Book Title: Ashtapahuda
Author(s): Kundkundacharya, Mahendramuni
Publisher: Digambar Jain Swadhyay Mandir Trust

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Page 10
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates * — भावप्राभृत' में १६५ गाथा हैं। अनादिकालसे चतुर्गतिमें परिभ्रमण करते हुए, जीव जो अनन्त दुःख सहन कर रहा है उसका हृदयस्पर्शी वर्णन इस प्राभृत में किया गया है, और उन दुःखोंसे छूटनेके लिये शुद्ध भावरूप परिणमन कर भावलिङ्गी मुनि दशा प्रगट किये बिना अन्य कोई उपाय नहीं है ऐसा विशदतासे वर्णन किया है। उसके लिये ( दुःखों से छूटने के लिये) शुद्धभावशून्य द्रव्यमुनिलिङ्ग अकार्यकारी है यह स्पष्टतया बताया गया है। यह प्राभृत अति वैराग्य प्रेरक और भाववाही है एवं शुद्धभाव प्रगट करने वाले सम्यक् पुरुषार्थके प्रति जीव को सचेत करने वाला है । * 'मोक्षप्राभृत' में १०६ गाथा हैं । इस प्राभृत में मोक्षका - परमात्मपदका - अति संक्षेपमें निर्देश करके, पश्चात् वह ( - मोक्ष ) प्राप्त करनेका उपाय क्या है उसका वर्णन मुख्यतया किया गया है। स्वद्रव्यरत जीव मुक्ता होता है - यह, इस प्राभृतका केन्द्रवर्ती सिद्धान्त है। * 'लिंगप्राभृत' में २२ गाथा हैं। जो जीव मुनिका बाह्यलिंग धारण करके अति भ्रष्टाचारीरूपसे आचरण करता है, उसका अति निकृष्टपना एवं निन्द्यपना इस प्राभृत में बताया है। * 'शीलप्राभृत' में ४० गाथा हैं। ज्ञान विना ( सम्यग्ज्ञान विना ) जो कभी नहीं होता ऐसे शीलके (-स्त्शीलके) तत्वज्ञानगम्भीर सुमधुर गुणगान इस प्राभृत में जिनकथन अनुसार गाये गये हैं। –इस प्रकार भगवन् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव प्रणीत 'अष्टप्राभृत' परमागमका संक्षिप्त विषय परिचय है। अहो! जयवंत वर्तो वे सातिशयप्रतिभासम्पन्न भगवान् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव कि जिन्होंने महातत्त्वोंसे भरे हुए इन परमागमोंकी असाधारण रचना करके भव्य जीवों पर महान उपकार किया है। वस्तुत: इस काल में यह परमागम शास्त्र मुमुक्षु भव्य जीवों को परम आधार हैं। ऐसे दुःषम काल में भी ऐसे अद्भुत अनन्य शरणभूत शास्त्र - तीर्थंकर देवके मुखारविन्दसे विनिर्गत अमृत - विद्यमान हैं वह हमारा महान भाग्य है। पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के शब्दों में कहें तो " 'भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेव के यह पाँचों ही परमागम आगमों के भी आगम हैं; लाखों शास्त्रोंका निचोड़ इनमें भरा हुआ है, जैन शासनका यह स्तम्भ है; साधककी यह कामधेनु हैं, कल्पवृक्ष हैं। चौदहपूर्वोका रहस्य इनमें समाविष्ट है। इनकी प्रत्येक गाथा छठवें - सातवें गुणस्थानमें झूलते हुए महामुनि के आत्म अनुभव में से निकली हुई है। इन परमागमोंके प्रणेता भगवन् श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेव महाविदेहक्षेत्रमें सर्वज्ञ वीतराग श्री सीमन्धरभगवानके समवशरणमें गये थे और वे वहाँ आठ दिन रहें थे सो बात यथातथ है, अक्षरश: सत्य है, प्रमाणसिद्ध है, उसमें लेशमात्र भी शंकाको स्थान नहीं है। उन परमोपकारी आचार्यभगवानके रचे हुए इन परमागमोंमें श्री तीर्थंकरदेवके निरक्षर ऊँकार दिव्यध्वनिसे निकला हुआ ही उपदेश है।' Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com

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