Book Title: Anusandhan 2007 10 SrNo 41 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 4
________________ निवेदन संशोधन ए बहु हिम्मत मागी ले तेवी प्रवृत्ति छे. परम्पराए एक बाबत, धारो के अमुक शब्द तथा तेनो अर्थ, स्वीकारेल होय; तेने शास्त्र रचनारा शास्त्रकारे/शास्त्रकारोए पोताना ग्रन्थमां ते ज स्वरूपे गुंथी के नोंधी पण दीधेल होय; परन्तु तेमनी सामे ते ज बाबत-शब्द तथा अर्थने जुदा अथवा साचा के यथार्थ अर्थमां वर्णवती सामग्री न होय तेवू, मध्ययुगमा घणी वखत बन्युं छे, बनतुं हतुं. अने हवे विचारो के ए सामग्री, आजना साधन-सुविधाना युगमां, ओचिंती आपणा जेवाना हाथमां आवी जाय; अने तेना सम्पर्कथी आपणने पेली बाबत, शब्द तथा अर्थनी, परम्परागत स्थिति करतां जुदी अने वळी यथार्थ बाजुनी भाळ मळी आवे, तो शुं थाय ? साची संशोधनवृत्ति होय तो, नि:शङ्क पेला परम्परामान्य शब्द-अर्थना स्थाने यथार्थ बाबतने मूकवानो, स्वीकारवानो उद्यम थाय; परम्परापूजक वर्ग तरफथी आवी पडनारा सम्भवित विरोधने स्वीकारी लईने पण. अने अहीं ज तेनी शोधवृत्तिनी किम्मत पण छे, अने पडकाररूप हिम्मतनी आवश्यकता पण. वास्तवमा तेम करवामां तेनो आशय परम्परा तोडवानो के तेने जूठी ठराववानो नथी होतो; पण परम्पराना बहाने, अजाणपणे ज, तेमां प्रवेशी गयेली गरबडने मिटाववानो तथा साची परम्पराने पुनः प्रतिष्ठित करवानो ज होय छे. आटलुं सादुं सत्य जो समजाई जाय, तो शोधकनी क्वचित् थती भूलने समजवानी तथा तेनो स्वीकार तथा सुधार करवानी उदारता अवश्य सांपडे. - शी. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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