Book Title: Anekant 1973 Book 26 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 8
________________ महाराजाधिराज श्री रामगुप्त ई. तक इस क्षेत्र में गुप्त सत्ता का प्राभास होता है। भी स्वतन्त्र सत्ता स्थापित कर ली होगी। तुनर से हण शासक तोरमाण के प्रथम राज्यवर्ष का अभिलेख सत्यगुप्त का एवं ताम्रसिक्का मिला है, जिस पर लेख एरण से मिला है, जिसका प्रान्तीय शासक धन्यविष्णु गुप्त ब्राह्मी में है, प्रतएव यह सत्यगत महाराजाधिराज था, जोकि गुप्त सम्राट बुधगुप्त के प्रान्तीय शासक मात. श्री रामगुप्त का उत्तराधिकारी रहा होगा, जिससे कलविष्णु का अनुज था, प्रतएव छठी शताब्दी के प्रारम्भ में चुरि शासक शकरगण ने ५६५ ई० में उन्मयिनी के पूर्वी मालवा के शासक हूण ज्ञात होते हैं। तोरमाण को पास पास का क्षेत्र छीन लिया था। उद्योतनसूरि ने कुवलय माला में जैन कहा है, जिसका महाराजाधिराज श्री रामगुप्त ने मालवा क्षेत्र में पुत्र मिहिरकुल ५३० ई. तक पंतक राज्य का स्वामी जैन धर्म के प्रसार के प्रयत्न अवश्य किये घे क्योंकि छठी विदित होता है। यशोधर्मन विष्णुवर्धन के दशपुर अधि- शताब्दी के बाद से जैन वास्तु एवं मूर्ति शिल्प के उदालेखो से विदित होता है कि उसने मालव संवत् ५८६ हरण मालवा मे बहुसंख्यक मिलते है। इन लेखयुक्त जिन (५३२ ई.) के पूर्व मिहिरकुल को परास्त कर गुप्तों प्रतिमापों से इस अज्ञात जैन सम्राट का नाम एव धर्म एव हूँणों से भी विस्तृत साम्राज्य स्थापित किया था, मात्र ज्ञात होता है । रामगुप्त के महाराजात्रिराज विरद प्रतएव रामगन्त की स्वतन्त्र सत्ता का समय प्रौलिकर एव सिक्कों से इसका राज्य क्षेत्र विस्तृत प्रतीत होता है, सम्राट यशोधर्मन विष्णुवर्धन के बाद ही रखा जा सकता परन्तु अन्य स्रोतों के प्रभाव मे अन्य उपलब्धियां ज्ञात नही होती । जैन प्राचार्य चन्द्रक्षमाचार्य एव उनकी शिष्य ___ यशोधर्मन की मत्यु सम्भवत: ५४० ई. के पूर्व हो परम्परा चेलक्षमण तक लेख से ज्ञात होता है, सम्भवतः चुकी थी, क्योंकि उसके द्वारा स्थापित साम्राज्य का इनका उपदेश केन्द्र विदिशा या । देवधि क्षमाश्रमण से विघटन इसके बाद प्रारम्भ हो गया। गुप्त साम्राज्य के इनका सम्बन्ध ज्ञात नहीं होता, यद्यपि लाट एवं मालवा अवशेषों पर गौड़, मोखरि एव परवर्ती गुप्त राजवंशों का जैनाचार्यों के लिये सम्बद्ध प्रचार क्षेत्र थे, मतएव चन्द्रउत्थान एवं प्रतिस्पर्धा अभिलेखों से ज्ञात है, अतएव क्षमाचार्य क्षमाश्रमण को वल्लभी से सम्बन्धित मानना मालवा मे इसी समय करीब ५५० ई० में रामगुप्त ने असगत नहीं होगा। १. फ्लीट कृत गुप्त प्रभिलेख, पृ० १५६ । ३. इडियन माकियालाजी, १९६७-६८, पृ०६२। २. वही, पृ० १४७ । ४. एपिग्राफीया इडिका ६, पृ० २६६ । अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोध-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए ग्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याथियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों, विश्वविद्यालयों और जैन श्रत की प्रभावना में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि वे 'अनेकान्त' के ग्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनावें। और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। इतनी महंगाई में भी उसके मूल्य में कोई वृद्धि नहीं की गई, मूल्य वही ६) रुपया है। विद्वानों एवं शोधकार्य संलग्न महानुभावों से निवेदन है कि वे योग्य लेखों तथा शोधपूर्ण निबन्धों के संक्षिप्त विवरण पत्र में प्रकाशनार्थ भेजने की कृपा करें। -व्यवस्थापक 'अनेकान्त'

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