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________________ आत्मबोध आत्मबोध प्रश्नकर्ता : भगवान की है। सत्य क्या ? ब्रह्म ? जगत ? दादाश्री : भगवान की लड़की?! देखिये, मैं आपको सच बता दूं कि माया क्या है! स्वरूप की अज्ञानता, वो ही माया है। जहाँ तक स्वरूप की अज्ञानता है, वहाँ तक माया है। स्वरूप का ज्ञान हो गया कि माया चली जाती है। प्रश्नकर्ता : जगत नहीं है? दादाश्री : जगत है, नींद में भी है और जागृत में भी है। प्रश्नकर्ता : लेकिन ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या कहते हैं न? प्रश्नकर्ता : माया कोई वस्तु है? उसका कुछ अस्तित्व (एक्जिस्टेंस) है? दादाश्री: कोई अस्तित्व ही नहीं है। वो रिलेटिव है, वो रीयल नहीं है। वेदान्त में क्या लिखा है, भगवान प्राप्त करने के लिए क्या चाहिए? मल, विक्षेप और अज्ञान जाने चाहिए तो भगवान मिलते है। तो अज्ञान, वो ही माया है। प्रश्नकर्ता : तो अज्ञान कैसे जाता है? दादाश्री : जगत मिथ्या नहीं है। जगत सत्य है। मिथ्या बोलते हैं, वो दूसरी भाषा में बोलते हैं। वो भाषा आपको समझ में नहीं आती है। वो बोलते है वो गलत नहीं बोलते हैं, लेकिन अपनी समझ में आना चाहिए कि किसे मिथ्या बोलते हैं! जगत सत्य है और ब्रह्म भी सत्य है। The world is relative correct and Brahma (18) is real correct. कोई रस्ते पर पैसे फेंक देता है? कभी भी कहीं किसी रास्ते पर एक पैसा भी मिलता है? कितने पैसे गिरते है, लेकिन पूरे रास्ते पर एक पैसा भी नहीं मिलता है। अरे, २४ घंटे पैसे फेंको तो भी सब लोग तुरंत उठा लेते हैं। जगत मिथ्या तो नहीं है। जगत मिथ्या रहता तो नींद में मुँह में मिरची डाल देने पर कोई उठेगा ही नहीं। लेकिन मिरची डाल दिया तो फिर उसे उठाना नहीं पड़ता है। उसको इफेक्ट हो जाती है। ऐसे जगत भी सत्य है। कभी किसी ने गाली दे दिया, तो जगत मिथ्या लगता है? जगत रिलेटिव सत्य है, आत्मा रीयल सत्य है। दादाश्री : वो 'ज्ञानी पुरुष' मिलते हैं, तो उनकी कृपा से सब चला जाता है। जो मुक्त हो गये, वो सब कुछ कर देते हैं। दुनिया में आये हैं तो कुछ समझना तो चाहिए न ! ये दुनिया किसने बनायी? क्यों बनायी? प्रश्नकर्ता : वैसे तो कहा है कि, 'एकोहम् बहुस्यामि', तो इसके बनाने का कहीं अर्थ ही नहीं निकलता है। और स्वप्न में जगत नहीं है, ये जागृत प्रश्नकर्ता: सुषुप्त में अवस्था में जगत आता है? दादाश्री : वो आत्मा है न, वो ही भगवान है और वो ही 'एकोहम् बहुस्यामि' है। भगवान तो सभी जगह पर एक ही समान है। भगवान में फर्क नहीं है, डिफरन्स नहीं है। 'एकोहम् बहुस्यामि' वो तो ऐसा बोलते है कि भगवान एक ही है और बहुस्यामि याने अलग-अलग आत्मा के रूप में है। सब आत्मा मिलायें तो एक ही होती है. एक लाइट में सभी लाइट मिल जाती है ऐसा बोलते हैं. लेकिन ऐसा नहीं है। क्योंकि इसमें अपने को क्या फायदा? दादाश्री : नहीं, स्वप्न में जो जगत है, वह दो शरीर का जगत है। वह जो स्वप्न है, वह दो शरीर का स्वप्न होता है, वह बंद आँख का स्वप्न है। ये खुली आँख का स्वप्न है, यह तीन शरीर का स्वप्न है। इसमें जागृत हो गया, फिर मुक्त हो गया। जहाँ तक स्वप्न है. वहाँ तक जगत सत्य लगता है। स्वप्न खुल गया तो सत्य नहीं लगता।
SR No.009577
Book TitleAtmabodh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDada Bhagwan
PublisherDada Bhagwan Foundation
Publication Year2003
Total Pages41
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Akram Vigyan
File Size91 KB
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