Book Title: Aradhana Kathakosha
Author(s): Bhattarak Chandrakirti, Shantikumar Jaykumar Killedar
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur

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Page 735
________________ ७१० : आराधना - कथाकोष ज्ञानावरण कर्म निवारण । प्राप्त व्हावे केवळज्ञानं । अनुक्रमेण मोक्षस्थान । इच्छा पूर्ण करी देवराया ।। १६५ ।। श्लोक :- गच्छे श्रीमति मूळसंघविमले सारस्वते तत्शुभे । श्री श्री रत्नकीर्ती - श्री पूज्यगुरू रत्नत्रयालंकृतः ॥ तत् शिष्येण कथा जिनेंद्रकथिता श्रीज्ञानदानोद्भवां । भव्यान्मे भवशांतये विरचिता भूयात् सदा शर्मंदां ।। १६६ ॥ श्रीजिनेंद्रपद वंदुनी । कथा सांगु शुभदायिनी । अभयदान पात्रदानी । जिनमुखोत्पन्नी शारदा ।। १६७।। सरस्वतीचा मज आश्रय । तत् वस्ती असे मम हृदय । महाश्रुताब्धि पार होय । सद्गुरूराय सहायकर्ता ।। १६८ ।। गुरूराजचारितधारी । सदा शांतता ज्या अंतरी । त्रिकाळ तत् पद नमस्कारी । हृदयमंदिरी ज्ञानदाता ।।१६९ ।। ऐसे जिनगुणसंस्तोत्र | मंगलदायक पवित्र । कथा वदवी दिन वक्त्र । दृष्टान्त सूत्र करोनिया ॥ १७० ॥ जंबूदीप क्षेत्र भरत । धर्मपवित्र षट्कर्मयुक्त । माळव देश असे पुनीत । शोभिवंत मनोज्ञ असे ।।१७१ ।। धनधान्ये जने नांदती । वस्तु अमोल भांति भांति । संतत आणि संपत्ती । जिनगुण गाती नित्यशः ।। १७२ ।। नरनारी यथास्थित ते । रूपलावण्यमंडित ते । महाभोग सुख भोगित । पुण्यवंत ते पूर्वपुण्य ॥१७३॥ कथा १११ श्रीजिन चैत्यालये उत्तंग | सुवर्णमय ते अभंग । गावोगाव श्रीजिनमार्ग । पर्वतशृंगे वने वने ॥। १७४।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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