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नमः सद्गुरवे ।
उपोद्धात
'अष्टप्राभृत'-सनातन दिगम्बर जैन आम्नायके निर्ग्रन्थ श्रमणोत्तम भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव द्वारा प्रणीत दर्शनप्राभृत, सूत्रप्राभृत, बोधप्राभृत, भाव -प्राभृत, मोक्षप्राभृत, लिंगप्राभृत, और शीलप्राभृत-यह आठ प्राभृतोंका समूह-संसकरण है।
श्रमणभगवन्त ऋषीश्वर श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव विक्रम संवत्के प्रारम्भमें हो गये हैं। दिगम्बर जैन परंपरामें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवका स्थान सर्वोत्कृष्ट है।
मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी।।
___ मंगलं कुन्दकुन्दार्यो जैनधर्मोऽस्तु मंगलं ।।। यह श्लोक प्रत्येक दिगम्बर जैन, शास्त्राध्ययन प्रारम्भ करते समय, मंगलाचरण के रूप में बोलता है। यह सुप्रसिद्ध 'मंगल' का श्लोक भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी असाधारण महत्ता प्रसिद्ध करता है, क्योंकि उसमें सर्वज्ञ भगवान् श्री महावीर स्वामी एवं गणधर भगवान् श्री गौतमस्वामी के पश्चात् अनन्तर ही, उनका मंगल रूप में स्मरण किया गया है। दिगम्बर जैन साधु स्वयं को भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी परम्परा के कहलाने में अपना गौरव मानते हैं। भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवके शास्त्र साक्षात् गणधरदेवके वचन तुल्य ही प्रमाणभूत माने जाते हैं। उनके उत्तरी ग्रन्थकार आचार्य, मुनि एवं विद्धान् अपने किसी कथन को सिद्ध करने के लिये कन्दकन्दाचार्यदेवके शास्त्रोंका प्रमाण देते हैं और इसलिये वह कथन निर्विवाद ठहरता है। उनके पश्चात लिखे गये ग्रन्थोंमें उनके शास्त्रों में से बहुत अवतरण लिये गये हैं। वि. सं.६६० में होने वाले श्री देवसेनाचार्यवर अपने दर्शनसार ग्रन्थ में कहते हैं कि -
जइ पउमणंदिणाह सीमंधरसामिदिव्वणाणेण।
ण विबोहइ तो समणा कह सुमग्गं पयाणंति।। -(महा विदेहक्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकरदेव) श्री सीमंधरस्वामीके पाससे (समवसरणमें जाकर) प्राप्त हुए दिव्य ज्ञानसे श्री पद्यनन्दिनाथने (श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने) यदि बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्ग को कैसे जानते ? दूसरा एक उल्लेख कि जिसमें कुन्दकुन्दाचार्यदेवको 'कलिकालसर्वज्ञ' कहा गया है, सो इस प्रकार है।-'पद्यनन्दी, कन्दकन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार एलाचार्य एवं गृध्रपिच्छाचार्य ये पाँच नाम से विभूषित, चार अंगुल ऊँचाई पर आकाश में गमन की जिनके ऋद्धि थी, पूर्वविदेहक्षेत्र में जाकर जिन्होंने सीमन्धरभगवानकी वन्दना की थी और उनके पाससे प्राप्त हुए श्रृतज्ञानसे जिन्होंने भारतवर्षके भव्य जीवोंको प्रतिबोध किया है ऐसे जो श्री जिनचन्द्रसरी भट्टारकके पट्ट के आभरणरूप कलिकालसर्वज्ञ (भगवान कन्द उनके द्वारा रचित इस षट्प्राभृतग्रन्थमें.०००मोक्षप्राभृतकी टीका समाप्त हुई।' भगवान् कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी महत्ता सूचित करनेवाले ऐसे
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