Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 088 to 176
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

View full book text
Previous | Next

Page 32
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth अष्टापदगिरिकल्प (भाषान्तर) स्वर्ण के समान देह की कान्तिवाले भवरूपी हस्ती के लिए अष्टापद के समान श्री ऋषभदेव को नमस्कार करके अष्टापद गिरि का कल्प संक्षेप में कहता हूँ। इसी जम्बूद्वीप नामक द्वीप में दक्षिण भरतार्द्ध में भारतवर्ष में नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लंबी अयोध्या नामक नगरी है। यही श्री ऋषभ-अजित-अभिनंदन-सुमति-अनंतादि जिनेश्वरों की जन्मभूमि है। इस के उत्तर दिशा में बारह योजन पर अष्टापद नामक कैलाश अपर नामवाला रम्य गिरिश्रेष्ठ, आठ योजन ऊँचा, स्वच्छ-स्फटिक शिलामय है। इसी से लोगों में धवल गिरि नाम भी प्रसिद्ध है। आज भी अयोध्या के निकटवर्ती उड्डयनकूट पर स्थित होने पर आकाश निर्मल हो तो उसकी धवल शिखर पंक्तियाँ दीखती हैं। फिर वह महासरोवर, घने रसवाले वृक्ष, पानी के पूर वाले झरनों से युक्त, परिपार्श्व में संचरण करते जलधर, मत्त मोर आदि पक्षियों के कोलाहल युक्त, किन्नर-विद्याधर रमणियों से रमणीक, चैत्यों को वंदन करने के लिए आने वाले चारणश्रमणादि लोगों के दर्शनमात्र से भूख-प्यास हरण करने वाला, निकटवर्ती मानसरोवर विराजित है। इस पर्वत की तलहटी में अयोध्या-वासी लोग नाना प्रकार की क्रीडाएँ करते हैं। इसी के शिखर पर ऋषभदेव स्वामी चतुर्दश भक्त से पर्यंकासन स्थित, दस हजार अणगारों के साथ माघी कृष्ण त्रयोदशी के दिन अभिजित नक्षत्र में पूर्वार्द्ध में निर्वाण प्राप्त हुए। (शक्रादि ने वहाँ स्वामी का देह-संस्कार किया। पूर्व दिशा में स्वामी की चिता, दक्षिण दिशा में इक्ष्वाकुवंशियों की और पश्चिम दिशा में शेष साधुओं की थीं। उन तीन चितास्थानों पर देवों ने तीन स्तूप किये। भरत चक्रवर्ती ने स्वामी के संस्कार के निकटवर्ती भूतल पर एक योजन लंबा, आधा योजन चौड़ा, तीन कोश ऊँचा सिंह-निषद्या नामक प्रासाद रत्नोपल-वार्द्धकि रत्न के द्वारा बनवाया। उसके स्फटिक रत्नमय चार द्वार हैं। उभय पक्ष में सोलह रत्न चंदन कलश हैं। प्रत्येक द्वार पर सोलह रत्नमय तोरण हैं। द्वार-द्वार पर सोलह अष्टमंगल हैं।) उन द्वारों में चार विशाल मुख्य मण्डप हैं। उन मुख्य मण्डपों के आगे चार प्रेक्षामण्डप हैं। उन प्रेक्षामण्डपों के मध्य भाग में वज्रमय (अखाडा) अक्षवाटक हैं। प्रत्येक अखाड़े के बीच में रत्नसिंहासन हैं। प्रत्येक प्रेक्षा-मण्डप के आगे मणिपीठिकाएँ हैं। उनके ऊपर रत्नमय चैत्य-स्तूप हैं। उन चैत्य-स्तूपों के आगे प्रत्येक के प्रतिदिशा में बड़ी विशाल पूजा-मणि-पीठिका हैं। उन प्रत्येक के ऊपर चैत्य वृक्ष है। चैत्य स्तूप के सन्मुख पाँच सौ धनुष प्रमाण वाली सर्वांग रत्न निर्मित ऋषभ-वर्द्धमानचन्द्रानन-वारिषेण नामक पर्यंकासन विराजित मनोहर शाश्वत जिनप्रतिमाएँ, नन्दीश्वर द्वीप चैत्य हैं। उन चैत्यवृक्षों के आगे मणिपीठिकाएँ हैं। उन प्रत्येक के ऊपर इन्द्र-ध्वजाओं के आगे तोरण और सोपान युक्त, स्वच्छ शीतल जल से पूर्ण, विचित्र कमल शालिनी, मनोहर दधि मुखाधार पुष्करिणी के सदृश नन्दा पुष्करिणी है। सिंह-निषद्या महाचैत्य के मध्य भाग में विशाल मणिपीठिका हैं। उनके ऊपर चित्र रत्नमय देवच्छंदक हैं। उसके ऊपर नाना वर्ण के सुगम उल्लोच हैं। उल्लोचों के अन्तर पार्श्व में वज्रमय अंकुश हैं। उन अंकुशों से अवलम्बित घड़े में आने योग्य आँवले जैसे प्रमाण के मुक्ताओं के हार हैं। हार-पंक्तियों में विमल मणि-मालिकाएँ हैं। मणिमालिकाओं के नीचे वज्रमालिकाएँ हैं। चैत्य भित्ती में विचित्र मणिमय गवाक्ष हैं, जिनमें जलते हुए अगरधूप समूह की मालिकाएँ हैं। उस देवच्छंदक में रत्नमय ऋषभादि चौबीस जिनप्रतिमाएँ अपने-अपने संस्थान, प्रमाण और वर्ण वाली भरत चक्रवर्तीकारित हैं। उनमें सोलह प्रतिमाएँ ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, सुपार्श्व, शीतल, श्रेयांस, विमल, अनन्त, शान्ति, कुन्थु, अर, नमि और महावीर भगवान् की स्वर्णमय हैं। मुनिसुव्रत और नेमिनाथ की रातावर्णमय हैं। चन्द्रप्रभ और सुविधिनाथ की स्फटिक रत्नमय हैं। मल्लि और पार्श्वनाथ की वैदूर्यरत्नमय हैं। पद्मप्रभ और वासुपूज्य भगवान् की पद्मरागमय हैं। उन सब प्रतिमाओं के लोहिताक्ष प्रतिषेक पूर्ण अंक रत्नमय नख हैं। नखपर्यन्त जावयर के जैसे लोहिताक्ष मणि रस का जो सिंचन किया जाता है उसे प्रतिषेक कहते हैं। नाभि, 679 Ashtapadgirikalp

Loading...

Page Navigation
1 ... 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89