Book Title: Ashtapad Maha Tirth 01 Page 088 to 176
Author(s): Rajnikant Shah, Kumarpal Desai
Publisher: USA Jain Center America NY

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Page 86
________________ Shri Ashtapad Maha Tirth इस अवसर्पिणी के तृतीय आरा के निन्यान्वें पक्ष शेष बचे थे अर्थात् करीब सवाचार वर्ष बाकी थे तब माघ मास की कृष्णत्रयोदशी के पूर्वाह्न में अभिचि नक्षत्र में चन्द्र का योग था तब पर्यंकासन में स्थित परमात्मा ऋषभदेव ने बादर काययोग में रह कर ही बादर मनयोग एवं बादर बचन योग को समाप्त कर दिया। तत्पश्चात् अष्टापद गिरि के उपर नूतन शिखरों के समान नए चिता स्थान में देवों ने रत्नों के तीन स्तूप बनाए। तत्पश्चात् भरत महाराजा ने प्रभु के संस्कार के समीप भूमि में तीन गाऊँ ऊँचा एवं मोक्ष मार्ग की वेदिका सदृश सिंहनिषद्या नामक प्रासाद रत्नमय पाषाण से बनाया। यह प्रासाद वार्धकीरत्न नामक स्थपति के द्वारा बनाया गया। बाद में कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्रसूरिजी ने सिंहनिषद्या प्रासाद का मनोहर वर्णन किया है जो स्थापत्यशास्त्र का उत्तम उदाहरण स्वरूप है। तत्पश्चात् जो वर्णन होता है वह भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। जिसमें कहा गया है कि भरत महाराजा के केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् वह भी संयम ग्रहण करके संसार के भावि जीवों को प्रतिबोध करते हुए, भूमि को पावन करते हुए अष्टापद पर्वत पर पधारे और चतुर्विध आहार का प्रत्याख्यान कर के अनशन स्वीकार किया। प्रायः इसी प्रकार का वर्णन हमें सभी ग्रन्थों में प्राप्त होता है। ज्ञानप्रकाश दीपार्णव, अष्टापद गिरिकल्प, बृहद् कल्पभाष्य वृत्ति, अष्टापद स्तवन, वसुदेव हिंडी, आदि ग्रन्थो में अष्टापद के उल्लेख प्राप्त होते हैं। एक और उल्लेख प्राप्त होता है, वह है अष्टापदगिरि कल्प का इस जम्बूद्वीप के दक्षिणार्द्ध भरत में भारत वर्ष में नव योजन चौडी और बारह योजन लम्बी अयोध्या नामक नगरी है। यह नगरी ऋषभदेव, अजितनाथ, अभिनंदन स्वामी, सुमतिनाथ, अनंतनाथ आदि जिनेश्वरों की जन्मभूमि है। उसके उत्तरदिशा में बारह योजन पर अष्टापद नाम का पर्वत है। उसके अन्य नाम कैलाश, रम्यगिरि, धवलगिरि, आदि हैं। वह आठ योजन ऊँचा है। स्वच्छ स्फटिकमय है। एवं अयोध्या के बाहर उड्डयकुट पर खड़े रहने पर आकाश स्वच्छ होने पर अष्टापद के धवल शिखरों के दर्शन होते हैं। इसके पश्चात् अजितनाथ भगवान् के समय में सगर चक्रवर्ती के पुत्र, मुनिसुव्रत स्वामी, गौतमस्वामी, रावण का अष्टापद के साथ सम्बन्ध मिलता है। इस प्रकार सर्वप्रथम ऋषभदेव भगवान् का अष्टापद के साथ सम्बन्ध था। वह जब-जब अयोध्या की ओर आते थे तब-तब अष्टापद पर्वत पर रुकते थे और राजा एवं प्रजा को धर्मोपदेश देते थे। किन्तु वर्तमान अयोध्या के उत्तर भाग में ऐसा कोई पर्वत नहीं जिसे हम अष्टापद मान सकें । वर्तमान भूगोल के अनुसार कैलाश पर्वत तिब्बत में आया हुआ है और वह मानसरोवर की उत्तर में २५ माइल की दूरी पर है। इस पर्वत का शिखर हमेशा हिमाच्छादित रहता है और उस पर चढना अति कठिन है। उसके पास अष्टापद पर्वत होने की संभावना है। उत्तराध्ययन नियुक्ति में कहा गया है किचरम सरीरो साहू आउहइ नगवरं, न अन्नो त्ति। (अ. १० गाथा २९०) अर्थात्- जो साधु चरम शरीरी होते हैं वही इस नगवर अष्टापद पर्वत पर चढ़ सकते हैं। इन सब से हम यह अनुमान लगा सकते हैं कि अष्टापद पर्वत पर चढ़ना अतिदुर्गम था। और कुछ समय बाद लुप्त हो गया। -35 133 - Period of Adinath

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