Book Title: Anekantvada pravesh
Author(s): Bhavyasundarvijay
Publisher: Jingun Aradhak Trust
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(८)
अत एव च श्रीसिद्धसेनदिवाकरसूरिभिः सुष्ठ आलपितं श्रीसन्मतितर्कप्रकरणे -
"जेण विणा लोगस्स ववहारो सव्वहा न निव्वहइ ।
तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ।" अनेकान्तजयपताकामध्ये स्थापितानेकान्तसिद्धान्तनगर्यां प्रवेशद्वारभूतः एष लघुग्रन्थः अनेकान्तवादप्रवेशाख्यः श्रीहरिभद्रसूरेः ।
सुविवृतञ्च स मच्छिष्यमुनियशरत्नविजयेन अल्पे चैव दीक्षा-वयःपर्याये। मदिच्छामनुसृत्य श्रुतभक्तिद्वारेण गुरुभक्तिरपि स्वादरिता, धन्यवादश्च तस्मै वितरामि ॥
परमपूज्य-शासनप्रभावक-आचार्य विजयरत्नसुन्दरसूरीश्वरशिष्यैः विद्वद्वरेण्यमुनिभव्यसुन्दरविजयैश्च सूक्ष्मेक्षिकयाऽस्य प्रमार्जनं कृत्वा हर्ष वितेनिरे ॥
एतद्ग्रन्थस्य अध्ययन-अध्यापनद्वारेण अनुवादकारः सर्वेऽपि जिज्ञासवश्च अन्तर्मुखताप्रसाधनेन निर्जरां लब्ध्वा सर्वकर्मपरिक्षयसाध्यां मुक्तिमवाप्नुवन्तु इति एकैव अभिलाषा ॥
॥ शिवमस्तु सर्वजगतः ॥
लि. आचार्यविजयरश्मिरत्नसूरिः
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