : जिसको अवलंबन लेना पडता है. वो सब रिलेटिव करेक्ट है। जो निरालंब है, स्वतंत्र है. इनडिपेन्डेन्ट है, वो रीयल करेक्ट है। जिसको कोई चीज की जरूरत नहीं, वो ही रीयल है और जो सम्बंधित है, वो सब रिलेटिव है। वो भी जड़ है, लेकिन अंदर चेतन है। वो चेतन के प्रभाव से, चेतन की हाजरी से जड़ उगता है। चेतन की हाजरी चली जाये तो फिर वो नहीं उगता। ये धान आता है न? जो शालि बोलते हैं, वो शालि भी चारपाँच साल की हो तो वहाँ तक पानी डालेगा तो उगेगी, फिर आठ-दस साल हो गया तो नहीं उगेगी। आत्मशक्ति और प्राकृत शक्ति ! प्रश्नकर्ता : आत्मा और आत्मा की शक्ति, ब्रह्म और ब्रह्म की शक्ति में क्या फर्क है? दादाश्री : वो दोनों एक ही है, आत्मा और ब्रह्म दोनों एक ही है। कुछ खास फर्क नहीं है। प्रश्नकर्ता : और देवी-देवताओं को हम मानते है, तो उसमें शक्ति है वो अलग है? दादाश्री : हाँ, माताजी की शक्ति अलग है। आत्मा अलग है, माताजी अलग है। माताजी की शक्ति है, वो प्राकृत शक्ति है और वह प्रकृति को नोर्मल रखने के लिए है। आँख से दिखाई देता है वो जो शक्ति है, वो आत्मशक्ति नहीं है। वो अनात्म विभाग है, उसकी शक्ति है। अनात्म विभाग है, वो भी शक्तिवाला है। आत्मा में भी शक्ति है, वो अनंत शक्ति है। प्रश्नकर्ता : आत्मा को ये शक्ति रहित कर दिया तो आत्मा जड हो जायेगी कि चेतन ही रहेगी? दादाश्री : नहीं, आत्मा तो खुद चेतन ही रहती है। वो कभी बाहर से शक्ति नहीं लेती और उसकी शक्ति दूसरे को नहीं देती। वो चेतन ही रहती है, शुद्ध ही रहती है। वो शुद्ध है और वो ही परमात्मा है। परमात्मा की शक्ति में कोई चेन्ज नहीं होता। लेकिन इन सब लोगों को भ्रांति है, इसलिए ये मैं हूँ, ये हमने किया ऐसा बोलते है और सब भ्रांति में चल रहे हैं। मनुष्य कुछ भी करता है वो सब जड़ की शक्ति प्रश्नकर्ता : एक बीज है, उसको खेत में बोते हैं, वो उगता है, वह चेतन उगता है और वह सब जड़ के आधार से उगता है? पृथ्वी, पानी, सब संयोगों से? दादाश्री : नहीं, चेतन नहीं उगता, जड़ उगता है। जो उगता है, Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध है, इसमें चेतन की कोई शक्ति नहीं है। ये तो ईगोइज्म करता है, 'ये मैंने किया, वो ही भ्रांति है। सारी दुनिया जड़ को ही चेतन मानती है, लेकिन चेतन तो चेतन ही है। उस चेतन को अकेले 'ज्ञानी पुरुष' ही जानते है। ११ प्रश्नकर्ता: जो आत्मतत्व है, वो सभी को प्रकाशित करता है न? जड़ को भी और चेतन को भी ? दादाश्री : हाँ, वो सब को प्रकाशित करता है, लेकिन जड़ कभी चेतन नहीं होता है। है । क्या चेतन सर्वत्र है ? भगवान को कभी आपने देखा है? भगवान किधर है? प्रश्नकर्ता: भगवान तो सब जगह पर है, omnipresent, सर्वत्र दादाश्री : सब जगह पर भगवान है तो यहाँ आने की कोई जरूरत ही नहीं। मंदिर में भी जाने की जरूरत नहीं। मंदिर में कभी जाते हो? प्रश्नकर्ता: हाँ, जाता हूँ । दादाश्री भगवान घर में भी है, फिर मंदिर में क्यों जाते हो ? प्रश्नकर्ता: वहाँ पर भावना से जाता हूँ। दादाश्री : बात तो समझनी चाहिए न? सब जगह भगवान है, तो दूसरा कोई है ही नहीं?! वो चावल आपने देखें है? वो खाने के लिए होता है, इसमें अंदर से कभी कभी बारीक पत्थर निकलता है। उसको फिर चुनते हैं न?! ये चावल की बोरी है, उसमें सिर्फ चावल ही हो, तो फिर इसको चुनने का नहीं हैं, ऐसी बात है। बोलने के लिए, 'ये सब चावल है' ऐसा बोलते है, लेकिन ये चावल भी है और पत्थर भी हैं। इसी तरह 'सभी जगह आत्मा है' वो बात ऐसी है कि : १२ आत्मबोध आत्मा भी है और अनात्मा भी है। नहीं तो सभी जगह आत्मा है तो फिर दूसरी जगह जाने की जरूरत नहीं है। परमात्मा सभी जगह पर है तो फिर परेशानी हमें क्यों रहती है ?! जिसने ऐसा बताया कि सभी जगह परमात्मा है, वो रोंग थीयरी है। यदि सभी जगह परमात्मा है, तो किसी को डीप्रेशन कभी होगा ही नहीं, परमानंद ही रहना चाहिए। लेकिन ऐसा है नहीं। कृष्ण भगवान ने कहा है कि दुनिया में आत्मा और अनात्मा, दो चीज है। जड़ और चेतन है। चेतन भगवान है और जड़ दूसरी चीज है। तो सभी जगह पर आत्मा नहीं है। आत्मा भी है और जड़ भी है। God is in every creature whether visible or invisible, not in creation. आपके और मेरे बीच में invisible creature (इनविजिबल क्रियेचर) बहुत है, उन सभी में भगवान है। प्रश्नकर्ता: इनविजिबल क्रियेचर के अंदर भगवान है, इसका प्रूफ कैसे दे सकते हो? दादाश्री : इनविजिबल क्रियेचर वो सब एक्टीव हैं और उनको दुःख अप्रिय है और सुख प्रिय है। ये जो टेपरिकार्डर है, वो एक्टीव नहीं है। प्रश्नकर्ता: इनविजिबल क्रियेचर को भी सुख-दुःख रहता है? दादाश्री : सुख-दुःख तो सब को होता है, पेड़ को भी सुखदुःख होता है । क्रियेचर मात्र को सुख-दुःख की इफेक्ट होती है। पेड़ को भी बहुत जोर से हवा आये, तूफान बोलते हैं न, तो भी दुःख होता है। अशोक वृक्ष को 'लेडी' हाथ लगाये तो उसको खुशी हो जाती है। ये आँख से दिखते हैं, वो जंतु हैं, उसको भी अपना हाथ लगे तो त्रास लगता है, तो वो भाग जाता है। सक्रियता में शुद्ध चेतन कहाँ ? अभी चलता-फिरता दिख रहा है वो ही आत्मा है न? Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध १३ प्रश्नकर्ता: वो तो शरीर दिखाई देता है। शरीर के भीतर चेतन है। शरीर चेतन नहीं है। दादाश्री : लेकिन ये शरीर सब क्रिया करता है, वो कौन करता है? प्रश्नकर्ता: भीतर में चेतन है, वो करवाता है। दादाश्री : वो आत्मा ऐसा हाथ ऊँचा करता है? नहीं, वो तो मिकेनीकल चेतन है। आत्मा ऐसा नहीं करवाता, वो खाली प्रकाश ही देता है। उसकी हाजरी से ही सब कुछ हो रहा है। उनकी हाजरी चली जाये तो ये मिकेनीकल सब बंध हो जायेगा। खाता हैं, पीता हैं, शौच जाता हैं, वो सब मिकेनीकल आत्मा है। लेकिन 'हम खाते है, हम पीते है, हम शौच जाते है' ऐसी प्रतिष्ठा करता है। प्रतिष्ठा की तो 'प्रतिष्ठित आत्मा' उत्पन्न हो गयी। वो सच्ची आत्मा नहीं है, वो 'मिकेनीकल आत्मा' है। आप जो जिन्दा आदमी को देखते हो, जिस भाग को जिन्दा कहते हो, वो जिन्दा नहीं है। लेकिन बुद्धि से वो जिन्दा लगता है और ज्ञान से वो जिन्दा नहीं है। ज्ञान से वो मात्र मिकेनीकल चेतन है। 'निश्चेतन चेतन का खेला, सापेक्षित संसार है' नवनीत ये संसार कैसा है? ये आँख से दिखता है, वो सब मिकेनीकल चेतन है। ये जज़ दिखता है, आरोपी दिखता है, वकील भी दिखता है, डाक्टर भी दिखता है, सब लोग जो क्रिया करते हैं, वो सब मिकेनीकल है। उसमें भगवान नहीं है, ये सब निश्चेतन चेतन हैं। याने हेन्डल मारने से चलता है। वो सच्चा चेतन नहीं है। सच्चा चेतन अचल है और ये चंचल हैं। सच्चा चेतन स्थिर है, हिमालय जैसा स्थिर है। कितनी भी हवा चले तो हिमालय नहीं हिलता, ऐसे ही सच्चा चेतन स्थिर है। पूरे दिन में शरीर कितनी भी क्रिया करे, कितना भी हिलता है, लेकिन वो शुद्ध चेतन अचल है, स्थिर है। १४ आत्मबोध 'विनाशी चीज पूरण- गलन है, अविनाशी भगवान है'- नवनीत कविराज क्या कहते हैं कि विनाशी चीज सब पूरण है और गलन है, आने-जानेवाली चीज है। इधर से खाना खाया फिर शौच में गलन होता है। पानी पूरण किया, फिर बाथरूम में गलन होता है। श्वास का पूरण किया, फिर उच्छ्वास में गलन होता है। वो सब पूरण- गलन है, वो सब विनाशी है और भगवान खुद इसमें अविनाशी है। आत्मा का रीयल स्वरूप ! प्रश्नकर्ता: 'अज्ञानी आत्मा' किसे कहते हैं और 'ज्ञानी आत्मा' किसे कहते हैं? दादाश्री : जिधर 'मैं नहीं हूँ', वहाँ 'मैं हूँ' बोलते हैं, वो 'अज्ञानी' है। 'मैं रवीन्द्र हूँ' बोलता है, वह 'अज्ञानी' है। 'मैं इस बाई का पति हूँ, इस लडके का फादर हूँ, इसका भाई हूँ' वह सब 'अज्ञानी' है। सेल्फ को रीयलाइझ कर लिया और ज्ञान हो गया कि, 'मैं शुद्धात्मा हूँ', तो वो ज्ञानी है। 'शुद्धात्मा' भी फर्स्ट स्टेज का ज्ञान है, इससे उसको मोक्ष में जाने का 'वीज़ा' मिल गया। लेकिन यहाँ तक गया तो बहुत है। 'वीज़ा' मिल जाने के बाद प्लेन मिल जायेगा, सब मिल जायेगा, मोक्ष पक्का हो जायेगा। प्रश्नकर्ता : पाँच कर्मेन्द्रिय, पाँच ज्ञानेन्द्रिय और अंदर सूक्ष्म भावेन्द्रिय होती है, तो भावेन्द्रिय क्या है? दादाश्री : भावेन्द्रिय वह भाव है। भावेन्द्रिय पर चलता है, वो ही 'अज्ञानी आत्मा' है। ‘मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैंने किया', वो 'अज्ञानी आत्मा' है और हम आपको ज्ञान देते है, बाद में आप बोल सकते हैं कि, 'रवीन्द्र देखता है, रवीन्द्र सुनता है, रवीन्द्र ने ये किया।' फिर आप ये सब को अलग भी देख सकते है। प्रश्नकर्ता: हम तो ये समझते हैं कि जिसकी आत्मा सच्ची है, वो सबसे बड़ा शक्तिमान है और जिसकी आत्मा तुच्छ है तो.... Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध दादाश्री : आत्मा तुच्छ होती ही नहीं। प्रश्नकर्ता : विचार तुच्छ हो जाते हैं, तो आत्मा तुच्छ हो जाती प्रश्नकर्ता : तो रीयल फेक्ट क्या है? दादाश्री : रीयल में आत्मा तो ये शरीर को जिधर पीन लगाते है और इफेक्ट होती है, दु:ख (दर्द) होता है, वहाँ सब जगह पर आत्मा है। हेयर कटींग करता है और नेईल कटींग करता है, उसमें आत्मा नहीं है। बाल काटो तो दु:ख नहीं होता, तो बाल में आत्मा नहीं है और ये नाखून काटो तो भी दुःख नहीं होता, तो नाखून में भी आत्मा नहीं है। जिधर दुःख होता है, वहाँ आत्मा है। दादाश्री : नहीं, आत्मा तुच्छ कभी नहीं होती, कभी हुई भी नहीं। ये पेड़ को कहाँ विचार आता है? प्रश्नकर्ता : वो तो जड़ है। दादाश्री : नहीं, वो जड़ नहीं है। पेड़ को ज्ञान है, ज्ञान के बिना कोई जिन्दा रहता ही नहीं। जब काट लिया फिर उसकी लावण्यता खतम हो जाती है। तो उसको भी ज्ञान है। उसको एकेन्द्रिय का ज्ञान है। आपको पंचेन्द्रिय का ज्ञान है। चींटी को तीन इन्द्रिय का ज्ञान है। मक्खी को चार इन्द्रिय का ज्ञान है। प्रश्नकर्ता : पेड़ को कौन सी इन्द्रिय का ज्ञान है? दादाश्री: वो स्पर्शेन्द्रिय का ज्ञान है। उसको हाथ लगाया तो मालूम हो जाता है, उसको काट दिया तो मालूम हो जाता है और दुःख भी होता है। जिधर कुछ न कुछ ज्ञान है, वहाँ भगवान है। दूसरी जगह पर भगवान नहीं है। इस घड़ी को कुछ ज्ञान नहीं है, तो इसमें भगवान नहीं है। भगवान खुद ज्ञान स्वरूप ही है। वो जो दूसरा चलता-फिरता है, वो अनात्मा है, कम्प्लीट अनात्मा है। लेकिन इसके अंदर भगवान है, इसलिए वो चंचल दिखता है। प्रश्नकर्ता : यहाँ हाथ पर पीन लगाई तो उसकी असर मन को होती है और मन तो आत्मा नहीं है। दादाश्री : नहीं, मन तो फिजिकल है. कम्प्लीट फिजिकल है। लेकिन वो आँख से देखा जा सके ऐसा फिजिकल नहीं है। प्रश्नकर्ता : लेकिन फिजिकल तो ये शरीर है न? दादाश्री : Mind is physical, body is physical and speech is physical! प्रश्नकर्ता : तो आत्मा कहाँ है? दादाश्री : वो यह शरीर में ही है। प्रश्नकर्ता : कोई ऐसे विशेष स्थान में होना चाहिए न? दादाश्री : नहीं, वो कोई एक जगह पर नहीं है। जिधर पीन लगाने से असर होती है, वहाँ ही आत्मा है। कभी शरीर का पार्ट खतम हो जाता है, खून बंध हो जाता है, पक्षाघात हो जाता है, उस भाग में आत्मा नहीं है। अज्ञानी को भी वो अलग है, लेकिन उसकी बिलीफ रोंग है। उसकी जो बिलीफ रोंग है और रोंग ज्ञान है, उसे तोड़नेवाला कोई नहीं मिला है। इसलिए ऐसे ही बिलीफ में और बिलीफ में उलटा चला गया। कभी 'ज्ञानी पुरुष' ये रोंग बिलीफ तोड़ दे, फ्रेकचर कर दे तो फिर वो मुक्त हो जाता है। आत्मा का स्थान कहाँ ? प्रश्नकर्ता : इन्सान के शरीर में आत्मा का निवास कहाँ है? दादाश्री : ऐसा निवास नहीं है, एक जगह पर। प्रश्नकर्ता : ऐसा सुना है कि आत्मा हार्ट की जगह पर है। दादाश्री : वो बात करेक्ट नहीं है, रीयल करेक्ट नहीं है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध १८ आत्मबोध प्रश्नकर्ता : तो फिर वो है क्या कि जब वो दिखती नहीं, हम उसको टच नहीं कर सकते? प्रश्नकर्ता : अंदर जो भगवान हैं, हम उनका ही कुछ हिस्सा हैं? दादाश्री : देखो न, भगवान ऐसी वस्तु है के उसका कोई पार्ट नहीं हो सकता है। वो सर्वांश है। इसमें अंश नहीं होता है। आप बोलते हैं कि मैं इनका पार्ट हूँ, वो गलत बात है। वो सच्ची बात नहीं है। आप खुद ही सर्वांश है, लेकिन भ्रांति से आपको मालूम नहीं है। भगवान कभी अंश रूप होते ही नहीं, सर्वांश ही होते हैं। वो अंश बोलते हैं, उसका क्या मतलब है कि उसको जो आवरण है, उसमें से अंश लाइट ही मिलता है। उसमें छेद करते हैं, पाँच छोटे छेद, तो उसमें से थोड़ी थोड़ी लाइट मिलती है। उसमें जितने छेद करते है, उतनी ही लाइट मिलती है। वो लाइट भगवान की है। भगवान सर्वांश है लेकिन ये आवरण हैं, इस लिए इसमें से फुल लाइट नहीं मिलती। प्रश्नकर्ता : सभी आदमी 'शुद्धात्मा' हैं तो फिर पाप क्यों करते दादाश्री : वो समझ में आती है, अनुभव में आती है। प्रश्नकर्ता : वो कैसे अनुभव में आती है? दादाश्री : जैसे ये शक्कर होती है न, उसको सब बोलते है कि मीठी है। लेकिन जहाँ तक जीभ उपर नहीं रखी, वहाँ तक आप बोलेंगे कि मीठी याने क्या? वो तो जब जीभ उपर रखेंगे, तब मालूम हो जायेगा। ऐसा आत्मा का अनुभव हो जाये तब मालम हो जाता है। आत्मा का अनुभव कैसे होता है? अभी आपको थोड़ा आनंद हुआ है कि नहीं हुआ दादाश्री : 'शुद्धात्मा हूँ', वो उनकी बिलीफ में नहीं है। उनकी बिलीफ में तो 'मैं रवीन्द्र हूँ' ऐसा है। वो रोंग बिलीफ चली जायेगी, फिर पाप नहीं करेगा। चेतन तत्त्व को देखना कैसे ? प्रश्नकर्ता : यह आत्मा क्या है? प्रश्नकर्ता : बहुत हुआ है। दादाश्री : ये आत्मा का आनंद है। ऐसा आनंद रोज मिल जाये, जिसमें बाहर की कोई भौतिक चीज नहीं है। ऐसे ही आनंद हो जाये, तो आपको समझ जाने का कि आत्मा का पहला गुण देखा। फिर दूसरा गुण पकड़ने का, फिर तीसरा गुण पकड़ने का। ऐसे सब गुण मिल जायेंगे। लेकिन पहला आनंद से पकड़ने का। आपको कुछ आनंद हुआ? प्रश्नकर्ता : होता है। जब सवाल का जवाब मिलता है, तब आनंद होता है। दादाश्री : ये आकाश है न, वो आपको दिखता है? लेकिन लगता है न कि आकाश जैसी कोई चीज है! ऐसे ही आत्मा अरुपी है। हम आत्मा को सभी में देख सकते हैं। (जिन्होंने) ज्ञान लिया है, वो सब लोग आत्मा को दिव्यचक्षु से देख सकते है और हम आत्मा के अनुभव में रहते हैं। आत्मा की हाजरी से ही सब कुछ चल रहा है। वो कुछ नहीं करती. सिर्फ ओब्जर्वर की तरह रहती है, आदमी बनाना ऐसा काम वो नहीं करती। दादाश्री : आनंद भी दो प्रकार के है। एक, भौतिक आनंद है, वो मानसिक आनंद है और दूसरा, आत्मा का आनंद है। मानसिक आनंद है, वो मन खुश हो गया कि होता है और आत्मा का आनंद, आत्मा का ज्ञान मिलने से होता है। ऐसे ज्ञान भी दो प्रकार के है। मन खुश हो जाये, ऐसा भी ज्ञान होता है। उससे मन इमोश्नल रहता है, आकुल-व्याकुल रहता है और दूसरा, ऐसा भी ज्ञान हो जाता है, कि खुद को प्रकाश मिलता है। उसमें निराकुलता होती है। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध विशेष परिणाम का सिद्धान्त ! प्रश्नकर्ता : सिद्धगति की प्राप्ति 'शुद्धात्मा' होने के बाद ही होती दादाश्री : संयोग से ही विशेष परिणाम उत्पन्न होता है, जैसे आरस (मार्बल) के पत्थर सुबह में ठंडे रहते हैं और दोपहर में क्या हो जाते है न? दादाश्री : 'शुद्धात्मा' हुआ याने पूर्णत्व हो जायेगा और पूर्णत्व हो गया कि सिद्धगति होती है। शुद्धात्मा हुए बिना कुछ नहीं होता। प्रश्नकर्ता : तो क्रोध-मान-माया-लोभ जो बाधक हैं, वे गये कि आदमी शुद्धात्मा हुआ? दादाश्री: वो क्रोध-मान-माया-लोभ अज्ञानता से ही है। क्रोधमान-माया-लोभ ही सब को दुःख देता है, नहीं तो आत्मा को दुःख कैसा? अज्ञानता से ही दु:ख होता है। 'मैं कौन हूँ', उसकी अज्ञानता है। अज्ञानता क्यों घुस गई? क्या आत्मा अज्ञानी है? नहीं, आत्मा अज्ञानी नहीं है!! आत्मा खुद ही ज्ञान है। तो ज्ञान है, वो अज्ञान हो जाता है? नहीं, ज्ञान है, वो अज्ञान नहीं होता है। ये तो विशेष परिणाम है !! छ: मूल अविनाशी तत्त्वों में जड़ और चेतन जब सामीप्य में आते हैं, तब विशेष परिणाम उत्पन्न होता है। बाकी के चार तत्वों को एक दूसरे के संयोग में कोई असर नहीं होती। चेतन और जड का संयोग हुआ कि विशेष परिणाम उत्पन्न होता है। इसमें जड़ का और चेतन का, अपना गुणधर्म तो रहता ही है, लेकिन विशेष गुण एकस्ट्रा उत्पन्न हो जाता है। प्रकृति उत्पन्न हो जाती है। इसमें किसी को भी कुछ करने की जरूरत नहीं। विशेष परिणाम उत्पन्न होने से जगत में ये अवस्थायें उत्पन्न होती हैं। अवस्थायें विनाशी हैं और निरंतर परिवर्तनशील हैं। इसमें आत्मा को कुछ करना नहीं पड़ता। उसका विशेष भाव हुआ कि पुद्गल परमाणु खिंचा चला आता है। फिर वो ओटोमेटिक मूर्त हो जाते है और अपना कार्य करते रहते हैं। प्रश्नकर्ता : यह विशेष परिणाम की बात कुछ उदाहरण देकर समझाईए। प्रश्नकर्ता : सूर्य की गरमी से गरम हो जाते हैं। दादाश्री : हाँ। तो गरम होना, वो पत्थर का स्वभाव नहीं है और सूर्य का भी ऐसा स्वभाव नहीं है। दोनों के संयोग से विशेष परिणाम होता है। सूर्य का संयोग होने से पत्थर में गरमी उत्पन्न होती है। उसको व्यतिरेक गुण बोला जाता है। वो खुद का गुण नहीं है, दोनों का साथ हो जाने से तीसरा गुण उत्पन्न होता है। ऐसा ये क्रोध-मान-माया-लोभ है, वो अपना खुद का गुण नहीं है याने चेतन का गुण नहीं है और जड़ का भी गण नहीं है। आपको क्या लगता है? ये क्रोध-मान-माया-लोभ चेतन का गुण है या जड़ का? किसका गुण है? प्रश्नकर्ता : जड़ का गुण है। दादाश्री : तो फिर यह टेपरिकार्डर क्रोध क्यों नहीं करता? ये टेबल को जला दो, तोड़ दो, फिर भी क्रोध क्यों नहीं करता है? प्रश्नकर्ता : तो वो चेतन का गुण हुआ? दादाश्री : क्रोध-मान-माया-लोभ है, वो चेतन का गुण हो तो कोई मोक्ष में जाता ही नहीं। वो चेतन का भी गुण नहीं है और जड़ का भी गुण नहीं है। चेतन और जड़ की मिश्रण स्थिति है. मिश्रस्थिति। चेतन तो शुद्ध ही है, वो जड़ भी शुद्ध है। दोनों का मिश्रण होता है. तो मिश्रचेतन बोला जाता है। वो दरअसल चेतन नहीं है। तो क्रोध-मान-माया-लोभ वो व्यतिरेक गुण है याने आत्मा की हाजरी से उत्पन्न होनेवाला गुण है और मिश्रचेतन का गुण है। वो जड़ का गुण नहीं है और शुद्ध चेतन का भी गुण नहीं है। सब लोग क्या कहते हैं कि क्रोध-मान-माया-लोभ का क्षय करो। लेकिन क्या क्षय कर सकते हैं आप? आप जानते ही नहीं कि कहाँ से Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध २१ आया है? कहाँ जाता है? उसका उद्भवस्थान क्या है? कैसे विलय हो सकता है? ये क्रोध-मान-माया-लोभ है, वो गुरू-लघु स्वभाव के हैं और आत्मा अगुरू- लघु स्वभाव का है। ईगोइज्म गुरू-लघु स्वभाववाला है, राग-द्वेष गुरू-लघु स्वभाववाले हैं, क्रोध-मान-माया-लोभ गुरू- लघु स्वभाववाले हैं और आत्मा अगुरूलघु स्वभावी है । दरअसल चेतन में क्रोध-मान-माया - लोभ कुछ भी नहीं है, वो परमानंद स्थिति है। वो ही आत्मा है, वो ही परमात्मा है। लेकिन ये रोंग बिलीफ से 'मैं ये हूँ, मैं रवीन्द्र हूँ' ऐसा मानता है, वो ही मिश्रचेतन है और मिश्रचेतन को ही जगत के लोग चेतन मानते हैं। जड़ और चेतन का संयोग हुआ कि विशेष परिणाम उत्पन्न होता है। अभी आपको ज्ञान मिल गया कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ', तो आपको खयाल आ जायेगा कि संयोग ही दुःखदायी है। तो आप संयोग से दूर हट जायेंगे तो संयोग भी हट जायेगा। संयोग हट गये फिर अज्ञान होता ही नहीं । संयोग से दूर हुआ फिर विशेष परिणाम भी नहीं होता। जैसे आपने सागर किनारे से आधा माइल दूर नये लोहे की दो लोरी रख दी। फिर बारह महिने के बाद देखेंगे तो लोहे को कुछ हो जायेगा? क्या हो जायेगा ? प्रश्नकर्ता: जंग लग जायेगा। दादाश्री : वो किसने किया? लोहे ने खुद ने किया ? प्रश्नकर्ता: नहीं। दादाश्री : तो किसने किया? प्रश्नकर्ता: दोनों के मिश्रण से । दादाश्री : वो दोनों का संयोग हो गया, तो संयोग से जंग उत्पन्न होता है। वैसे ये क्रोध - मान-माया-लोभ हैं, वो जड़ और चेतन के संयोग से उत्पन्न होते हैं। 'मैं खुद रवीन्द्र हूँ' ऐसा मानते हैं, इससे क्रोध-मानमाया-लोभ उत्पन्न होते है। जिधर आप खुद नहीं हैं, उधर आप बोलते आत्मबोध हैं कि 'मैं रवीन्द्र हूँ' और जिधर आप है, उसकी आपको समझ नहीं है। ‘मैं रवीन्द्र हूँ' यह आरोपित भाव है, यह सच्चा भाव नहीं है। यह आरोप करते है, तो 'रवीन्द्र' की सब जिम्मेदारी 'आप'को ले लेनी पड़ती है और आरोप करने से ही कर्म बंधते हैं। फिर उसका कर्मफल भुगतना पड़ता है। हम आरोपित भाव नहीं करते हैं। 'मैं अंबालाल हूँ' ऐसा ड्रामेटिक बोलते हैं। और आप 'मैं रवीन्द्र हूँ' ऐसा सच्चा बोलते हैं। जिसको ज्ञान मिलता है, उसको कर्म नहीं लगता, क्योंकि आरोपित भाव चला जाता है। आरोपित भाव को ही ईगोइज्म बोलते हैं। अपने खुद में 'मैं हूँ' बोले तो कोई हर्ज नहीं, क्योंकि खुद है ही। जिसका अस्तित्व है, वो बोल सकता है कि, 'मैं हूँ।' लेकिन खुद नहीं है, वह बोलना आरोपित भाव है। २२ अस्तित्व तो बकरी को भी रहता है। बकरी बोलती है न, 'मैं मैं' और सब लोग भी बोलते है, 'मैं हूँ, मैं हूँ।' तो अस्तित्व तो है, इसलिए ही बोलते हैं कि 'मैं रवीन्द्र हूँ'। तो ये प्रूव हो जाता है कि अस्तित्व तो है और जिधर शरीर निश्चेतन हो गया तो फिर 'मैं हूँ' कुछ नहीं बोलता, तो उधर अस्तित्व नहीं है। अस्तित्व है तो वस्तुत्व होना चाहिए लेकिन वस्तुत्व का खयाल नहीं आता कि 'मैं कौन हूँ'। इसलिए 'मैं रवीन्द्र हूँ' बोलते है। 'मैं इसका फादर हूँ' बोलते हैं। 'ये हूँ, वो हूँ' बोलते हैं, इसीलिए तो सच्ची बात क्या है, वो वस्तु समझ में नहीं आती है। वस्तुत्व का भान कराना, वो तो 'ज्ञानी पुरुष' का काम है। आप वस्तुत्व में क्या है, वो आपको मालुम नहीं। आप वस्तुत्व में क्या है, वो हमें मालूम है। हम वो देख भी सकता है कि आप कौन हैं ! प्रश्नकर्ता: मैं नहीं देख सकता। दादाश्री : आपको तो ये चर्मचक्षु हैं न? हम दिव्यचक्षु देते हैं फिर आप भी देख सकते हो। अस्तित्व का भान सब जीव को है। 'मैं हूँ, मैं हूँ' ऐसा अस्तित्व का भान सबको है। ‘मैं हूँ, मैं हूँ', ऐसा बकरी भी मानती है, कुत्ता भी Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध २४ आत्मबोध मानता है, उस पेड़ को भी ऐसा रहता है। लेकिन 'मैं कौन हूँ?' वो नहीं जानते हैं। अस्तित्व का भान सब को है, लेकिन वस्तुत्व का भान नहीं है। वस्तुत्व का भान हो गया, फिर पूर्णत्व ऐसे ही हो जाता है, दूसरा कोई करानेवाला नहीं। शुद्धात्मा हो गया, वस्तुत्व का भान हो गया तो ऐसे ही पूर्णत्व हो जायेगा। विश्व के सनातन तत्त्व ! आत्मा इस देह के साथ 'कम्पाउन्ड' नहीं हो गयी है, मिश्चर है सिर्फ। 'कम्पाउन्ड' हो जाये तो आत्मा का गुणधर्म चला जायेगा और देह का गुणधर्म भी चला जायेगा। लेकिन ये मिश्चर है, तो आत्मा का गुणधर्म पूरा है और देह का भी गुणधर्म पूरा है। इस अंगूठी में सोना है और तांबा भी है, लेकिन कम्पाउन्ड नहीं हुआ तो अलग कर सकते है। वैसे ही ज्ञानी पुरुष आत्मा और जड़ को अलग कर सकते हैं। ये संसार समसरण है। समसरण याने दुनिया में जो तत्व हैं, छ: परमानेन्ट तत्व, वो निरंतर परिवर्तन होते रहते हैं। परिवर्तन से एक दूसरे से इक्टठू होते है और इससे, ये संयोग मिलने से अलग तरह का प्रकाश हो जाता है। बस ऐसे ही दुनिया हो गई है। भगवान को कुछ करने की जरूरत नहीं। उनकी हाजरी से ही सब चल रहा है। प्रश्नकर्ता : जब तक ये पृथ्वी घूमती रहेगी, तब तक ये जन्म होते ही रहेंगे और जब पृथ्वी रुक जायेगी तो सब खत्म हो जायेगा? दादाश्री : पृथ्वी घूमती कभी बंद होने वाली ही नहीं। वो ऐसे ही घूमती रहेगी। सब परिवर्तनशील है। आप कल आये थे, तब जो 'दादाजी' देखे थे, वो आज नहीं है। आज दूसरे हैं। समय समय पर सब परिवर्तन होता है। सब चीज समय समय पर परिवर्तित होती ही है. लेकिन अपनी इतनी eye sight (द्रष्टि) नहीं है कि हम वो देख सकें। प्रश्नकर्ता : कल जो देखा और आज जो देखता हूँ, उसमें भगवान अलग-अलग है और रूप एक ही है? दादाश्री : नहीं, सब परिवर्तन होता है। संसार याने सब चीजों में परिवर्तन ही हो रहा है, उसका नाम ही संसार है और आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता है। आत्मा परमानेन्ट है। टेम्पररी सब परिवर्तन ही हो रहा है। एक 'स्पेस' में सब लोग नहीं रहे सकते न? तो सब की 'स्पेस' अलग अलग है। समय सभी के लिए एक रहता है। अभी दस बजे है तो सभी के लिए दस बजे है। लेकिन 'स्पेस' अलग है और इसलिए भाव भी अलग है। आपका भाव अलग, इसका भाव अलग, उसका भाव अलग। ऐसे सब भिन्न भिन्न है। सारी दुनिया सायन्स है। आत्मा भी सायन्स है। सायन्स के बाहर दुनिया नहीं है। बड़े बड़े पुस्तक है, ग्रंथ है, लेकिन समझ में नहीं आने से पज़ल बन गये है। जहाँ तक 'स्वरूप' समझ में नहीं आया, वहाँ तक The world is puzzle itself. किसी ने पज़ल नहीं किया, स्वयं ही पज़ल हो गया है। 'अक्रम मार्ग' से सब नयी बातें हम बताते हैं। एक आत्मा के उपर आ जाओ, और अनात्म विभाग में तो दूसरे पाँच विभाग है। ये सब समझने की जरूरत है। प्रश्नकर्ता : पृथ्वी, तेज (अग्नि), वायु, आकाश, जल ये पांच तत्त्वो के सिवा जगत में और कुछ है ही नहीं? दादाश्री : नहीं, और भगवान भी है न! प्रश्नकर्ता : ये पांच तत्त्वों का कोम्बीनेशन वो ही भगवान है? दादाश्री : नो, नो, नो, नो. वो पांच तत्त्व तो अनात्म विभाग है और भगवान आत्म विभाग है। भगवान चैतन्य है और ये पाँच तत्त्व जड़ है। ये दुनिया में छ: परमानेन्ट तत्त्व है, वो आपको खयाल है? प्रश्नकर्ता : आकाश, पृथ्वी, तेज, वायु, जल, आत्मा? Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध २५ दादाश्री : नहीं, ये पानी है, वो भाप हो जाती है, बर्फ हो जाता है। तो वो परमानेंट नहीं है। पृथ्वी चेन्ज हो जाती है, वो परमानेंट नहीं है। वायु तो डी- कम्पोज हो जाता है, इकट्ठा भी हो जाता है। वो चेन्ज होता है, तो वो परमानेन्ट नहीं है। तेज भी विनाश हो जाता है। पृथ्वी, तेज, वायु, जल ये चारों मिलाकर एक ही अविनाशी तत्त्व है। जिसको रूपी तत्व बोला जाता है। ये चारों एक ही तत्व की अवस्थाएँ है। ये जल, वायु, तेज, पृथ्वी- वो सभी तो जीव है। जलकाय जीव है, उसका शरीर कैसा है? जल वो ही उसका शरीर है। वायु, वो वायुकाय जीव का शरीर है। तेज में तेजकाय जीव है, वो सभी जीवों का शरीर ही जलता है। पृथ्वी वो पृथ्वीकाय जीव है। वो चारों के अंदर जीव है। वो चेतन तत्त्व है, वो परमानेन्ट तत्व है और दूसरा एक तत्व 'रूपी तत्व' भी है, उसको पुद्गल तत्व बोला जाता है। इन दोनों का साथ में मिश्चर हो गया है। पुद्गल, याने जो पूरण होता है, गलन होता है। फिर पूरण होता है, फिर गलन होता है। लेकिन वो परमाणु स्वरुप से परमानेन्ट है और पुद्गल के स्वरूप से वो विनाशी है। ये एटम है, इससे भी परमाणु बहुत छोटा है। एटम का विनाश होता है, लेकिन परमाणु का विनाश नहीं होता । वो एक ही पुद्गल तत्व है। प्रश्नकर्ता: परमाणु जो है वो अनादि है, उसका क्या कारण है? दादाश्री परमाणु वो तो अविनाशी है और परमानेन्ट है, इसलिए वो अनादि से ही है । प्रश्नकर्ता : परमाणु याने प्रकृति ? दादाश्री : परमाणु से प्रकृति में हेल्प होती है। प्रकृति है वो सब परमाणु ही है लेकिन प्रकृति एक चीज से नहीं होती है, प्रकृति में दूसरी चीजें भी है। ये प्रकृति है, इसमें परमाणु भी है और इसमें आने-जाने की शक्ति भी है। प्रश्नकर्ता: इन परमाणुओं का स्वतंत्र अस्तित्व है? आत्मबोध दादाश्री : हाँ, स्वतंत्र अस्तित्व है। जितना आत्मा का स्वतंत्र अस्तित्व है, उतना ही परमाणु का भी स्वतंत्र अस्तित्व है। आत्मा भी अविनाशी है। परमाणु भी अविनाशी है। २६ अपने शास्त्रों में क्या बोलते हैं कि ये शरीर हैं, प्रकृति है वो पाँच तत्त्व का मिलन है। वो पाँच तत्त्व- पृथ्वी, जल, वायु, तेज और आकाश को कहा है। लेकिन इसमें आकाश के अलावा जो चार तत्त्व हैं, वो सब अकेले परमाणु में आ जाते हैं। क्योंकि ये परमाणु से पृथ्वी हो गई, परमाणु से जल भी हो गया, परमाणु से वायु भी हो गया, परमाणु से ही तेज भी हो गया लेकिन आकाश तो स्वतंत्र है, बिलकुल स्वतंत्र है। जिस तरह परमाणु स्वतंत्र है, उसी तरह आकाश भी स्वतंत्र है। दूसरा, आने-जाने की जो क्रिया होती है, यह पुद्गल है, उसको इधर से उधर ले जाने के लिए कोई एक तत्त्व की जरूरत है। चेतन में आने-जाने की कोई शक्ति नहीं है। मनुष्य को आने-जाने के लिए यह तत्व की जरूरत है। वह गतिसहायक तत्व है। वह भी स्वतंत्र है। कोई चीज चलती है, तो फिर चलती ही रहेगी। उसकी गति चालू हो गई, फिर बंद नहीं होगी। तो उसे ठहरने के लिए, स्थिर होने के लिए भी एक तत्व चाहिये, वो स्थितिसहायक तत्व है और 'काल' ये भी एक तत्व है। ऐसे छ: स्वतंत्र तत्व है, उससे ये जगत बना हुआ है, सातवाँ तत्त्व नहीं है। ये छ: तत्व निरंतर समसरण करते हैं, परिवर्तन होता ही है। इससे यह पज़ल हो गया है। खुद से ही पज़ल हो गया है। किसी ने पज़ल बनाया नहीं है। है । प्रश्नकर्ता: तो पज़ल भी सनातन है? दादाश्री : नहीं, पज़ल सनातन नहीं है। पजल तो सोल्व हो जाता प्रश्नकर्ता: 'ज्ञानी' को सोल्व हो जाता है, लेकिन दूसरे सभी को तो परमानेन्ट ही है? Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध २७ दादाश्री : ऐसा है, वो अनुभव परमानेन्ट है, लेकिन ऐसा कायदेसर (नियमामुसार) परमानेन्ट नहीं है। परमानेन्ट है, इसको सत् बोला जाता है। सत् है वो अविनाशी होता है। ये पजल है वो अवस्था हैं और अवस्था मात्र विनाशी है। बस, छः अविनाशी तत्व है और उसकी जो अवस्था होती है, वो सब विनाशी है। ये शरीर वो अवस्था है, ये पेड़-पत्ते वो अवस्था है, वो मूल तत्व नहीं हैं। मूल तत्व अविनाशी है और उसकी अवस्था है, वो सब विनाशी है। और सब लोग अवस्था को ही बोलते है कि 'मैं हूँ, मैं हूँ।' लोग विनाशी को 'मैं हूँ' बोलते है । अपना खुद का तत्व समझ में आ जाये कि मेरा खुद का तत्व अविनाशी है। लेकिन अवस्था को 'मैं हूँ' बोलते हैं, इससे खुद भी विनाशी हो जाता है। परमाणु है वो अविनाशी है लेकिन एक परमाणु है ऐसे अनेक परमाणु (इकट्ठे) हो गये तो अवस्था हो गई। वो अवस्था विनाशी है। फिर परमाणु सब बिखर गये, तो परमाणु अविनाशी है। बिना आकाश तो जगह नहीं है। आकाश याने अवकाश, स्पेस ! सब जगह पर आकाश ही है। आप बैठे हैं, वो भी आकाश में ही बैठे हैं। अवकाश का आकाश हो गया है। अवकाश अविनाशी तत्त्व है। प्रश्नकर्ता: पेड़ में भी जीव है न? दादाश्री : हाँ, है। जो भी जीव है वो सभी दिखते हैं, चेतन नहीं दिखता | प्रश्नकर्ता: पत्थर में भी जीव है? दादाश्री : पत्थर में अंदर जीव रहता है। लेकिन टूट गया फिर कुछ नहीं और कुछ पत्थर में, जो काला पत्थर रहता है, जिसको लावारस बोलते है, उसमें कोई जीव नहीं है। जो सफेद पत्थर है या लाल पत्थर है, उसके अंदर जीव है। वो सब पृथ्वीकाय जीव है। पानी भी जीव है। पानी भी जीव का ही बना हुआ है। वो अपकाय जीव है। अप आत्मबोध याने पानी और काय याने शरीर, पानी रूपी शरीर जिसका है वो जीव, उसका शरीर ही पानी का है। बेक्टेरिया बोलते हैं, वो अलग है, वो तो माइक्रोस्कोप से देख सकते है और अपकाय नहीं देख सकते, वो जीव का पानी रूपी शरीर है। हवा भी जीव है, वो वायुकाय जीव है। ये अग्नि है न, उसमें जो लाल लाल चमकता है, वो भी जीव है, वो खुद ही तेजकाय जीव है। २८ रूप-रंग आत्मा में नहीं होता है। जो अनात्मा है, उसमें रूप-रंग रहता है। काला, पीला, लाल, सफेद, वो सब रंग और ऐसा मोटा, पतला, ऊँचा, नीचा, वो भी सब अनात्म विभाग का है। आत्मा में, चेतन में ऐसा नहीं है। चेतन तो परम ज्योति स्वरूप है। ये आँख है, कान है, इन्द्रिय है, इन सबसे जो ज्ञान जान लिया, वो सब रिलेटिव करेक्ट है और वो टेम्पररी एडजस्टमेन्ट है, नोट परमानेन्ट ! प्रश्नकर्ता: तो इन्द्रियों से जो ज्ञान होता है, वह ज्ञान नहीं है? दादाश्री : वो रिलेटिव ज्ञान है and all these relative are temporary adjustment, not a single adjustment is permanent in this world !! चेतन है वो भी परमानेन्ट है और जड़ है वो भी परमानेन्ट है। जो जड़ परमाणु स्वरूप का है वो परमानेंट है। लेकिन परमाणु है उसे आँख से देख नहीं सकते, अणु तक का देख सकते है, लेकिन परमाणु तक का कोई नहीं देख सकता। वो तो 'ज्ञानी पुरुष' और तीर्थंकर ही देख सकते हैं। जिसको परमाणु बोलते हैं, ये परमाणु फिर पुद्गल होते हैं। ये परमाणु सब इकट्ठे होकर पुद्गल होता है, वो स्कंध होता है। परमाणु आँख से देख सके ऐसा नहीं होता। लेकिन स्कंध है, वो आँख से देख सकते है। लेकिन वो भी परमाणु का ही है और निश्चेतन चेतन है। प्रश्नकर्ता: निश्चेतन चेतन है तो उसे चेतन क्यों बोला? Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध ३० आत्मबोध दादाश्री : वो ही समझने का है। वो चेतन नहीं है, निश्चेतन चेतन है। चेतन जैसा दिखता है, लक्षण चेतन जैसे है लेकिन गणधर्म चेतन का नहीं है। कोई आदमी ने घडी को चाबी दिया, फिर वो घडी चलती है, ऐसे वह चार्ज हो गया है, वह ही डिस्चार्ज होता है। पिछले जन्म में चार्ज हो गया था, वो ही अभी इस जन्म में डिस्चार्ज होता है। जन्म से मृत्यु पर्यंत डिस्चार्ज होता है और उसी समय अंदर चार्ज भी हो रहा है। वो ही आगे के जन्म में फिर डिस्चार्ज हो जायेगा। चार्ज दो प्रकार के है। कई लोग सभी लोगों को सख हो ऐसे ही कार्य करते हैं तो जगत इसमें खुश (होता) है कि ये बराबर है। जो सब के लिए अच्छा कर्म करता है, तो सब लोग उसको मान्य करते है। लेकिन इसका भी चार्ज होता है, ये पोझीटिव चार्ज है। कई आदमी दूसरों को दुःख देते है, वो नेगेटिव चार्ज है। चार्ज नहीं होना वो ही मख्य बात है। चार्ज बंद हो गया तो फिर चिंता नहीं होती है और संसार में भी रह सकता है। झगड़ा बढ़ गया। प्रश्नकर्ता : छः पार्टनर कौन हैं? दादाश्री : ये छ: पार्टनर क्या बोलने लगे कि अपने छः पार्टनर होकर बिजनेस चलायेंगे। तो पहला पार्टनर आया कि 'भाई ! बिजनेस के लिए जगह हमारी!' जगह चाहिये कि नहीं? वो आकाश देता है। अवकाश, वो वन ओफ धी पार्टनर है। दूसरा पार्टनर बोलता है कि, जो माल चाहिये, जितना चाहिये, उतना ले जाओ, हम देगा। माल हम भेज देगा, लेकिन कार्टिंग हम नहीं करेगा। मैटेरियल सब पुद्गल देता है। उसकी भी 1/6th पार्टनरशिप है। वो सब काटिंग कर देता है। माल लानेले जाने का काम वो करता है। जड में या चेतन में आने-जाने की शक्ति नहीं है। आने-जाने के लिए ये तत्त्व है। तीसरा भागीदार काटिंगवाला है। वो गति सहायक तत्त्व है। चौथा पार्टनर स्थिति सहायक तत्त्व है। वो सब निकम्मा माल फेंक देता है। मैटेरियल को स्थिर करता है। पाँचवा पार्टनर वो मेनेजमेन्ट करता है। वो सब टाइमिंग देता है। वो काल तत्व है। छठा आत्मतत्व है। उसको क्या काम करने का? सिर्फ देखभाल रखने की। आत्मतत्व ही एक ऐसा है, जिसमें चैतन्य है, ज्ञान-दर्शन है। ये आत्मा है न, वो आप खुद हैं। आपको सिर्फ देखभाल रखने की थी कि, 'सब क्या कर रहे हैं।' उसके बदले आप बोलते हैं, 'ये सब मैंने किया।' तो पार्टनरो में झगड़ा हुआ। इसलिए सब पार्टनर कोर्ट में झगड़ा करते हैं। कमल और पानी में कोई झगड़ा नहीं है, ऐसा संसार और ज्ञान को कोई झगड़ा नहीं। दोनों अलग ही हैं। मात्र रोंग बिलीफ है। 'ज्ञानी पुरुष' सब रोंग बिलीफ को फ्रेक्चर कर देते हैं और संसार सब अलग हो जाता है। अभी आप 'ज्ञानी' से विमुख हैं। जब 'ज्ञानी' से सन्मुख हो जायेंगे, तब संसार छूट जायेगा। जगत की वास्तविकता ! प्रश्नकर्ता : मैं आपके पास ज्ञान जानने आया हूँ। रवीन्द्र तो नाम दिया है, आपको पहचान करने के लिए। जैसे दुकान का नाम होता है कि जनरल ट्रेडर्स, तो वो क्या मालिक का नाम है? और मालिक को कोई बोलेगा कि, जनरल ट्रेडर्स, इधर आओ, इधर आओ! ऐसा 'रवीन्द्र' तो दुकान का नाम है। इसमें छ: पार्टनर है। इस कम्पनी में छ: पार्टनर है और जब शादी करता है, तब फिर ये दूसरे छह पार्टनर हुआ तो ६+६ का कोर्पोरेशन हो गया। फिर एक लड़का हुआ तो ओर छः पार्टनर हुआ, लड़की हुई तो ओर छ: पार्टनर हुआ, फिर सब पार्टनर झगड़ते हैं अंदर ही अंदर, मारामारी, लट्ठाबाजी!! ये छ: पार्टनर अपना अपना काम संभाल लेते हैं। हमें अपना काम संभाल लेने का है। लेकिन हम ईगोइज्म करते है कि, 'मैं बोलता हूँ, ये सब मैंने किया। 'मैंने किया ऐसा बोल दिया, फिर बाकी के सब पार्टनर आपके साथ पूरा दिन झगड़ते है। इसका कोर्ट में झगडा चलता है। फिर वाईफ के छ: पार्टनर आ गये, फिर तो कोर्पोरेशन हो गया और Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध दादाश्री : आपको रिलेटिव ज्ञान जानने का विचार है कि रीयल ज्ञान जानने का विचार है? ज्ञान दो प्रकार के होते हैं। एक रिलेटिव ज्ञान है, दूसरा रीयल ज्ञान है। रीयल ज्ञान परमानेन्ट है और रिलेटिव ज्ञान टेम्पररी है। तो आपको क्या जानने का विचार है? जो पुस्तक में लिखा गया. वो सब टेम्पररी ज्ञान है। तो आपको क्या जानना है? प्रश्नकर्ता : परमानेन्ट ही जानना है। दादाश्री : जो वास्तविक है, वो परमानेंट है। प्रश्नकर्ता : ज्ञान जो है, वह परमानेन्ट होना चाहिए। टेम्पररी ज्ञान से कोई फायदा नहीं होता। प्रश्नकर्ता : मैं ये ही चाहता हूँ। दादाश्री : ये सब लोग जानते हैं, वो प्राकृत ज्ञान जानते है। सच्चे ज्ञान की बात इसमें नहीं है। ये सब प्राकृत ज्ञान है। आत्मज्ञान चाहते हो तो बोलने का कि आत्मज्ञान की बात में 'मैं कुछ नहीं जानता हूँ' ऐसा भाव होना चाहिए। नहीं तो ईगोइज्म होता है कि 'मैं कुछ जानता हूँ।' प्रकृति उसको चलाती है, और बोलता है कि 'मैं चलाता हैं। ऐसी उसको भ्रांति है। धर्म भी प्रकृति कराती है और बोलता है 'मैं धर्म करता हूँ।' तप करता है, वो प्रकृति कराती है। त्याग करता है, वो प्रकृति कराती है। चोरी करता है, वो प्रकृति कराती है। जहाँ तक पुरुष नहीं हुआ, वहाँ तक प्रकृति ही कराती है और पुरुष हो जाये तो काम हो गया। 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से पुरुष और प्रकृति अलग हो जाते हैं। पुरुष हो गया फिर सच्चा पुरुषार्थ होता है, नहीं तो वहाँ तक सच्चा पुरुषार्थ नहीं है। वो भ्रांति का पुरुषार्थ है। सब बोलते हैं कि आत्मज्ञान (प्राप्त) करो। लेकिन जहाँ तक आत्मज्ञान नहीं मिलता, वहाँ तक प्रकृतिज्ञान का अभ्यास करो, उसको जानो। ये शरीर में जो मैकेनिकल पार्ट्स हैं, वो सब प्रकृति है। इसमें कुछ करने की जरुरत नहीं है। जैसे ये दाढ़ी के बाल ऐसे ही बढ़ते है न?! पुरुषधर्म समझना चाहिए और प्रकृति का धर्म भी समझना चाहिए। प्रकृतिधर्म संसार चलाने के लिए समझना चाहिए और मोक्ष में जाने के लिए पुरुष धर्म समझना चाहिए। दादाश्री : सारी दुनिया में टेम्पररी ज्ञान ही चलता है। वो टेम्पररी ऐडजस्टमेन्ट है, परमानेन्ट ऐडजस्टमेन्ट नहीं है। टेम्पररी ऐडजस्टमेन्ट क्यों बोला जाता है? क्योंकि इससे बहुत आगे जानने का है। संसार चलाने के लिए टेम्पररी ज्ञान है लेकिन वास्तव में जगत क्या है, भगवान क्या है, जगत कौन चलाता है, कैसे चलता है, ये सब रीयल ज्ञान जानना चाहिए। वास्तविक जानना चाहिए। वास्तविक कोई पुस्तक में नहीं लिखा है। आपको क्या जानने का विचार है? हम दोनों बात बता देते हैं। वास्तविक भी और वो दूसरा भी बताते हैं। प्रश्नकर्ता : जो लिखा है वो तो बहुत कुछ जान चुका हूँ। दादाश्री : आप लिखा हुआ सब जान चुके हैं, लेकिन लिखा हुआ है, वो जानने में कुछ फायदा नहीं होता। वो सब टेम्पररी ज्ञान है। हमने तय किया कि दूसरों के साथ झूठ नहीं बोलने का, सच ही बोलने का है। सब जगह पर लिखा है कि सच बोलना, लेकिन झूठ तो बोलना ही पड़ता है। क्योंकि वो टेम्पररी ज्ञान है और परमानेन्ट ज्ञान जान लें तो फिर वो झूठ बोल ही नहीं सकता। परमानेन्ट ज्ञान तो खुद क्रियाकारी है। जो हम बोलते हैं, वो कभी पुस्तक में पढ़ी नहीं, कभी सुनी नहीं, ऐसी बातें बोलते हैं लेकिन हैं वास्तविक, यह आपकी आत्मा कबूल करेगी। आप खुद कौन हो? दादाश्री : आपका नाम क्या है? प्रश्नकर्ता : रवीन्द्र। दादाश्री : रवीन्द्र तो आपका नाम है, आप खुद कौन हैं? प्रश्नकर्ता : मैं एक इन्सान हूँ। Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध दादाश्री : इन्सान तो ये शरीर को कहते हैं। चार पैर हो तो पशु कहते हैं। तो आप खुद कौन हैं? प्रश्नकर्ता : रवीन्द्र ही हूँ। पहचान के लिए दिया हुआ नाम है। दादाश्री : आपका नाम रवीन्द्र है, ये तो हम भी कबूल करते हैं। जैसे कोई दुकान का बोर्ड हो कि जनरल ट्रेडर्स, तो उसके मालिक को हम बुलायें कि 'हेय, जनरल ट्रेडर्स इधर आओ।' तो कैसा होगा? रवीन्द्र तो आपको पहचानने का बोर्ड है। आप खुद कौन हैं? 'मेरा नाम रवीन्द्र' और 'मैं रवीन्द्र', इसमें कोई फर्क लगता है क्या? जैसे 'ये शरीर मेरा है' ऐसा कहते हो कि 'मैं शरीर हूँ' ऐसा कहते हो? प्रश्नकर्ता : 'मेरा शरीर है' ऐसा कहूँगा। दादाश्री : 'मेरा माइन्ड' कहते हो कि 'मैं माइन्ड हूँ' कहते हो? प्रश्नकर्ता : 'मेरा माइन्ड' कहता हूँ। दादाश्री : और स्पीच? प्रश्नकर्ता : 'मेरी स्पीच' कहता हूँ। दादाश्री : इसका मतलब ये कि आप माइन्ड, स्पीच और शरीर के मालिक हैं, तो आप खुद कौन हो? इसकी तलाश की है या नहीं? शादी की तब औरत तलाश करके लाये थे कि नहीं? तो खुद की ही तलाश नहीं की? ये सब तो रिलेटिव है और आप खद रीयल है। All these Relatives are temporary adjustments and Real is Permanent. को रीयलाइज करने की है और उसके लिए सबसे पहले जगत को भूलना है। दादाश्री : हाँ, जगत विस्मृत करने का है, लेकिन वो पहले भूला नहीं जा सकता है न?! भगवान का रीयलाइजेशन हो गया तो जगत भूल जायेगा। हमको फोरेनवाले बोलते हैं कि, भगवान की पहचान करने के लिए शोर्टकट बता दो। तो हमने बताया कि separatel and My with separator! _ 'I' कौन ? 'My' क्या ? आप जो 'I' बोलते है, वो सच्ची बात नहीं है। कोई पूछे कि 'रवीन्द्र कौन है?' तो पहले आप बोलते हैं कि 'मैं रवीन्द्र हूँ।' फिर पूछे कि 'रवीन्द्र किसका नाम है?' तो आप बोलते है कि 'मेरा नाम है।' यह विरोधाभास लगता नहीं आपको? ये सब विरोधाभास है, तो separate 'T' & 'My'. पहले ये पाँव अलग रख दिया, 'माय फीट', फिर हाथ अलग रख दिया, 'माय हेन्ड'। फिर सर अलग रख दिया, 'माय हेड' और 'माय माइन्ड' बोलते हैं कि 'मैं माइन्ड हूँ' बोलते हैं? प्रश्नकर्ता : 'My Mind'. दादाश्री : तो उसको भी दूर रखने का। 'माय ईगोइज्म' बोलते है कि 'मैं ईगोइज्म हूँ' बोलते हैं? प्रश्नकर्ता : 'My Egoism.' दादाश्री : तो उसको भी दूर रखने का। फिर 'मैं बुद्धि हूँ' ऐसा बोलते हैं कि 'मेरी बुद्धि' ऐसा बोलते हैं? प्रश्नकर्ता : 'My Intellect.' दादाश्री : तो उसको भी दूर रखने का। मन-बुद्धि-चित्त-अहंकार रीयल बात एक दफे करो तो फिर सभी पज़ल सोल्व हो जाते हैं। भगवान को पहचानने के लिए एक ही रीत नहीं है, दूसरी भी बहुत रीत है। प्रश्नकर्ता : जगत में सबसे बडी डिफिकल्टी होगी तो वह भगवान Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध प्रश्नकर्ता : 'I' को 'My' से सेपरेट कहाँ तक कर सकते हैं? जो रोज की जिंदगी है वह जिंदगी भी तो चलानी है, उसमें तो धंधा है, व्यवहार है, रिलेटिव है, माँ-बाप है। दादाश्री : वो छोड़ देने का नहीं है। वो तो आपकी समझ में रखने का कि This is not mine, This is not mine. औरत-लड़के सब रखने का, वो छोड़ देने की चीज नहीं है। वो तो रखने की चीज है। लेकिन समझ जाने का कि This is 'My' and not 'T'. इतना समझ जाने का। सब अलग रखने का। सब अलग रख दिया, फिर क्या रहेगा? प्रश्नकर्ता : कुछ नहीं रहेगा। दादाश्री : 'I' रहेगा! -My' चला गया, कि '1' रहेगा। वो ही भगवान है, वो ही कृष्ण है। जिधर 'My' नहीं, वहाँ '1' है, वो ही आत्मा है, वो ही परमात्मा है। अभी तो 'My' की चुंगल में आ गये है, इसलिए 'ये मेरा, ये मेरा, ये मेरा' करते हैं। हम लोनावाला गये थे। वहाँ हमको एक जर्मन 'कपल' मिला था। वो हमको बोलने लगा कि हमें God (भगवान) बता दो। हमने बोल दिया कि separate 'T' and 'My' with separator. जो बाकी रहता है, वो 'T' है और 'T' is God. लेकिन सेपरेटर का डीलर मैं हूँ। सेपरेटर के बिना सेपरेट नहीं हो सकेगा। तो सेपरेटर मेरे पास से ले जाना। सेपरेटर तो चाहिए न? आप कहाँ तक सेपरेट करते जायेंगे? माय माइन्ड, माय इन्टलेक्ट, माय ईगोइज्म वहाँ तक जायेंगे। लेकिन ईगोइजम से आगे कैसे जायेंगे? जहाँ तक स्थूल है, वहाँ तक आप जायेंगे। लेकिन इसके आगे सूक्ष्म है और सूक्ष्म से आगे कारण है, कॉज है। वो 'समझ' आप कहाँ से लायेंगे? वो तो हमारे पास है। T & 'My' का सेपरेशन किया तो 'T' is God ! लेकिन आप खुद से (अपने आप) पूरे सेपरेट नहीं हो सकेंगे। वो सेपरेट करने का काम 'ज्ञानी पुरुष' का ही है। वो हम आपको करवा देते हैं। कितने जन्मों से भटकते हैं लेकिन सच्ची बात नहीं जानी। किस पुस्तक में ऐसी बात बतायी है? और भगवान को तलाश करने के लिए कितनी पुस्तकें हैं?! और इतनी पुस्तकें पढ़कर भी किसी को भगवान नहीं मिले!!! पुस्तक तो क्या बताती है कि भगवान उत्तर में है और सब लोग दक्षिण में जाते है और बोलते हैं कि मैं भगवान की तलाश करने को जाता हूँ। बाहर से 'दुकान' सब चीज को बोल दिया कि this is 'My' तो समझ गया कि This is not'1'. फिर एक शरीर के लिए आया तो This is 'My', not 'I'. फिर 'I' की तलाश करो। हमने वो ही तलाश कर लिया। All these relatives are temporary adjustment. 'My' is temporary and 'T' is permanent. प्रश्नकर्ता : स्पीरीच्युअल वेल्डींग है और ये फिज़िकल वेल्डींग है याने यह शरीर और आत्मा, दोनों में कुछ कनेक्शन है? दादाश्री : कनेक्शन है ही। लेकिन दोनों अलग हैं। प्रश्नकर्ता : कैसे? दादाश्री : आप दोनों को सेपरेट कर सकते हैं। प्रश्नकर्ता : आपके पास ये सेपरेट करने की कोई टेकनिक है या गिफ्ट है? दादाश्री : गिफ्ट है, ये नेचरल गिफ्ट है। This is but natural. प्रश्नकर्ता : मुझे लगता है कि आपके पास कछ टेकनिक होनी चाहिए कि जिससे '1' और 'My' सेपरेट कर सके। दादाश्री : ये टेकनिक नहीं है, ये 'विज्ञान' है, ये 'प्रकाश' है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध __३७ आत्मबोध ये तो थियरी ओफ ऐब्सोल्यूटिज्म है, हम थीयरम ओफ ऐब्सोल्यूटिज्म में है। हमारे पास ऐब्सोल्यूट विज्ञान है। वो सब हम आपको बताते हैं। ऐब्सोल्यूट विज्ञान कब प्राप्त होता है? ये शरीर का, मन का, वाणी का, सब का मालिकीभाव छूट जाता है, तब ऐब्सोल्यूट विज्ञान प्राप्त होता है, नहीं तो नहीं होता। आध्यात्म में ब्लंडर क्या ? मिस्टेक क्या ? आप खुद' भगवान ही हैं। आपका कोई उपरी ही नहीं है। हमने देखा है कि कोई भगवान भी आपके उपरी नहीं है। आपके बोस कौन हैं? आपके ब्लंडर और मिस्टेक । वो चले जाये तो आपका कोई उपरी नहीं है। 'ज्ञानी पुरुष' पहले ब्लंडर तोड देते हैं, फिर मिस्टेक आपको निकालनी चाहिये। ब्लंडर में क्या है? 'मैं रवीन्द्र हूँ', वो जो आपकी बिलीफ है, वो आरोपित भाव है। जिधर आप नहीं है, उधर आप बोलते हैं, कि 'मैं हूँ।' उसका भगवान के वहाँ क्या न्याय होता है? वो ब्लंडर बोला जाता है। जहाँ खुद है, वहाँ खुद की पहचान नहीं है। 'मैं रवीन्द्र हूँ, मैं इसका फादर हूँ, मैं इसका चाचा हूँ', वो सब आरोपित भाव है। उसको ब्लंडर बोला जाता है। वो ब्लंडर चला जाये फिर सिर्फ मिस्टेक ही रहेगी। सेल्फ रीयलाइजेशन किया, फिर आरोपित भाव नहीं रहेगा, ब्लंडर नहीं रहेगा, मिस्टेक ही रहेगी। वो मिस्टेक आपको कैसे निकालने की, वो फिर 'ज्ञानी पुरुष' बता देंगे। प्रश्नकर्ता : ऐसा कोई आज इस दुनिया में है, जिसको ब्लंडर और मिस्टेक नहीं है? दादाश्री : हाँ, हमारे सब ब्लंडर और मिस्टेक चले गये हैं। हमारी एक भी स्थूल भूल नहीं है। स्थूल भूल तो सब लोग समझ जाते हैं कि इसने भूल की, वो स्थूल भूल बोली जाती है। दूसरी सूक्ष्म भूल होती है। सूक्ष्म भूल सब लोग नहीं जान सकते। लेकिन कोई बुद्धिवाला विचक्षण आदमी हो तो वो समझ जाता है कि इसने भूल की, ये सूक्ष्म भूल है। ऐसी स्थूल भूल और सूक्ष्म भल हमारे में नहीं है। सक्ष्मतर और सूक्ष्मतम भूल है, वो किसी को भी नुकसान नहीं करती है, दुनिया में कोई चीज को नुकसान नहीं करती है। ये शरीर के ओनर (मालिक) हैं आप? और स्पीच के ओनर हैं? और माइन्ड के भी ओनर हैं? आप बोलते हैं कि माय माइन्ड, माय बोड़ी, माय स्पीच तो उसकी जिम्मेदारी आ गई। क्या जिम्मेदारी है? कि ये माइन्ड, बोडी और स्पीच ये इफेक्टिव है। किसी ने गाली दे दी, तो ये माइन्ड इफेक्टिव है, इस लिए माइन्ड को इफेक्ट हो जाती है। लेकिन आप बोलते हैं माय माइन्ड, तो ये इफेक्ट आपको ही लगती है। सेल्फ को रीयलाइज़ किया, फिर आपको इफेक्ट नहीं लगती। फिर आप बोलेंगे, 'रवीन्द्र ये आपकी डाक है, हमारी डाक नहीं है।' 'मैं रवीन्द्र हूँ' वो रोंग बिलीफ है। अपने रीयल स्वरुप को, रीयली 'मैं खुद कौन हूँ' जान लें तो फिर राइट बिलीफ हो जाती है। वो राइट बिलीफ हो गयी, फिर राइट ज्ञान हो जाता है और फिर राइट वर्तन हो जाता है, तो खुद ही 'खुद' हो जाता है। फिर 'खुद' ही 'खुदा' हो जाता है। जो 'खुद' है वो ही 'खुदा' हो जाता है। परमानेन्ट शांति कैसे ? प्रश्नकर्ता : खुद को पहचानने के लिए, शुद्ध होने के लिए क्या साधन करना चाहिये? दादाश्री : वो पहचानने से आपको क्या फायदा होगा? प्रश्नकर्ता : शांति। दादाश्री : परमानेन्ट शांति चाहते हो? थोडी देर झगड़ा करना, फिर शांत हो जाना, ऐसी टेम्पररी शांति में क्या फायदा? शांति दो प्रकार Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध ३९ की रहती है। एक आदमी को घर में ठंड बहुत लगती है, तो वो धूप में चला जाता है तो वहाँ शांति होती है और समर में धूप में बहुत गर्मी लगती है तो जब पेड़ के नीचे बैठता है, तो शांति लगती है। वो सब टेम्पररी शांति है। आपको परमानेंट शांति चाहिये ? प्रश्नकर्ता: हाँ, परमानेंट शांति ही चाहिये । दादाश्री : फिर क्या करेगा परमानेंट शांति को? अभी तक तो देखी ही नहीं है न? सुना भी नहीं है न? प्रश्नकर्ता: हाँ, लेकिन हर वक्त अशांति से क्या फायदा? शांति कहाँ से मिले, उसका उपाय बताइए। दादाश्री : अशांति कहाँ से लाये? उसके सामने की ही दुकान है शांति की। आपको शांति का उपाय चाहिये है कि शांति चाहिये ? आपको जो चाहिये है वो देंगे। अंतर शांति मिल गई और अंतर दाह मिट गया, तो वो ही मुक्ति की सच्ची टिकिट है। वो ही मोक्ष का लायसन्स है । प्रश्नकर्ता: पीस ऑफ माइन्ड नहीं रहने का कॉज़ क्या है? दादाश्री : उसका जो कॉज़ है न, वो अज्ञानता है। दूसरा कोई कॉज़ नहीं है। ज्ञान से पीस ऑफ माइन्ड कायम रहता है और अपने हरेक काम होते हैं। आपको तो ऐसा लगता है न कि मैं चलाता हूँ ? That is complete wrong! प्रश्नकर्ता: चलायें या ना चलायें, लेकिन रिस्पॉसिबिलिटी तो अपने उपर ही है न? दादाश्री आपको जितनी जिम्मेदारी है, इससे भी ज्यादा जिम्मेदारीवाला हो तो भी पीस ऑफ माइन्ड कायम रहना चाहिए। प्रश्नकर्ता : मैं वो ही पूछना चाहता हूँ कि ये पीस ऑफ माइन्ड कैसे रहेगा? ४० आत्मबोध दादाश्री : पीस ऑफ माइन्ड क्यों नहीं रहता है? वो अज्ञानता से नहीं रहता है, वो रोंग बिलीफ से नहीं रहता है। राइट बिलीफ से पीस ऑफ माइन्ड रहता ही है। ये तो एक गलती हुई, उससे दूसरी गलती, तीसरी गलती, वो सब गलती ही चल रही है। खुद में अशांति होती ही नहीं। खुद में ही आनंद है। 'आप' 'रवीन्द्र' हो गये कि अशांति हो जाती है। 'मैं रवीन्द्र हूँ' वो कल्पित भाव है, आरोपित भाव है। ये रोंग बिलीफ है। आप खुद कौन हैं, वो जान लिया वही राइट बिलीफ है। प्रश्नकर्ता : राइट बिलीफ व्यवहार को कुछ मदद करती है? दादाश्री : हाँ, उससे आदर्श लाइफ हो जाती है। रोंग बिलीफ न हो तो उसकी लाइफ आदर्श होती है। संसार परिभ्रमण का रूट कॉज़ ! प्रश्नकर्ता: दादाजी, थोड़ा सा आत्मा के विषय में बताइये कि ये जगत का रूट कॉज़ क्या है? दादाश्री : देखिये, ये संसार कहाँ से खड़ा हो गया? ये संसार का रूट कॉज़ क्या है? इसका रूट कॉज़ अज्ञान है। कौन सा अज्ञान ? सांसारिक अज्ञान? नहीं, सांसारिक अज्ञान तो सभी का गया है कि 'मैं वकील हूँ, मैं डाक्टर हूँ।' वो तो गया ही है सभी को। लेकिन 'मैं खुद कौन हूँ' उसका ही अज्ञान है। वो अज्ञान से ही खड़ा हो गया है। ज्ञानी पुरुष की कृपा होने से एक घंटे में अज्ञान चला जाता है, नहीं तो करोड़ों जन्म हो जाये तो भी नहीं जाता। प्रश्नकर्ता: आदमी को बचपन से ऐसी ट्रेनिंग मिले तो ज्ञानी हो सकता है? दादाश्री : नहीं, वो ट्रेनिंग से नहीं होता। सारी दुनिया ही अज्ञान प्रदान करती है। आप छोटे थे, तब से ही अज्ञान प्रदान करती है, 'आप' को 'रवीन्द्र' नाम लगा दिया कि ये 'रवीन्द्र' है, ये 'रवीन्द्र' आया, ये दो साल का हो गया। सब लोगों ने भी 'आप' को 'रवीन्द्र' बोल दिया, Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध बात है। सब लोग पैसे के लिए मंथन करता है और आप खुद की पहचान के लिए मंथन करते है। वो बडी तारीफ की बात है। आपने वो सच मान लिया। 'ये रवीन्द्र ने किया, रवीन्द्र अभी पाँच साल का हो गया', वो सब आपने सच मान लिया। फिर बड़े हो गये और शादी की तो सब लोग बोलने लगे कि 'ये इसका पति है', तो वो भी आपने सच मान लिया। फिर लड़का हो गया तो 'ये लड़के का फादर है' ऐसा भी आपने सच मान लिया। आपको खुद की पहचान नहीं और आपको ये सब रोंग बिलीफ हो गयी। इससे सब भूल हो गयी। तो सबसे पहले सेल्फ को रीयलाइज करना चाहिए। लेकिन वो कौन करायेंगे? दुनिया में कभी कोई दफे कोई ज्ञानी होते है। वहाँ मौका मिल गया तो सच्ची बात मालूम हो जाती है। आप खुद कौन हैं? प्रश्नकर्ता : मैं एक जीव हूँ। दादाश्री : जीव तो जो मरता है और जिन्दा रहता है, उसको जीव बोला जाता है। आपको अमर होने का विचार नहीं? प्रश्नकर्ता : अमर होने की बात कही, तो प्रश्न यह है कि जीते जी अमर या मरने के बाद अमर? दादाश्री : अभी तो जीते जी अमर, फिर मरने का भय नहीं लगता और आपको तो ऐसे कोई धौल (तमाचा) लगाता है न, तो 'हमको, हमको, हमको' करने लगेंगे। क्या 'हमको, हमको' बोलते है? 'हम' किसको माना है आपने? रवीन्द्र को 'हम' माना है? आप खुद को तो पहचानते नहीं, फिर 'हम को, हम को' क्या बोलते हो! मैं रवीन्द्र हूँ, वो गलत बात है। ऐसे अनादि से वो ही भूल संसार में चली आयी है। खुद की पहचान करो कि, 'आप खद कौन हैं'। फिर खदा हो जायेंगे। फिर भगवान आपके पास से जायेंगे ही नहीं कभी। 'मैं रवीन्द्र हूँ', वहाँ तक भगवान आपके पास आयेंगे भी नहीं। खुद की पहचान अभी तक नहीं की? प्रश्नकर्ता : उसी का तो मैं मंथन कर रहा हूँ। दादाश्री : खुद की पहचान करने का मंथन करता है, बड़ी भारी प्रश्नकर्ता : जब तक मुझे खुद का अनुभव नहीं होगा, आत्म अनुभव नहीं होगा, तब तक मैं आगे नहीं बढ़ सकता? दादाश्री: हम एक घंटे में आपको आत्मा का अनुभव करा देंगे, फिर कभी आत्मा नहीं चली जायेगी और क्षायक समकित हो जायेगा। "एगो में शाषओ अप्पा, नाण दश्शण संजूओ, शेषा में बाहिराभावा, सव्वे संजोग लख्खणा। संजोग मूला जीवेण, पत्ता दु:ख परंपरा, तम्हा संजोग संबंधम्, सव्वम् तिवीहेण वोसरियामी।" ऐसी दशा हो जाती है। कभी हुआ नहीं था, लेकिन ये हुआ है। ये ग्यारहवाँ आश्चर्य है। भगवान महावीर तक दस आश्चर्य हुए थे। ये ग्यारहवाँ आश्चर्य है। आपको ठीक लगे तो आना, नहीं तो ये तो वीतराग मार्ग है। हम पत्र नहीं भेजेंगे। मिथ्यात्व द्रष्टि : सम्यक् द्रष्टि 'मैं रवीन्द्र हूँ' ये आपकी रोंग बिलीफ है। 'इनका पति हूँ' ये दूसरी रोंग बिलीफ है। इनका पिता हूँ, इनका भाई हूँ ऐसी कितनी रोंग बिलीफें है? प्रश्नकर्ता : बहुत है। दादाश्री : आप हकीकत में क्या हैं, यह आपको मालूम नहीं है। 'मैं रवीन्द्र हूँ' ये आपकी मिथ्यात्व द्रष्टि है। 'मैं सच्चिदानंद हूँ' (मैं शुद्धात्मा हूँ), ये द्रष्टि मिल जाये तो उसको सम्यक् द्रष्टि बोला जाता है। रोंग बिलीफ को मिथ्या दर्शन और राइट बिलीफ को सम्यक् दर्शन बोला है। ये रोंग बिलीफ का रूट कॉज़ क्या है? अज्ञानता ! 'मैं रवीन्द्र हूँ' दा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध दादाश्री : लेकिन आपकी इच्छा तो है न, रीयलाइजेशन करने की? ये आपने सच मान लिया वो ही मिथ्यात्व है, वो ही रूट कॉज़ है। वो भौतिक सुख की इच्छा ही मिथ्यात्व नहीं है। हम ये आपकी रोंग बिलीफ फ्रेक्चर कर देते हैं और राइट बिलीफ बिठा देते हैं। हम आपके भौतिक सुख फ्रेक्चर नहीं कर सकते। उसको फ्रेक्चर करने की कोई जरूरत ही नहीं। जिसका जो खाने का विचार है, वो बोलते हैं, कि साहब, आज हमको जलेबी खाने का विचार है। तो हम बोलते हैं कि 'खाओ, आराम से खाओ।' हमको उससे कुछ तकलीफ नहीं है। प्रश्नकर्ता : अभी तो जैसा चलता है ऐसा चलने दो। सेल्फ रीयलाइज तो होना चाहिए लेकिन सेल्फ रीयलाइज करने के लिए वो शक्ति और स्टेज आनी चाहिए। दादाश्री : इसमें स्टेज कैसी ? आप पुनर्जन्म में मानते है कि नहीं मानते? पात्रता का प्रमाण ! कभी चिंता कुछ होती है? प्रश्नकर्ता : चिंता तो रहती ही है। दादाश्री : एक साल में कितना टाइम? दो टाइम? प्रश्नकर्ता : चिंता तो रोज ही होती रहती है। दादाश्री : किस लिये चिंता करते हो? कुछ कम है आपके पास? प्रश्नकर्ता : भगवान की दया से सब कुछ है। दादाश्री : तो फिर चिंता क्यों करते हो? प्रश्नकर्ता : प्रोफेशन (व्यवसाय) में तो चिंता आ ही जाती है। प्रश्नकर्ता : मानता हूँ। दादाश्री : जो पुनर्जन्म में मानते हैं, वो स्टेजवाले बोले जाते हैं। जो पुनर्जन्म में समझते नहीं, उनके लिए स्टेज नहीं है। हमने इन सभी को सेल्फ रीयलाइज करा दिया है, फिर कभी कुछ भी चिंता नहीं होती और धंधा-सर्विस सब कुछ करते हैं। प्रश्नकर्ता : संसार में ऐसा नहीं हो सकता है। दादाश्री : संसार के बाहर दूसरी जगह किधर है? संसार के बाहर तो कोई जगह ही नहीं है। प्रश्नकर्ता : जब तक संसार है, तो हम सेल्फ रीयलाइज नहीं कर सकते। उसके लिए संसार से अलग होना चाहिए। दादाश्री : संसार से अलग कोई हुआ ही नहीं था। कृष्ण भगवान भी संसार में पत्नी के साथ रहते थे। You are Ravindra is correct by relative view point and who are you by real view point ? दादाश्री : waste of time and energy. बड़े C.A. हो गये ! C.A. तो किसको बोला जाता है? जो बहुत विचारशील होते है, कि ये सब किससे होता है? मैं कौन हूँ? ये सब क्या है? कहाँ से आया? कैसे मैं C.A. हो गया? C.A. कौन हो गया? ये सब रीयलाइज होना चाहिए। प्रश्नकर्ता : रीयलाइजेशन के लिए, खुद कौन है वो समझने की अपनी ताकत नहीं। प्रश्नकर्ता : who is to judge that ? रीयल में कौन होना चाहिए? दादाश्री : वो जो रीयल है न, वो समझ सकता है। जो रिलेटिव Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध ४५ है न, वो समझ नहीं सकता और जिसने रीयलाइज किया है, वो समझ सकता है। आप रवीन्द्र हैं, वो बात सच्ची है? वो तो आपका नाम है, आप खुद कौन है? प्रश्नकर्ता : No body ! दादाश्री : No body ? No body ऐसा नहीं बोला जाता है। खुद तो हैं ही, लेकिन आप बोलते हैं न, 'This is my hand, This is my head, my eyes'. ऐसा आप बोलते हैं, तो बोलनेवाले आप कौन हैं? ऐसी तलाश तो करनी चाहिए न ? No body बोल नहीं सकते। तो आप खुद कौन है, इसका रीयलाइज नहीं किया है? ये घड़ी रीयलाइज करके लाये थे? घड़ी चलती है कि नहीं चलती है ? प्रश्नकर्ता: हाँ। : दादाश्री और वाइफ को रीयलाइज किया था कि नहीं? प्रश्नकर्ता: हाँ, किया था । दादाश्री : तो आपको खुद का रीयलाइज तो करना चाहिए कि नहीं करना चाहिए? आपने किया है? कौन है आप ? प्रश्नकर्ता: मैं आत्मा हूँ। दादाश्री लेकिन अनुभव है आपको? : प्रश्नकर्ता: नहीं, अनुभव नहीं है। दादाश्री : तो ऐसा आप नहीं बोल सकते। अनुभव होना चाहिए। प्रश्नकर्ता: ये ही तो मुश्किल है, अनुभव। दादाश्री : अनुभव कराने के लिए कितने पैसे खर्च हो जाये तो ४६ चलेगा? आत्मबोध प्रश्नकर्ता: समझने में पैसों का सवाल नहीं आता। दादाश्री : नहीं आता न? तो पैसे का सवाल किसमें आता है? सिनेमा देखने में? सिनेमा देखने को तीन रुपये माँगता है न? और मूली का भी दस पैसा लेता है न? वो मूल्यवान बोली जाती है और ये अमूल्य है, इसका पैसा भी नहीं रहता। तो भगवान कितने फायदावाले (कृपालु) हैं? कोई परेशानी नहीं, कोई खर्च नहीं भगवान की प्राप्ति होना बहुत सरल बात है। हम ज्ञान नहीं देते हैं, वहाँ तक आत्मा और देह जोइन्ट रहते हैं, अलग नहीं होते है। हम ज्ञान देते है, तब आत्मा और देह अलग हो जाता है। प्रश्नकर्ता: हमको कैसे पता लगेगा कि अलग हो गये? दादाश्री : वो आपको खयाल में आ जायेगा कि 'मैं शुद्धात्मा हूँ' और वो याद नहीं करना पड़ेगा। ऐसे ही खयाल में आ जायेगा । आपको कोई बोले कि 'रवीन्द्र ने हमारा बुरा कर दिया है, ' तो आपको कुछ पज़ल होता है क्या ? प्रश्नकर्ता: पज़ल तो होगा न? दादाश्री : फिर सोल्यूशन कैसे होता है? फिर ऐसे ही पेंडिंग रहता है? The world is the puzzle itself, there are two view point to solve this puzzle, one Relative view point and one Real view point. ये पज़ल सोल्व हो जाये फिर आप खुद कौन हैं, वो मालूम हो जाता है। प्रश्नकर्ता : रीयल व्यू पोइंट और रिलेटिव व्यू पोइंट क्या है ? Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध दादाश्री : All these Relatives are temporary adjustment and Real is the permanent. प्रश्नकर्ता : But what are these adjustments? दादाश्री : ये आपका जो शरीर है, ये हाथ है, ये सब एडजस्टमेन्ट हैं, वो सब रिलेटिव हैं। प्रश्नकर्ता : आप कहते हैं कि हम में और आप में कुछ फर्क नहीं है। दादाश्री : कोई फर्क नहीं है। मैं खुद को पहचानता हूँ और आप खुद को पहचानते नहीं है, वो ही फर्क है। दूसरा कोई फर्क नहीं है। प्रश्नकर्ता : मैं तो खुद को पहचानता हूँ। दादाश्री : नहीं, आप खुद को नहीं पहचानते। आप तो बोलते है कि, 'मैं रवीन्द्र हूँ'। वो तो रोंग बिलीफ है। Ravindra is correct by relative view point. you are brother of your sister is correct by relative view point, not by fact. प्रश्नकर्ता : क्यों? This is fact because I am borned to the same mother! By Relative view point you are Ravindra & Real view point आप क्या है, वो ही समझने की जरुरत है। You are Ravindra is correct by Relative view point & by Real view point you are pure soul (Shuddhatma). लेकिन आपको रीयलाइज नहीं हुआ, वहाँ तक आप कैसे शुद्धात्मा हो जायेंगे? वहाँ तक रवीन्द्र की डाक आप ले लेंगे। ये 'अशोक' है लेकिन वो 'अशोक' की डाक अलग है और उनकी खुद की पोस्ट अलग है। आपको कोई रवीन्द्र के नाम की गाली दे तो आप वो डाक ले लेते हैं, क्योंकि आप रवीन्द्र को ही पहचानते हैं, कि मैं रवीन्द्र हूँ। Real view point & Relative view point समझ जायें तो दुनिया में कोई बाधा नहीं आयेगी। ऐसा महावीर भगवान का विज्ञान है, चौबीस तीर्थंकरों का विज्ञान है। आपको कुछ भी छोड़ देने का नहीं है। बात ही समझने की है कि ये डाक इसकी है और ये डाक मेरी है। दादाश्री : But It is correct by relative view point, not by real view point ! and this is only temporary adjustment! You are permanent. लेकिन वो आपको मालूम नहीं। आप बोलेंगे कि 'मैं रवीन्द्र हूँ, अभी जवान हूँ।' फिर वृद्ध हो जायेंगे, क्योंकि रवीन्द्र टेम्पररी एडजस्टमेन्ट है। दो लेंग्वेज हैं। एक रिलेटिव लेंग्वेज है, एक रीयल लेंग्वेज है। रीयल लेंग्वेज 'ज्ञानी पुरुष' सारी दुनिया में अकेले ही जानते हैं। सब लोग रिलेटिव लेंग्वेज जानते हैं। Relative language is temporary adjustment and Real language is permanent adjustment ! रिलेटिव लेंग्वेज में दुनिया के लोग क्या बोलते हैं, 'God is the creator of this world' और ऐसा ही सारा जगत मानता है। लेकिन वो रिलेटिव करेक्ट है, रीयल करेक्ट बात नहीं है। सभी अपने व्यू पोइंट से सच्चे है, नोट बाय फैक्ट. व्यू पोइंट, वो फैक्ट नहीं है। By real language, the world is the puzzle itself! वो रीयल करेक्ट है। रीयल करेक्ट जानो तो मोक्ष मिलता है। आपके अंदर है, वो खुद ही परमात्मा है। वो परमात्मा आपकी समझ में आ जाये, तो फिर आप भी परमात्मा हो जाते हैं। जहाँ तक आप रवीन्द्र हैं, वहाँ तक वो समझ में नहीं आयेगा। अभी तो आपको 'मैं रवीन्द्र हूँ' वो ही एक्सपिरियन्स हुआ है। जब 'मैं शुद्धात्मा हूँ' वो एक्सपिरियन्स हो जाये तो, सब काम पूरा हो गया। आप रवीन्द्र नहीं है। जो आप नहीं है, लेकिन वहाँ आप बोलते है कि, 'मैं रवीन्द्र हूँ', वो आरोपित भाव है, कल्पित भाव है। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध तो रीयलाइज किसका करने का? रीयल का रीयलाइज करने का! रिलेटिव को रीयलाइज करने में कोई फायदा नहीं है। प्रश्नकर्ता : असली ज्ञान तो रीयल का ही है न? दादाश्री : हा, दरअसल तो है। लेकिन वो चार अरब की बस्ती में 'ज्ञानी पुरुष' अकेले ही जानते हैं। दूसरा कोई आदमी जान सकता ही नहीं। पुस्तक में ऐसी बात लिख नहीं सकते, क्योंकि वो बात अवर्णनीय है, अवक्तव्य है। आत्मा जो है, उसका वर्णन हो सके ऐसा नहीं है। लगते। जैसे वो ओपरेशन के लिए छ: घंटे बैठना पड़ता है, इधर तो एक घंटे में ओपरेशन कर देते हैं, within one hour only! हम सभी लोगों को ज्ञान दे सकते हैं, जैन हो, वैष्णव हो, मुस्लिम हो, पारसी हो या कोई भी हो! प्रश्नकर्ता : वहाँ भी तो कोई अंतर नहीं है। दादाश्री : हाँ, उधर तो कोई मतभेद ही नहीं होता है। सब मतभेद रिलेटिव के अंदर है, रीयल के अंदर कोई मतभेद नहीं है। एक दफे रीयल का रीयलाइज हो गया फिर मुक्ति हो गई। प्रश्नकर्ता : रीयल को रीयलाइज करना कोई आसान बात थोड़ी है? दादाश्री : वो कभी होता ही नहीं। कभी 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाते है, तो उनके पास होता है। 'ज्ञानी पुरुष' प्रत्यक्ष मिले और उनकी कृपा से मिल जाता है। 'ज्ञानी पुरुष' में भगवान प्रगट हो गये हैं, चौदह लोक के नाथ प्रगट हो गये हैं। लेकिन हम तो निमित्त हैं, हम कर्ता नहीं हैं। निमित्त से सब कुछ काम होता है। The world is the puzzle itself. ये पज़ल जो सोल्व करे, उसको परमात्मा पद की डिग्री मिलती है। हम ये पज़ल सोल्व करके बैठे है। जिसका पज़ल सोल्व हो गया है, वो सब का पज़ल सोल्व करा सकते हैं। जिसका पजल सोल्व नहीं हुआ, वो सब ये पज़ल में डिजोल्व हो गये हैं। पज़ल सोल्व कर दिया कि सारे ब्रह्मांड के उपर बैठ गया। The world is the puzzle itself, ये पहेली दफे ऐसा वाक्य निकल गया है, ऐसा कोई बोला ही नहीं। नया ही वाक्य, नयी ही बात, नया ही सायन्स है। ये बेसमेंट ही नया है। किसी दिन जगत जब ये बात सुनेगा, तब सब लोग आफ्रीन हो जायेंगे। प्रश्नकर्ता : वो रीयल ज्ञान कैसे प्राप्त करना है? दादाश्री : 'ज्ञानी पुरुष' है, उनके पास जाकर आपको बोलने का कि 'हमको रीयल का रीयलाइज करा दो', तो वो करा देंगे। प्रश्नकर्ता : करा देंगे? प्रश्नकर्ता : आप बताते हैं कि आप निमित्त हैं, लेकिन आपकी ही वजह से हमारा सब का काम हो जाता है। दादाश्री : वो बात ठीक है। मेरी समझ में तो मैं निमित्त हूँ, लेकिन आप सभी को मुझे निमित्त नहीं मानना चाहिये। आप निमित्त मानेंगे, तो आपका पूरा काम नहीं होगा। आत्मज्ञान प्राप्ति कैसे? दादाश्री : हाँ, सब कुछ कर सकते हैं। प्रश्नकर्ता : तुरंत करा देगें? दादाश्री : हाँ, तुरंत, तुरंत ! छः महिने नहीं लगते, दो दिन भी नहीं आत्मा को समझो फिर दुःख कहीं भी नहीं है। आत्मा आपकी समझ में आ जाये, दर्शन में आ जाये, फिर काम पूर्ण हो गया। इतना ही समझने का है। बड़े शास्त्र के उपर भी वो ही लिखते हैं, आत्मा जानने की है। दूसरा क्या लिखते हैं? वो ही बात समझने की है, कोई Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध ५२ आत्मबोध आत्मा क्या चीज है? आत्मा वो ही परमात्मा है। वो ही खुद है। आत्मा जान ली तो दूसरा कुछ जानने का नहीं रहता है। आत्मा अलख निरंजन है, उसका लक्ष्य बैठ गया कि सब काम पूरे हो गये। भी रस्ते भगवान को पकड़ लो! सब साध-सन्यासी भगवान की ही खोज करते है, लेकिन उनके हाथ में मैकेनिकल आत्मा आयी है। ये फिजिकल शरीर है, उसके अंदर मैकेनिकल आत्मा है। वो मैकेनिकल आत्मा को 'आत्मा' मानते है। वो ठीक बात नहीं है, पूरी बात नहीं है। आत्मा तो अचल है, अविचल है। वो सेल्फ का रीयलाइज कभी हुआ ही नहीं और जो सेल्फ रीयलाइज किया है, वो रोंग किया है। सच्चा रीयलाइज किया, फिर परमात्मा हो जाता है। ये शरीर दिखता है न, वो चेतन नहीं है। चेतन चेतन ही है। ये शरीर जो सारे दिन धंधा करता है, पानी पीता है, शादी करता है, संसार में जो कुछ करता है, वो सब में चेतन कुछ भी नहीं करता है। उसमें चेतन है ही नहीं। वो जो करता है, वो सिर्फ ड्रामेटिक पुतला है, दूसरा कुछ नहीं है और उसको ही मानता है कि, 'मैं हूँ, मैं हूँ' वो ही माया है। दूसरी कोई माया नहीं है। जिधर खुद नहीं है, वहाँ 'मैं हूँ' बोलते है और जिधर है, उधर कुछ ख़बर नहीं, मालूम ही नहीं है। ___ आत्मा प्राप्त करने के लिए लोग बाहर भटकते हैं। लेकिन वो कैसे मिले? जिसको आत्मा मिला है उनके पास जाओ, तो वो आपकी आत्मा जो अंदर है, उसे खुल्ली (प्रकट) कर देते है। हम हमारा देते ही नहीं, आपका ही लेने का है। लेकिन आपको खयाल नहीं है कि किधर है, वो हम बता देते है। खुद कौन है, ऐसे खुद के स्वरुप का भान नहीं हुआ है, वहाँ तक 'मैं करता हूँ' वो भान नहीं जाता। ये जगत में विकट में विकट कुछ है, तो वो आत्मा जानने की बात बहुत विकट है। आत्मा के लिए सब लोगों ने अलग अलग कल्पना की है। आत्मा कल्पित नहीं है। आत्मा कल्पना स्वरूप नहीं है। जैनों ने अलग कल्पना की है. वेदांत ने भी अलग कल्पना की है। वेदांत ने तो बोल दिया कि 'This is not that, this is not that !' आत्मा जानना है, तो वो इसमें (वेद में) नहीं है, गो टु 'ज्ञानी'। 'ज्ञानी' के पास आत्मा है। दूसरी कोई जगह पर आत्मा नहीं हो सकती। आत्मा तो सब जगह पर है, लेकिन आत्मज्ञान नहीं है। ये शरीर अपना नहीं है, मन अपना नहीं है, ये वाणी भी अपनी नहीं है। और जो अपना नहीं है उसको 'मेरा है, मेरा है' करता है, इससे कर्मबंधन होता है, इससे संसार चालू रहता है। बुरा करता है तो बुरे फल भुगतने पड़ते हैं। उससे अच्छा करना वो अच्छी चीज है। लेकिन अच्छा करना वो भी भ्रांति है। उससे अच्छा फल मिलेगा लेकिन मुक्ति नहीं मिलेगी। आत्मा क्या है? वो तो क्षेत्रज्ञ है। क्षेत्रज्ञ याने क्षेत्र को जाननेवाला है। दूसरा कुछ करनेवाला नहीं है। सब क्षेत्र को जाननेवाला, सभी चीजों को जाननेवाला है। लेकिन पहले आत्मा का भान होना चाहिये। एक बार आत्मा का भान हो गया तो फिर आगे सब कुछ हो सकता है। आत्मा क्या चीज है, वो कभी स्पष्ट नहीं हुआ। जब 'ज्ञानी' होते हैं, तभी सब चीज स्पष्ट होती है। सारी दुनिया के पज़ल सोल्व हो जाते हैं। आत्म अनुभव : ज्ञान से या विज्ञान से ? प्रश्नकर्ता : ज्ञान क्या चीज है? दादाश्री : ज्ञान दो प्रकार के रहते हैं। एक ज्ञान, जो कुछ नहीं कर सकता है, वो शब्दज्ञान। शास्त्र के अंदर, पुस्तक के अंदर, वेदान्त के अंदर जो ज्ञान है, उसे जान लिया लेकिन वो ज्ञान क्रियाकारी नहीं है। और दूसरा ज्ञान है, वो ज्ञान ही काम करता है। अपना 'खुद' का ज्ञान जान लिया, वो क्रियाकारी ज्ञान है। प्रश्नकर्ता : क्षर ज्ञान ऊँचा है या अक्षर ज्ञान? Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध मेरा है, ये तेरा है, यही चल रहा है। दादाश्री : वो ठीक बात है लेकिन आप जैसा बोलते हैं, वो तो व्यवहार के लिए बोलने का है, सचमुच नहीं बोलने का है। तो आप तो सचमुच बोलते हैं। इनका नाम पूछेगे तो बोलेंगे कि 'रवीन्द्र'. लेकिन वो अंदर खुद समझता है कि, 'व्यवहार चलाने के लिए मेरा नाम है, मैं खुद ये नहीं हूँ।' वो ड्रामेटिक रहता है और आप तो सच में ही करते दादाश्री : क्षर ज्ञान तो ये डाक्टर के पास है, वकील के पास है, वो तो सबके पास है। तो अक्षर ज्ञान इनसे बड़ा है और इनसे भी बड़ा अन्-अक्षर ज्ञान है। हम जो ज्ञान देते है, वो अन्-अक्षर ज्ञान है। प्रश्नकर्ता : लेकिन अन्-अक्षर तो नेगेटिव हुआ न? दादाश्री : नहीं, अन्-अक्षर याने जहाँ शब्द भी नहीं है। नि:शब्द। अक्षर याने शब्द, अक्षर जितना है वो शब्द से परमानेन्ट है और वहाँ तो शब्द से परमानेन्ट नहीं चलेगा। ये 'शक्कर मीठा है' वो शब्द से परमानेन्ट है, लेकिन वो बोलने से अपने को मीठा स्वाद आयेगा? अक्षर ऐसा है। और 'ज्ञानी पुरुष' मीठा याने क्या, वह टेस्ट करा देते हैं। इधर आध्यात्मिक विज्ञान है। आध्यात्मिक विज्ञान पुस्तक में नहीं मिलता है। वो पुस्तक में होता ही नहीं। पुस्तक में तो आध्यात्मिक ज्ञान होता है। जैसा ड्रामा में भर्तृहरि राजा है, तो वो, 'हम भर्तृहरि राजा है, ये मेरा राज है, ये मेरी रानी है।' ऐसा बात करेगा और फिर 'भिक्षा दे मैया पिंगला' ऐसा भी बोलता है, रोता है। तो सब लोगों को दु:ख होता है, कि ओहोहो, ये कितना दु:खी हो गया। उसको खानगी में (व्यक्तिगत रुप से) पूछेगे तो वो बोलेगा कि, 'नहीं भई, हमको कुछ दुःख नहीं है, ये तो हमको भर्तृहरि का अभिनय करना पड़ता है। अभिनय नहीं करेगा तो पगार में से पैसा काट लेगा। मैं भर्तृहरि नहीं, मैं तो लक्ष्मीचंद हूँ।' तो क्या वो 'मैं लक्ष्मीचंद हूँ' ऐसा कभी भूल जाता है? प्रश्नकर्ता : ज्ञान और विज्ञान में फर्क क्या है? दादाश्री : ये जो आम है, वो कैसा लगता है? मीठा लगता है न? तो 'आम मीठा है।' ऐसा ज्ञान पुस्तक से होता है। लेकिन मीठा क्या है? वो पुस्तक में नहीं होता है, वो विज्ञान है। 'मीठा है' वो क्या चीज है, ये मीठा कैसा है, वो पुस्तक में नहीं होता, वो अध्यात्म विज्ञान बोला जाता है। ड्रामा कभी सच हो सकता है ? दुनिया में इतनी ही बाबत है - वांधा (विरोध), वचका (दखल) और अज्ञान मान्यता। 'मैं रवीन्द्र हूँ, मैं इनका फादर हूँ' ये सब बोलते हैं न, वो अज्ञान मान्यता है, रोंग बिलीफ है। राइट बिलीफ होनी चाहिये। प्रश्नकर्ता : लेकिन अभी तो सब अज्ञान में ही घूम रहे हैं, ये प्रश्नकर्ता : नहीं भूलेगा। दादाश्री : और आप खुद कौन हैं, वो भूल गये हैं। पहले मैं खुद कौन हूँ, वो जानना चाहिए, फिर ड्रामेटिक रहना चाहिए। व्यवहार का निरीक्षक-परीक्षक कौन ? दादाश्री : आप कौन हैं? प्रश्नकर्ता : आत्मा। दादाश्री : हाँ, बराबर है। अभी कोई आदमी आप को गाली दे तो आपको इफेक्ट होती है? प्रश्नकर्ता : व्यवहार में होती है। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ E आत्मबोध आत्मबोध है। वो प्रकाश नहीं है। प्रकाश तो ये है कि, 'मैं खुद आत्मा हूँ, शुद्धात्मा हूँ' और इससे प्रकाश हो जाता है। उस प्रकाश से सब देख सकते हैं। दादाश्री : तो आप आत्मा नहीं है, आप रवीन्द्र हो गये। जो आत्मा है, तो इसको गाली नहीं लगती। पुद्गल की डाक आत्मा लेनेवाला नहीं है। आत्मा की डाक पुद्गल लेनेवाला नहीं। दोनों की डाक अलग है। हमको कोई गाली दे, कुछ भी करे, तो वो हम नहीं है। वो पुद्गल है, A.M.Patel है। ये A.M.Patel के साथ हमारा छब्बीस साल से क्या संबंध है? पहला पडौसी हो ऐसा। और उसका मालिक मैं नहीं हूँ, मेरा मालिक ये पुद्गल नहीं है, हम दोनों पडौसी हैं। हम देखकर बोलते हैं, पुस्तक में पढ़कर नहीं बोलते हैं। हमको लोग पूछते है कि, आप कहाँ से बोलते हैं। मैंने कहा कि मैं देखकर बोलता हूँ। ये बात, इधर का एक शब्द भी पुस्तक में से पढा हुआ नहीं है। ये 'अक्रम विज्ञान' है। दुनिया में दस लाख साल में एक दफे होता है। नहीं तो, ऐसा अक्रम तो होता ही नहीं। इसमें तप-त्याग कुछ करने का नहीं। 'अक्रम ज्ञानी' के पास आ गया, उसका सब काम पूरा हो गया। ये बोलता है, वह कौन है? ये ओरिजिनल टेपरेकर्ड है। हम इस वाणी के छब्बीस साल से मालिक नहीं हैं। हम खुद में ही रहते हैं, होम डिपार्टमेन्ट में ही रहते है। फोरेन डिपार्टमेन्ट में जाते ही नहीं। फोरेन की बात चल रही है. वो सब हम देख रहे हैं। व्यवहार में सब फोरेन ही है। प्रश्नकर्ता : व्यवहार में सब फोरेन कैसे है? दादाश्री : वो सब फोरेन ही है। आप फोरेन को होम मानते हैं। लेकिन वो तो फोरेन है, तो होम का काम कब होगा? हम तो होम में रहते हैं और फोरेन का भी काम करते हैं। अभी फोरेन का काम चल रहा है, इसके पर हम देखभाल रखते हैं। निरीक्षक रहते हैं और परीक्षक भी रहते हैं। ये टेपरेकर्ड क्या बोल रही है, उसके हम परीक्षक भी हैं। हम जुदा, ये जुदा। महत्वता, भौतिक ज्ञान की या स्वरूप ज्ञान की ? आप जिसको ज्ञान कहते हैं, वो लाइट सच्ची लाइट नहीं गीनी जाती है। सच्ची लाइट हो जाती है, तो उसके पर सब को आकर्षण हो जाता है और कायम की अंतर शांति भी हो जाती है। इसलिए पहले आत्मा का ही ज्ञान जानना। दूसरा सब जानते हैं तो ठीक बात है पर पहले ये लाइट हो गयी तो सभी (प्रकार के ज्ञानप्राप्ति की) तैयारी हो जाती है। तुम्हारे को जो जानने का था, वो सब ज्ञान अभी खुल्ला (प्रकट) हो जायेगा। लेकिन सच्चा जानने का क्या था? अपना खुद का स्वरूप, वो ही प्रकाश है और दुनिया में उस प्रकाश से ही सब दिखता है और प्रकाश के बिना जो देखा, वो बुद्धि से देखा है। प्रकाश से देखी हुई बात सच्ची है। बुद्धि से देखी हुई बात सच्ची नहीं है। बुद्धि जो बढ़ गई तो बुद्ध हो जाता है। फिर एकदम बुद्ध की तरह फिरता है। इसलिए बुद्धि का बहुत फायदा नहीं। हमने बुद्धि छोड़ दी, हम अबुध है। हमको बुद्धि इतनी भी नहीं है, हम तो 'ज्ञानी' है। बुद्धि से क्या होता है? इमोशनल होता है। फिर इमोश्नल से आदमी बुद्धू हो जाता है। बुद्धि संसार के बाहर निकलने नहीं देती। बुद्धि तो क्या बताती है? मुनाफा और घाटा। ज्ञानप्रकाश ही सच्ची बात है। हमने आपको जो ज्ञानप्रकाश दिया है, उससे आपको दूसरा सब ज्ञान हाथ में आ जायेगा और वो सब पूरा हो जायेगा। प्रश्नकर्ता : मुझे Numerology, Astrology का ज्ञान थोड़े समय में खुलनेवाला है, ऐसा मुझे लगता है। दादाश्री : आत्मा का ज्ञान खुल (प्रकट हो) जाये तो सब ज्ञान खुल जाते हैं। आत्मा का ज्ञान वो ही ज्ञान है, वो ही प्रकाश है, जिससे सब प्रकाश हो जाता है। Numerology, Astrology वो सब सब्जेक्ट Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध ५७ आत्मबोध हिन्दुस्तान में सभी प्रकार की विद्या है, ज्ञान नहीं है। कितने प्रकार की विद्या है और कितने प्रकार की अविद्या है, लेकिन वो ज्ञान नहीं है। प्रश्नकर्ता : ज्ञान तो विद्या-अविद्या से आगे की बात है न? दादाश्री: विद्या-अविद्या वो अहंकारी ज्ञान है और (आत्म)ज्ञान तो निरअहंकारी ज्ञान है। जहाँ तक अहंकारी ज्ञान है वो विद्या है। आप को कुछ भी अहंकारी ज्ञान है, वो सब विद्या है और निरअहंकारी ज्ञान तो ज्ञान है। उसका भेद तो समझना चाहिये कि ज्ञान क्या चीज है, विद्या क्या चीज है, अविद्या क्या चीज है? अविद्या से दुःख होता है और विद्या से सुख होता है और ज्ञान से हम 'खुद' ही होते हैं। ज्ञान-अज्ञान का भेद ! प्रश्नकर्ता : ज्ञान एक है कि अलग अलग है? दादाश्री: सभी जीवों के अंदर ज्ञान है, वो ज्ञान एक ही है। लेकिन निकलता सूर्य है वो भी सूर्य है और डूबता सूर्य है वो भी सूर्य है। वो सर्य तो एक ही है, ऐसे ही ज्ञान भी एक ही है। धर्म का ज्ञान है और अधर्म का भी ज्ञान है, लेकिन ज्ञान एक ही है। धर्म और अधर्म तो आपको लगता है, हमें ऐसा नहीं लगता। हम तो एक ही, ज्ञान ही देखते हैं। आपको तो द्वन्द्व है न? प्रश्नकर्ता : जो सत्मार्ग पर चलता है, उसको ज्ञान कहते हैं और जो कुमार्ग में चलता है, उसको अज्ञान कहते हैं। अज्ञान याने इनके पास ज्ञान नहीं है। दादाश्री : ऐसा भगवान ने नहीं बोला है। ज्ञान-अज्ञान का भेद किया है, वो कहाँ तक भेद है, उसको मैं बता दूँ। जो धर्म जानता है, अच्छे काम करता है वो भी ज्ञान है और जो बुरे काम करता है, वो भी ज्ञान है, लेकिन दोनों 'अज्ञान' ही हैं। आत्मा जान लिया, खुद को जान लिया, वो ज्ञान ही 'ज्ञान' है। ये ज्ञान-अज्ञान का भेद मैंने बताया। लेकिन अज्ञान ये भी ज्ञान है। प्रश्नकर्ता : जब अज्ञान ही रहे तो आत्मा क्या जानेगा? दादाश्री : नहीं, 'अज्ञान' वो कोई खराब चीज नहीं है, वो भी ज्ञान है। जैसे डूबता सूर्य है और निकलता सूर्य है, वो सूर्य ही है। आत्मा का स्वरुप जाना, वो ही 'ज्ञान' बोला जाता है। आत्मा का स्वरुप नहीं जाना, लेकिन बाकी सब चीज जाना तो फिर वो 'अज्ञान' बोला जाता है। आत्मा के अलावा सब चीज जाने तो वो 'अज्ञान' बोला जाता है। ऐसे इसका भेद बताया है, लेकिन जानपना (स्वयं को जानना) वो ज्ञान ही है और वो ही आत्मा है। ज्ञान है, वो ही आत्मा है, दुसरा कोई आत्मा नहीं। आत्मा ऐसे हाथ में पकड़ा जायें ऐसी चीज नहीं है। वो तो आकाश जैसा है। आकाश जैसा सूक्ष्म है। क्या आप 'अपने' धर्म में हो ? प्रश्नकर्ता : मनुष्य का लक्ष्य तो आत्मसाक्षात्कार ही है न? दादाश्री : हाँ, आत्मसाक्षात्कार के लिए ही ये मनुष्य देह मिला है और वो भारत में ही होना चाहिए, दूसरी जगह पर नहीं। भारत के अलावा दूसरे सभी देशों के लोग पुनर्जन्म भी नहीं समझते हैं। भारत देश में पुनर्जन्म खुद तो समझ जाते हैं, लेकिन दूसरों को नहीं समझा सकते है कि पुनर्जन्म है। प्रश्नकर्ता : गीता में कहा है कि, मझे तत्त्व से जो कोई जानेसमझे तो फिर उसका पुनर्जन्म नहीं होता। दादाश्री : हाँ, वो क्या बोलते हैं कि 'मेरे को तत्त्व से जो जानता है, उसको पुनर्जन्म नहीं होता है।' तत्त्व को जानने से सब वीकनेस चली जाती है, क्रोध-मान-माया-लोभ सब चले जाते हैं। गीता आपने पढ़ी है? उसमें बताया है न कि, "सर्वधर्मान् परित्यज्य, माम् एकम् शरणम् व्रज।" वो कौन से Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध धर्म को परित्यज्य बोलते है? प्रश्नकर्ता : दुनिया में जो सब धर्म है वो सब को। दादाश्री : वो कौन से, कौन से धर्म है? प्रश्नकर्ता : क्रिश्चियन, इस्लाम, हिन्दू आदि वो सब धर्म। दादाश्री : और कौन से? प्रश्नकर्ता : और मानवधर्म को भी धर्म बोलते हैं, वो सबको छोड़ के मेरी शरण में आ जा। दादाश्री : वो ऐसा नहीं बोलते हैं। वो क्या बोलते हैं? यह कान है, उसका धर्म क्या है? प्रश्नकर्ता : सुनने का। दादाश्री: सुनने का कान का ही धर्म है कि आपका खुद का धर्म है? प्रश्नकर्ता : कान का धर्म है। दादाश्री : और देखने का? प्रश्नकर्ता : आँख का। दादाश्री : और सूंघने का? प्रश्नकर्ता : नाक का। दादाश्री : और स्पर्श का? नहीं बोलती है, लेकिन जो अज्ञानता है न, 'अज्ञान आत्मा' वो क्या बोलती है कि 'हम सुनते हैं, हम देखते हैं, हम खाते हैं, ऐसा हम, हम करता है।' जो कान का धर्म है, वो आपका धर्म नहीं है। उसके पर आरोप मत करो। आप खुद के धर्म में आ जाओ। फिर माइन्ड का धर्म क्या है? माइन्ड का सिर्फ विचार करने का. सोचने का ही धर्म है और बोलता है कि 'मैंने विचार किया।' बुद्धि का धर्म क्या है? डिसीज़न लेने का है। कोई भी चीज आयी तो उसका डिसीजन करने का तो बुद्धि का धर्म है। लेकिन सब लोग बोलते है कि 'ये डिसीज़न मैंने लिया।' चित्त का धर्म क्या है? चित्त का धर्म फिरने का है। माइन्ड तो शरीर के बाहर कभी निकलता नहीं। चित्त ही बाहर निकलता है और चित्त वहाँ ऑफिस में जाकर टेबल-टेलीफोन सब देख सकता है, देखकर वापस आता है। और ईगोइज्म का धर्म क्या है? आप कुछ करेंगे न, वो सब ईगोइज्म का धर्म है, लेकिन वो 'आत्मा' बोलता है कि, 'ये मैंने किया।' ऐसा ये पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय हैं और मन-बुद्धि-चित्त और अहंकार, वो सब अपने धर्म में ही हैं। वो सब धर्म को 'आत्मा' बोलती है कि 'ये सब मेरा ही धर्म है।' इसलिए 'सर्व धर्म परित्यज्य और आप अपने खुद के धर्म में आ जाइये' ऐसा बोलते हैं। लेकिन खुद का धर्म कहाँ से (प्राप्त) करेगा? वो आत्मज्ञान बिना नहीं हो सकता और आत्मज्ञान 'आत्मज्ञानी' के बिना नहीं हो सकता। आत्मज्ञान होना चाहिये ऐसा सब जानते हैं, लेकिन 'आत्मज्ञानी' के बिना फिर क्या करेंगे? तो सेल्फ रीयलाइजेशन कर लिया तो फिर आत्मा आत्मधर्म में आ गयी। बाकी तो, वो सब अपने धर्म में ही हैं। संसार में मोक्ष (!) प्रश्नकर्ता : मोक्ष को हमने उच्च कोटि का ही माना है न? प्रश्नकर्ता : त्वचा का। दादाश्री : ये जो ज्ञान है सुनने का, वो कान का धर्म है। उसको 'आत्मा' क्या बोलती है कि, 'हम सुनते हैं।' इसमें 'दरअसल आत्मा' Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध दादाश्री: सुख का सद्भाव तो बहुत समय के बाद आयेगा। हमको आ गया है। ये सब 'महात्माओं' को नहीं आया। लेकिन ये सब को दुःख का अभाव हो गया है। जगत क्या माँगता है? हमको दुःख न हो। बस, दूसरा कुछ नहीं। इस ज्ञान से पहले संसारी दुःख ही नहीं रहते, ऐसा हो जाता है। स्वाभाविक सुख का सद्भाव तो ज्ञानी पुरुष अकेले को ही रहता है। प्रश्नकर्ता : वो कैसे हो सकता है? दादाश्री : ये विज्ञान है। वीतराग विज्ञान है!!! चौबीस तीर्थंकरों का विज्ञान तो इतना बड़ा भारी है। अभी दुनिया ने तो वीतराग विज्ञान का एक अंश भी नहीं देखा। दादाश्री : उच्च कोटि का नहीं, वो ही लास्ट कोटि का है, वो ही अपना धर्म है। अपना खुद का स्वरूप ही मोक्ष है। प्रश्नकर्ता : मोक्ष के लिए सब लोग प्रयत्न कर रहे हैं तो मोक्ष में क्या सुख है? दादाश्री : बंधन का स्वरूप तो मालम होता है, वो बंधन में जब भी उसको रोग होता है, धंधे में घाटा होता है, नुकसान आता है, तब उसको बहुत परेशानी हो जाती है। और धंधे में कभी पैसा मिलता है, तो उसको आनंद होता है। सुख और दुःख - दोनों कल्पित हैं। सच्चा सुख नहीं है। जो काम करने की इच्छा नहीं है, जो काम नहीं करने है, वो काम भी करने पड़ते हैं। कभी बोस कुछ बोल देता है तो भी दिक्कत हो जाती है। कभी फौजदार मिले, दूसरा कोई मिले तो दिक्कत हो जाती है। तो वो फौजदार का अपने को बंधन लगता है। ऐसे गवर्नमेन्ट का बंधन लगता है, इन्कमटैक्स का बंधन लगता है, घर का, औरत का, सब का। जब दिक्कत होती है, तब बंधन लगता है। आपको ये बंधन लगता है कि नहीं? ये बंधन है ऐसी भी जागृति नहीं है सब लोग को?! ये बंधन है ऐसी जागृति खुद को होनी चाहिए। और मोक्ष याने मुक्ति। संसार के बंधन में रहकर भी मुक्ति लगनी चाहिए। प्रश्नकर्ता : मोक्ष याने क्या? दादाश्री : दो प्रकार के मोक्ष हैं। एक, सिद्धगति का मोक्ष है। वहाँ पुदगल नहीं है। वो सच्चा मोक्ष है, बिलकुल सच्चा मोक्ष है, १००% करेक्ट। दूसरा, इधर शरीर के साथ मोक्ष रहता है वो। इसमें भी दो प्रकार के मोक्ष होते है। ये 'ज्ञान' लिया फिर पहला मोक्ष हो गया, संसारी दुःखों का अभाव। कोई भी दु:ख नहीं। कोई गाली दे, कोई मारे तो भी दुःख नहीं होता है और फिर इससे आगे स्वाभाविक सुख का सद्भाव होता है, वो जो हमको हुआ है। __ प्रश्नकर्ता : मोक्ष का आनंद कैसा होता है? कैसे कह सकते हैं कि यह मोक्ष का आनंद है? दादाश्री : वो आनंद अपने को पूरा कब मालूम होता है कि जब बाहर से बहुत उपसर्ग आये या तो बहुत बड़ी दिक्कत आयी उस समय ज्ञान में रहे, वो दुःख होने का समय था लेकिन उस समय दुःख नहीं होता है और अंदर से आनंद होता है, तो वो आत्मा का आनंद है। अभी सत्संग में बातचीत करते हैं और भौतिक कोई चीज नहीं है तो ये जो आनंद है, वो भी आत्मा का आनंद है। इधर अहंकार की तो बातें भी नहीं, सब आत्मा की ही बात है, तो जो आनंद होता है न, वो ही सच्चा आनंद है। वो आनंद पूर्ण रुप से कब मिलता है कि जब चारित्र होता है। संसार में रहकर फिर चारित्र ग्रहण करता है, तब वो आनंद दिखता है। साध्यप्राप्ति में 'आवश्यक' क्या ? दादाश्री : कभी मोक्ष की इच्छा होती है या नहीं? प्रश्नकर्ता : दु:ख का अभाव होगा, तो फिर सुख का सद्भाव तो आयेगा ही। प्रश्नकर्ता : हमारे जैसे आदमी को मोक्षप्राप्ति कहाँ से होगी? हम Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध ६३ तो कुछ धर्मध्यान हो जाये ऐसा करते हैं और आर्तध्यान न हो जाये ऐसा करते हैं। दादाश्री : आपकी बात बिलकुल सच्ची है। आर्तध्यान- रौद्रध्यान बिलकुल नहीं रहना चाहिए । कुछ न कुछ धर्मध्यान रहना चाहिये । लेकिन 'ज्ञानी पुरुष' मिल जाये तो मोक्ष की इच्छा करनी चाहिये। 'ज्ञानी पुरुष' मोक्ष दे सकते हैं। वो मोक्ष में ही रहते हैं। वैसे आम आदमी के जैसे ही दिखते है, लेकिन ये शरीर में वो रहते ही नहीं है, वो देह के पड़ौसी की तरह रहते हैं। वो मोक्ष दे सकते हैं। 'ज्ञानी पुरुष' नहीं मिले, तो कुछ न कुछ हेल्प लेनी चाहिए कि अपने को आर्तध्यानरौद्रध्यान नहीं हो। इसको ही भगवान ने 'धर्मध्यान' बोला है। आपको इसके आगे कुछ जरूरत हो तो हम बता देंगे। प्रश्नकर्ता: आकुलता न हो और निराकुलता रहे, वो ही चाहिये। दादाश्री : बस, बस, निराकुलता वो ही लक्ष्य चाहिये। बराबर है, निराकुलता ही माँगना, जगत सारा आकुल व्याकुल है। जगत के लोगों को निरंतर आकुलता व्याकुलता होती है, शांति नहीं रहती। वो अशांति में नये कर्म पाप के बांधते हैं और शांति हो तो फिर नये कर्म पुण्य के बांधते हैं। लेकिन कर्म बांधते ही हैं और ये महात्मा लोग हैं, उनको हमने 'ज्ञान' दिया है, ये लोग कर्म नहीं बांधते। ये खाना-पीना सब कुछ करते हैं लेकिन कर्म नहीं बांधते हैं। फिर आकुलता - व्याकुलता बिलकुल नहीं होती है, निरंतर आनंद रहता है। क्योंकि छोड़ने के थे अहंकार-ममता, वो छोड़ दिये और ग्रहण करने का था निज स्वरूप, वो ग्रहण कर लिया। जानने का था वो सब जान लिया। हेय, उपादेय, ज्ञेय सब पूरे हो गये। नहीं तो लाख अवतार त्याग करे तो भी आत्मा मिले ऐसी चीज नहीं है और 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से एक घंटे में आत्मा मिल जाती है, क्योंकि 'ज्ञानी पुरुष' को मोक्षदाता बोला जाता है, मोक्ष का दान देने को आये हैं, दान लेनेवाला चाहिये। आत्मबोध हम जो बोलते हैं, उसकी कीमत आपको समझ में आ गई होती तो आप हमें छोड़ते ही नहीं। लेकिन आपको कीमत समझ में नहीं आयी और समझ में नहीं आयेगी। प्रश्नकर्ता: अभी तो संसार का चक्कर है। ६४ दादाश्री : नहीं, संसार का चक्कर तो सब को होता है। लेकिन मिथ्यात्व ज्यादा बढ़ गया है। इससे सच्ची बात सुनने में आये तो भी समझ में नहीं आती। सच्ची बात, धर्म की बात, द्रष्टि में ही नहीं आती। दूसरी ट्रिक की सब बात समझ जायेगा। जिधर ट्रिक कम है, वो धर्म की पूरी बात समझ जाता है। आपके पास सरलता है ? कोमलता, मृदुता, मार्दवता वो सब है ? सरलता किसको बोली जाती है कि जैसा मोड़े ऐसा मुड़ जाता है। आप तो मशीन लाये तो भी नहीं मुड़ सकते हैं। फिर आप क्या करेंगे? प्रश्नकर्ता: हमें तो अभी मिथ्यात्व है न? दादाश्री : नहीं, मिथ्यात्व सब को होता है, लेकिन आपको तो मिथ्यात्व गुणस्थानक है। सबको तो मिथ्यात्व गुणस्थानक भी नहीं, अज्ञ गुणस्थानक है। क्योंकि आप तो जानता हैं कि मोक्ष है, मोक्ष का मार्ग है और वीतराग भगवान मोक्ष ले जानेवाले हैं। इतनी बात आपकी समझ में आ गई है और आपकी श्रद्धा में भी आ गयी है, तो आपको मिथ्यात्व गुणस्थानक हो गया है। दूसरे लोगों को तो मोक्ष में कौन ले जायेगा, वो भी मालूम नहीं। अरे, मोक्ष को समझता ही नहीं । क्या पसंद ? सीढ़ी या लिफ्ट ? प्रश्नकर्ता : मोक्ष में जाने के लिए क्या करना चाहिए? दादाश्री : भगवान ने गीता में, रामायण में बताया है कि मोक्ष में जाने के लिए आत्मा प्राप्त करना चाहिये। लेकिन आत्मा पुस्तक में नहीं लिखी जा सकती। अवर्णनीय है, अव्यक्तव्य है। 'ज्ञानी पुरुष' के पास Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध दादाश्री : ये लिफ्ट मार्ग है। इसमें तप-त्याग कुछ करना नहीं पड़ता। सिर्फ हमारी आज्ञा में ही रहना पड़ता है। ये आज्ञा संसार में किसी तरह अड़चन नहीं करती। एक या दो जन्म में मोक्ष हो जाता है। लेकिन पहला मोक्ष यहाँ ही, इस मनुष्य जन्म में ही होता है। मोक्ष, याने सभी दुःखों का अभाव होना चाहिये। पहला मोक्ष ये है, फिर सब कर्म पूरे हो गये तो सिद्धगति में चला जाता है, वो दूसरा (अंतिम) मोक्ष है। आत्मा है और वो मोक्ष के 'लायसन्सदार' हैं। मोक्ष प्राप्त करने के लिए दो मार्ग हैं। एक क्रमिक मार्ग है और दूसरा अक्रम मार्ग है। चौबीस तीर्थंकरों का जो सायन्स था. वो क्रमिक था। ऋषभदेव भगवान के पास क्रमिक और अक्रम - दोनों मार्ग का ज्ञान था। ऋषभदेव भगवान ने भरत चक्रवर्ती को राज चलाने को कहा था। तब भरत राजा बोलने लगे कि, 'हमारे को भी मोक्ष में जाने का विचार है। हमें भी दीक्षा दे दो। हमको ये चक्रवर्ती का राज नहीं चाहिये।' लेकिन भगवान ने कहा कि, 'नहीं, आपको राज करना पड़ेगा, लड़ाई करनी पड़ेगी, आप निमित्त हो। तो आप राज करो, लड़ाई करो, लेकिन आपको ऐसा ज्ञान दूंगा कि ये सब करते करते भी आपका मोक्ष एक क्षण भी नहीं जायेगा।' वो 'अक्रम विज्ञान' दिया था। तेरहसौ रानियाँ थी. चक्रवर्ती का राज था, लेकिन उनको एक भी कर्म नहीं लगता था। आपको कितनी रानियाँ है? प्रश्नकर्ता : एक ही है। दादाश्री : एक ही रानी है फिर भी उसके साथ झगड़ा होता है?! ऋषभदेव भगवान के वक्त में जो अक्रम मार्ग था, वो ही ये अक्रम मार्ग है, लेकिन अभी उदय आया है और हम उसके निमित्त है। ये 'अक्रम विज्ञान' है। बड़ा सिद्धांत है। भगवान का ज्ञान है, वो ही ये ज्ञान है। प्रकाश तो वो ही है लेकिन मार्ग अलग है। भगवान का 'क्रमिक मार्ग' था, ये 'अक्रम मार्ग' है। क्रमिक मार्ग याने स्टेप बाय स्टेप चढ़ने का। जितना परिग्रह कम कर दिया, उतने स्टेप उपर चढ़ गया और दस हजार स्टेप चढ़ गया तो फिर कोई पहचानवाला मिल गया कि चलो इधर केन्टीन में, तो फिर तीन हजार स्टेप नीचे ऊतर जाता है। ऐसे मोक्ष में जाने के लिए स्टेप चढ़ते-उतरते, चढते-उतरते आगे जाने का। लेकिन मोक्ष में जाने का पूरा रस्ता नहीं मिलता। ये तो लिफ्ट मार्ग निकला है। आपको कौन सा मार्ग पसंद है? सीढ़ी या लिफ्ट ? प्रश्नकर्ता : लिफ्ट ही पसंद आये न? __ 'अक्रम मार्ग' से एक घंटे में आपके सभी पाप भस्मीभूत हो जाते हैं, दिव्यचक्षु मिल जाते हैं और आत्मज्ञान भी मिल जाता है। मुक्तिसख इधर से ही चालू हो जाता है। आप सर्विस भी कर सकते हैं, औरत के साथ घूम-फिर भी सकते हैं, सिनेमा में भी जा सकते हैं !!! संसार आपका ड्रामेटिक चलेगा। और ड्रामेटिक को द्वंद्वातीत बोला जाता है। क्रमिक मार्ग में सब का त्याग (खुद को) करना पडता है। परिग्रह कम करते करते जाना पड़ता है। सब बाह्य परिग्रह खलास हो जाता है, फिर अंदर क्रोध-मान-माया-लोभ का एक भी परमाणु नहीं रहता है। अहंकार में भी एक परमाणु क्रोध-मान-माया-लोभ का नहीं रहता है और संपूर्ण शुद्ध अहंकार होता है, तब 'शुद्धात्मा पद' प्राप्त होता है। 'अक्रम मार्ग' में तो (ज्ञानी पुरुष की कृपा से) एक घंटे में ही तुम्हारे सब क्रोध-मान-माया-लोभ खलास हो जाते हैं और अहंकार संपूर्ण शुद्ध हो जाता है, तब ही आपको निरंतर 'मैं शुद्धात्मा हूँ' ऐसा लक्ष्य में बैठ जाता है!!! 'अक्रम मार्ग' दस लाख साल में एक दफे निकलता है। इसमें जिसको टिकट मिल गई, उसका काम हो गया। प्रश्नकर्ता : लेकिन जो आसानी से मिलता है. उसकी किंमत भी नहीं रहती है न? दादाश्री : लेकिन ये इतनी आसानी से भी मिलता नहीं है न? इसके लिए बहुत पुण्यै की जरूरत है। इसकी टिकट भी लिमिटेड है। ये ज्ञान पब्लिक के लिए नहीं है, प्राइवेट है। टिकट पूरा होने के बाद Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मबोध आत्मबोध किसी को ये ज्ञान नहीं मिल सकता। क्योंकि ये टिकट उसकी पुण्य से मिलती है। ये हरेक के लिए नहीं है। ये तो पुण्य के बदले में मिलती है। ऐसे मुफ्त में नहीं मिलती। कोटि जन्म की पुण्यै हो, तब 'ज्ञानी पुरुष' के दर्शन होते हैं। ने ये अक्रम मार्ग खोल दिया है। हम उसके निमित्त बन गये हैं। ये अक्रम विज्ञान है, वो सब सफोकेशन को फ्रेकचर कर देता है। ये विज्ञान संपूर्ण विज्ञान है और प्रगट विज्ञान है। ये विज्ञान से ही भ्रांति टूट जाती है। सारी दुनिया को अनुकूल आये, ऐसा ये विज्ञान है, बिलकुल अविरोधाभासी है और सैद्धान्तिक है। पूरा सिद्धांत है इसमें और स्याद्वाद भी है, अनेकान्त है, किसी प्रकार का इसमें आग्रह नहीं है। प्रश्नकर्ता : यह ज्ञान प्राप्त करने के लिए हमारे में क्या पात्रता होनी चाहिये? प्रश्नकर्ता : स्याद् को कोई वाद नहीं होना चाहिए। दादाश्री : हाँ, स्याद् में कोई वाद नहीं चाहिये, नहीं तो एकान्तिक हो जायेगा। ये तो अक्रम विज्ञान है, बिलकुल स्याद्वाद है। सब लोगों को, पारसी को, मुस्लिम को, सबको अनुकूल आता है। एकान्तिक का अर्थ ही संसार और स्याद्वाद, अनेकान्त उसका नाम ही मोक्षमार्ग। दादाश्री : हमको मिले वो ही आपकी पात्रता है। बाकी इस कलियुग में कोई पात्र ही नहीं है। 33% से पास होता है। यहाँ तो सब माईनसवाले ही आते है। इस काल में पात्रता कहाँ से लाये? आप मुझे मिले वो ही आपकी पात्रता है। नहीं तो आप कौन से आधार से मुझे मिले? कई लोग को तो मैं सीढ़ी में देखते ही कह देता हूँ कि ये यहाँ आ तो रहा है, लेकिन ये अंदर तक नहीं आ सकेगा। जिसकी पुण्यै हो, वो ही यहाँ आ सकेगा, दूसरा नहीं। शुक्लध्यान इस काल में नहीं है। लेकिन ये 'अक्रम मार्ग' है, अपवाद मार्ग है, इसलिए यहाँ शुक्लध्यान होता है। क्रमिक मार्ग' से इस काल में शुक्लध्यान नहीं होता। 'क्रमिक मार्ग' में अभी धर्मध्यान तक जा सकता है। कई लोग हमको पूछने लगे कि, 'आपने 'अक्रम मार्ग' क्यों निकाला?' तो हमने बोल दिया कि 'क्रमिक मार्ग' का बेसमेन्ट सड़ गया है, इसलिए कुदरत ने ही ये अक्रम मार्ग ओपन किया है। ये मैंने नहीं निकाला। क्रमिक मार्ग का बेसमेन्ट सड़ गया है याने क्या? मन-वचन-काया का एकात्मयोग जब तक है, तब तक क्रमिक मार्ग चल सकता है। मन-वचन-काया का एकात्मयोग, याने मन में जो है, वैसा ही वाणी से बोलता है और वैसा ही वर्तन करता है। ऐसा इस काल में है? मोक्ष में जाने के लिए दो रास्ते ही अलग हैं। मोक्ष के लिए त्याग करने की जरूरत नहीं है। त्याग तो हरेक आदमी से नहीं हो सकता है। वो तो किसी आदमी से ही त्याग हो सकता है। तो जिससे त्याग नहीं हो सकता, उसके लिए तो मोक्ष का दूसरा रास्ता तो है न? भगवान ने सब रास्ते रखे हैं। क्रमिक मार्ग में सब त्याग करते करते मोक्ष जाने का। यह अक्रम मार्ग है, इधर कुछ भी त्याग करने का नहीं है। - जय सच्चिदानंद प्रश्नकर्ता : किसी को भी नहीं। दादाश्री : इसलिए क्रमिक मार्ग आज नहीं चल सकता। तो कुदरत Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौ कलमें १) हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम न दुभाय, न दुभाया जाय या दुभाने के प्रति न अनुमोदना की जाय ऐसी परम शक्ति दो । मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा का किंचित्मात्र भी अहम न दुभाय ऐसी स्यादवाद बानी, स्यादवाद वर्तन और स्यादवाद मनन करने की परम शक्ति दो। २) हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी धर्म का किंचित्मात्र भी प्रमाण न दुभाय, न दुभाया जाय या दुभाने के प्रति न अनुमोदना की जाय ऐसी परम शक्ति दो । मुझे कोई भी धर्म का किंचित्मात्र भी अहम न दुभाय ऐसी स्यादवाद बानी, स्यादवाद वर्तन और स्यादवाद मनन करने की परम शक्ति दो । ३) हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी उपदेशक साधु, साध्वी या आचार्य का अवर्णवाद, अपराध, अविनय न करने की परम शक्ति दो। ४) हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा के प्रति किंचित्मात्र भी अभाव, तिरस्कार कभी भी न किया जाय, न कराया जाय या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाये ऐसी परम शक्ति दो । ५) हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा के साथ कभी भी कठोर भाषा, तंतीली भाषा न बोली जाय, न बुलवाई जाय या बुलवाने के प्रति अनुमोदना न की जाय ऐसी परम शक्ति दो। कोई कठोर भाषा, तंतीली भाषा बोले तो मुझे मृदु-ऋजु भाषा बोलने की परम शक्ति दो । ६) हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा के प्रति, स्त्री, पुरुष अगर नपुंसक, कोई भी लिंगधारी हो, तो उसके संबंध में किंचित्मात्र भी विषय विकार के दोष, ईच्छाएँ, चेष्टाएँ या विचार संबंधी दोष न किया जाय, न करवाया जाय या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाय ऐसी परम शक्ति दो । ७) हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी रस में लुब्धपना न हो ऐसी परम शक्ति दो। समरसी खुराक लेने की परम शक्ति दो। ८) हे दादा भगवान ! मुझे कोई भी देहधारी जीवात्मा का प्रत्यक्ष या परोक्ष, जीवंत या मृत, किसी का किंचित्मात्र भी अवर्णवाद, अपराध, अविनय न किया जाय, न कराया जाय या कर्ता के प्रति अनुमोदना न की जाय ऐसी परम शक्ति दो । ९) हे दादा भगवान ! मुझे जगत कल्याण करने में निमित्त बनने की परम शक्ति दो शक्ति दो, शक्ति दो। (इतना आपको दादा के पास मांगने का है। यह हररोज पढने की चीज नही है, दिल मे रखने की चीज है। यह उपयोगपुर्वक भावना करने की चीज नही है। इतने पाठ में तमाम शास्त्रो का सार आ गया है ।) शुद्धात्मा के प्रति प्रार्थना हे अंतर्यामी परमात्मा ! आप प्रत्येक जीवमात्र में बिराजमान हैं, वैसे ही मुझे में भी बिराजमान है। आपका स्वरूप वही मेरा स्वरूप है। मेरा स्वरूप शुद्धात्मा है। शुद्धात्मा भगवान ! मैं आपको अभेदभाव से अत्यंत भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ । अज्ञानतावश मैं ने जो भी दोष किए है, उन सभी दोषों को आपके समक्ष जाहिर करता हूँ। उनका हृदयपूर्वक बहुत पछतावा करता हूँ और क्षमा माँगता हूँ। हे प्रभु! मुझे क्षमा करे, क्षमा करे, क्षमा करे और फिर से ऐसे दोष नहीं करूँ ऐसी आप मुझे शक्ति दे, शक्ति दे, शक्ति दे। शुद्धात्मा भगवान! आप ऐसी कृपा करें कि हमारे भेदभाव छूट जाये और अभेद स्वरूप प्राप्त हो। हम आप में अभेद स्वरूप से तन्मयाकार रहे। (जो दोष हुए हो, वे मन में जाहिर करें ) .. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दादा भगवान फाउन्डेशन के द्वारा प्रकाशित हिन्दी - अंग्रेजी पुस्तकें m ज्ञानी पुरूष की पहचान सर्व दुःखो से मुक्ति कर्म का विज्ञान आत्मबोध यथार्थ धर्म जगत कर्ता कौन? अंत:करण का स्वरूप दादा भगवान का आत्मविज्ञान टकराव टालिए 10. हुआ सो न्याय 11. एडजस्ट एवरीव्हेयर 12. भूगते उसी की भूल 13. वर्तमान तीर्थकर श्री सीमंधर स्वामी 14. HamonyinMarriage 15. GenerationGap 16. Whoaml? 17. Avoid Clashes Whatever happens is justice 19. AdjustEverywhere 20. The Faultisofthe sufferer 21. Pratikraman 22. The science of karma 23. Theessence ofall religions 24. Worries 25. Anger 26. FlawlessVision प्राप्तिस्थान) पूज्य डॉ. नीरुबहन अमीन तथा आप्तपुत्र दीपकभाई देसाई अहमदाबाद मुंबई दादा दर्शन, 5, ममतापार्क सोसायटी, | बी-९०४, नवीनआशा एपार्टमेन्ट, नवगुजरात कॉलेज के पीछे, उस्मानपुरा, | दादासाहेब फालके रोड, अहमदाबाद-३८००१४. | दादर (से.रे.), फोन:(०७९)७५४०४०८, 7543979 मुंबई-४०००१४. 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