Book Title: Ang 01 Ang 01 Acharang Sutra
Author(s): Ravjibhai Devraj
Publisher: Ravjibhai Devraj
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अध्ययन चौबीसमुं.
[३८१] गिम्हाण दोच्चे मासे चउत्थे पक्खे वइसाहसुद्धे-तस्तणं वइसाहसुद्धस्स दसमीपक्वेणं, सुव्वएणं दिवसणं, विजएणं मुहत्तेणं, हत्थुत्तराहिं णक्खतेणं जागोवगतण, पाईणगामिणीए छायाए, वियत्ताए पोरिसीए, जमियगामस्स गरस्स बहिया, णदीए उज्जुवालियाए उत्तरे कूले, सामागस्त गाहावइस्स कठ्ठकरणंसि, वेयवत्तस्स चेइयस्स उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए, सालरुक्खस्स अदूरसामंते, उक्कुडुयस्स गोदोहियाए आयावणाए आयावेमाणस्स छट्टेणं भत्तेगं अपाणएणं उड्डूंजाणु-अहोसि रस ज्झाणकोट्रोवगयस्स सुकझाणंतरियाए वट्टमाणस्स निबाणे कसिणे पडिपुणे अव्वाहए णिरावरणे अणंने अणुत्तरे केबलवरणाणदंसणे सम्मपणे । (१०२४)
से भयवं अरहा जिणे जाए केवली सवण्णू सवभावदारसी सदेवमणुयासुरस लोयस्स पज्जाए जाणइ, तंजहा;-आगति, गति, ठिति, चवणं, उववाथ, भुत्तं, पायं, कडं, पडिसेवियं, आवीकम्म, रहोकम्म, लविय, कहियं, मणोमाणासियं, सत्यलोए सबजीवाणं, सबभावाइं
नगरनी बाहेर जुवालिका नर्दाना उत्तर किनारे श्यामाक गायापतिना कर्पण स्थळमां व्यारत नामना चैत्यना इशानकोणमां शाळक्षनी पासे अर्था उभा रही गोदोहिका आसने आतापना करतां यकां तथा पाणीवगरना ये उपवासे जंघाओ उंची गखी माथु नीचे घाली ध्यानकोष्टमा रहेतां धका शुक्लध्यानमां वर्त्ततां छेवतुं संपूर्ण प्रतिपूर्ण अव्याहत निरावरण अनंत उत्कृष्ट केवळज्ञान तथा केवळदर्शन उपज्यु. [१०२४]
हवे भगवान अहन् निन, केवली, सर्वज्ञ, सर्वभावदर्शी, थइ देव मनुष्य, तथा अपुर प्रधान (आखा) लोकना पर्याय जाणवा लाग्या एटले तेनी आग ति-नि, स्थिति च्यवन, उपपात, खाद्युपीई, करलं कारवे, प्रगटकाम, छानांकाम, बोल, कहेन, एम आरखा लोकमां सर्व जीवाना सर्वभाव जाणता देखता

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