Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04
Author(s): Jaikumar Jain
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

Previous | Next

Page 13
________________ 10 अनेकान्त 59/1-2 रूढिवादिता को धर्म मानने से मानव समाज की बड़ी हानि हुई है। अपनी संख्या बढ़ाने, सम्पत्ति या सत्ता हथियाने का हथकण्डा बनाकर धर्म जैसे पवित्र भाव को आधार बनाकर जिन्होंने जब कभी घृणा फैलाई है, वह हथकण्डा उन्हीं को आत्मघाती सिद्ध हुआ है। धर्म तो प्राणीमात्र का भला करने वाली औषधि है, उसे संहारक विष नहीं बनने देना चाहिए। पुराना अच्छा ही हो यह आवश्यक नही है। सब नया खराब ही हो यह भी सिद्ध नहीं है। सत्य की खोज में तर्क-वितर्क बुरे नहीं हैं, किन्तु उनका लक्ष्य मानव-कल्याण होना चाहिए। आचार में गिरावट को पञ्चाणुव्रतों-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह एवं ब्रह्मचर्य के परिपालन से रोका जा सकता है। महर्षि पंतजलि ने योगसूत्र में इनकी महत्ता का प्रतिपादन किया है। अपरिग्रह को समझने की आवश्यकता है। जरूरत की चीजों को रखना गृहस्थ की प्रकति है, जरूरत से अधिक रखना विकृति है पर जरूरत होने पर भी स्वपर कल्याण हेतु अपनी प्रिय वस्तु का दान कर देना भारतीय संस्कृति है। यही मानवधर्म है। अपरिग्रह को न समझ पाने का ही यह दुष्परिणाम है कि एक बाप अपने तीन-चार बेटों की परवरिश अच्छी तरह से कर सकता है जबकि तीन-चार बेटे मिलकर भी एक बूढ़े बाप की परबरिश करने में आनाकानी करते हैं। मानवधर्म की संस्थापना के लिए आवश्यक है कि युवाओं को मानवधर्म का रसायन पिलाया जावे। क्योंकि बच्चों का अतीत नहीं होता है तथा बूढ़ों का भविष्य नहीं होता है, जबकि युवाओं का अतीत भी होता है और भविष्य भी। अतः मानवधर्म के सच्चे पात्र युवा हैं। जैन धर्म में प्रतिपादित मानव धर्म के कतिपय निष्ठा सूत्र इस प्रकार1. हिंसा सबसे बड़ा पाप है और अहिंसा एक सकारात्मक एवं व्यावहारिक जीवन-दर्शन है। 2. समता धर्म है और विषमता अधर्म है। मानव स्वरूपतः समान है, अतः ऊँच-नीच का वर्गभेद स्वार्थप्रेरित है।

Loading...

Page Navigation
1 ... 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 ... 268