Book Title: Anekant 2006 Book 59 Ank 01 to 04 Author(s): Jaikumar Jain Publisher: Veer Seva Mandir TrustPage 12
________________ अनेकान्त 59/1-2 पर 'भी' की प्रतिष्ठा से हम 'अनायास ही अनेक समस्याओं से बच सकते हैं। संखिया आदि जो विष मारक हैं, उनका औषधि के रूप में प्रयोग' जीवन रक्षक भी बन जाता है। आवश्यकता इस बात की है कि विभिन्न धर्मों में प्रतिपादित बातों का हम मानव-कल्याण के लिए कथन कर सकें। पदलोलुपता आत्मकल्याण एवं सामाजिक कल्याण में बाधक है। अतः पदलोलुपता से बचने का प्रयास करना चाहिए। जैन धर्म में साधु के तीन रूप हैं-आचार्य, उपाध्याय और सामान्य साधु। तीनों को परमेष्ठी माना गया है। पर चार मंगलों में अहिरंत, सिद्ध, साधु एवं धर्म को परिगणित किया गया है। आचार्य और उपाध्याय को मंगल न मानने का एकमात्र कारण यही है कि पद एक उपाधि है। वह मुक्ति या आत्मकल्याण में बाधक है। मुक्त होने के लिए तो आचार्य एवं उपाध्याय को भी अपना पद त्यागकर साधुसामान्य की श्रेणी में उतरना पड़ता है। अतः पद को कल्याण में साधक न मानकर बाधक ही समझना चाहिएं तथा मानवधर्मी को पदलोलुपता के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए। भगवान् महावीर के शासन में भाग्य की महत्ता होते हुए भी यह समझने की आवश्यकता है भाग्य पुरुपार्थ के आधीन है। वर्तमान का भाग्य यदि पूर्व पुरुषार्थ का फल है तो वर्तमान का पुरुषार्थ भविष्य का भाग्य। वर्तमान में भी भाग्योदय को पुरुषार्थ द्वारा अन्य रूप में परिणमित किया जा सकता है। अतः पुरुषार्थ की महत्ता भाग्य से कदाचित् अधिक है। मानव को चाहिए कि वह फल की इच्छा के बिना पुरुषार्थ करे। पुरुषार्थ से ही अपना और अन्य मानवों का कल्याण हो सकता है। हमें अन्धविश्वास या रूढिवादिता को धर्म मानने की नासमझी छोड़ना होगी। ज्ञान का प्रचार-प्रसार इस दिशा में कारगर हो सकता है।Page Navigation
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