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आत्मबोध
आत्मबोध
दादाश्री : आपको रिलेटिव ज्ञान जानने का विचार है कि रीयल ज्ञान जानने का विचार है? ज्ञान दो प्रकार के होते हैं। एक रिलेटिव ज्ञान है, दूसरा रीयल ज्ञान है। रीयल ज्ञान परमानेन्ट है और रिलेटिव ज्ञान टेम्पररी है। तो आपको क्या जानने का विचार है? जो पुस्तक में लिखा गया. वो सब टेम्पररी ज्ञान है। तो आपको क्या जानना है?
प्रश्नकर्ता : परमानेन्ट ही जानना है। दादाश्री : जो वास्तविक है, वो परमानेंट है।
प्रश्नकर्ता : ज्ञान जो है, वह परमानेन्ट होना चाहिए। टेम्पररी ज्ञान से कोई फायदा नहीं होता।
प्रश्नकर्ता : मैं ये ही चाहता हूँ।
दादाश्री : ये सब लोग जानते हैं, वो प्राकृत ज्ञान जानते है। सच्चे ज्ञान की बात इसमें नहीं है। ये सब प्राकृत ज्ञान है। आत्मज्ञान चाहते हो तो बोलने का कि आत्मज्ञान की बात में 'मैं कुछ नहीं जानता हूँ' ऐसा भाव होना चाहिए। नहीं तो ईगोइज्म होता है कि 'मैं कुछ जानता हूँ।' प्रकृति उसको चलाती है, और बोलता है कि 'मैं चलाता हैं। ऐसी उसको भ्रांति है। धर्म भी प्रकृति कराती है और बोलता है 'मैं धर्म करता हूँ।' तप करता है, वो प्रकृति कराती है। त्याग करता है, वो प्रकृति कराती है। चोरी करता है, वो प्रकृति कराती है। जहाँ तक पुरुष नहीं हुआ, वहाँ तक प्रकृति ही कराती है और पुरुष हो जाये तो काम हो गया। 'ज्ञानी पुरुष' की कृपा से पुरुष और प्रकृति अलग हो जाते हैं। पुरुष हो गया फिर सच्चा पुरुषार्थ होता है, नहीं तो वहाँ तक सच्चा पुरुषार्थ नहीं है। वो भ्रांति का पुरुषार्थ है।
सब बोलते हैं कि आत्मज्ञान (प्राप्त) करो। लेकिन जहाँ तक आत्मज्ञान नहीं मिलता, वहाँ तक प्रकृतिज्ञान का अभ्यास करो, उसको जानो। ये शरीर में जो मैकेनिकल पार्ट्स हैं, वो सब प्रकृति है। इसमें कुछ करने की जरुरत नहीं है। जैसे ये दाढ़ी के बाल ऐसे ही बढ़ते है न?! पुरुषधर्म समझना चाहिए और प्रकृति का धर्म भी समझना चाहिए। प्रकृतिधर्म संसार चलाने के लिए समझना चाहिए और मोक्ष में जाने के लिए पुरुष धर्म समझना चाहिए।
दादाश्री : सारी दुनिया में टेम्पररी ज्ञान ही चलता है। वो टेम्पररी ऐडजस्टमेन्ट है, परमानेन्ट ऐडजस्टमेन्ट नहीं है। टेम्पररी ऐडजस्टमेन्ट क्यों बोला जाता है? क्योंकि इससे बहुत आगे जानने का है। संसार चलाने के लिए टेम्पररी ज्ञान है लेकिन वास्तव में जगत क्या है, भगवान क्या है, जगत कौन चलाता है, कैसे चलता है, ये सब रीयल ज्ञान जानना चाहिए। वास्तविक जानना चाहिए। वास्तविक कोई पुस्तक में नहीं लिखा है। आपको क्या जानने का विचार है? हम दोनों बात बता देते हैं। वास्तविक भी और वो दूसरा भी बताते हैं।
प्रश्नकर्ता : जो लिखा है वो तो बहुत कुछ जान चुका हूँ।
दादाश्री : आप लिखा हुआ सब जान चुके हैं, लेकिन लिखा हुआ है, वो जानने में कुछ फायदा नहीं होता। वो सब टेम्पररी ज्ञान है। हमने तय किया कि दूसरों के साथ झूठ नहीं बोलने का, सच ही बोलने का है। सब जगह पर लिखा है कि सच बोलना, लेकिन झूठ तो बोलना ही पड़ता है। क्योंकि वो टेम्पररी ज्ञान है और परमानेन्ट ज्ञान जान लें तो फिर वो झूठ बोल ही नहीं सकता। परमानेन्ट ज्ञान तो खुद क्रियाकारी है। जो हम बोलते हैं, वो कभी पुस्तक में पढ़ी नहीं, कभी सुनी नहीं, ऐसी बातें बोलते हैं लेकिन हैं वास्तविक, यह आपकी आत्मा कबूल करेगी।
आप खुद कौन हो? दादाश्री : आपका नाम क्या है? प्रश्नकर्ता : रवीन्द्र। दादाश्री : रवीन्द्र तो आपका नाम है, आप खुद कौन हैं? प्रश्नकर्ता : मैं एक इन्सान हूँ।