Book Title: Anusandhan 2015 03 SrNo 66
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 6
________________ आवा तन्दुरस्त विवाद के वाद-प्रतिवादने कारणे साहित्यजगत् ज रळियात थतुं होय छे ए पण एक लाभप्रद बाबत छे. जो आवा प्रवाहोना सम्पर्कमा रहेवाय, तो आपणी वैचारिक उदारता के व्यापकता घणी वधे, अने संकुचित मनोवलणो अवश्य नबळां पडे. सवाल व्यापकता माटेनी रुचिनो छे, समजणनो छे. सार ए के राग-द्वेषथी पर बनीने, शास्त्राध्यासपूर्वक, संशोधन करवानी मोज कंईक अनेरी ज होय छे. एमां, पूर्व सूरिओ प्रत्येनो आदर तथा बहुमान अकबंध राख्या पछीये, तेमना काममां कोई क्षति के खामी जणाय, तो ते देखाडी शकाय छे, अने तेम करवू ते, ते पूर्वसूरिओ प्रत्येना अदकेरा आदर- द्योतक पण बनी रहे छे. वळी एमां, समकालीनो प्रत्येनो सद्भाव लेश पण ओछो कर्या विना, एमनी पण भूल काढी शकाय छे; अने तेमां तेमना प्रत्येनी असूया नहि, पण सद्भावना ज प्रगट थती होय छे. उत्तम काम करे तेनी भूल थाय; ए भूलने कारणे के भूल देखाडवाने लीधे, तेमना कामनी उत्तमता घवाती नथी, के एम करवामां तेमना कामने नकामुं के निम्न गणवानी मानसिकता नथी होती; परंतु आवा उत्तम काममां आवी के आटली पण क्षति न चाले - एवी सद्भावप्रेरित समज ज होय छे. ... राग-द्वेष न होय तो ज आq थई शके. परन्तु कोई द्वारा थता संशोधनने, पोताना परना द्वेषरूप के प्रहाररूप मानी लेवानी, अने तेथी ते संशोधनकर्ता प्रत्ये दुर्भावयुक्त प्रतिवाद करवानी मनःस्थिति तथा पद्धति, ते तो एक तरफ आपणी अविकसित / सीमित दृष्टिने छती करी आपे छे, तो बीजी तरफ संशोधनविज्ञानना क्षेत्र माटे आपणामां जरूरी के पूरती योग्यता न होवानुं पण सहेजे साबित करी आपे छे. अस्तु. - शी.

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