Book Title: Anekant 1954 03
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Jugalkishor Mukhtar

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Page 8
________________ ३०८ ] अनेकान्त [किरण सोच और समझ, यह नर भव अासान नहीं है, तात,मात, तेज तुरंग सुरंग भले रथ, मत्त मतंग उतंग खरे भ्रात, सुत दारा श्रादि सभी परिकर अपने अपने स्वार्थके ग़र्जी दास खबास अवास अटा, धनजोर करोरनकोश भरे है। तू नाहक पराये कारण अपनेको नरकका पात्र बना रहा ऐसे बढेतौ कहा भयो हेनर,छोरिचले उठिअन्त छरे। है। परकी चिंता में प्रात्म निधिको व्यर्थ क्यों खो रहा है, तू धाम खरे रहे काम परे रहे दाम डरे रहे ठाम धरे है मत भूल, यह दगा जाहिर है । उस ओर दृष्टि क्यों नहीं देता। लक्ष्मीके कारण जो अहंकार उत्पन्न होता है यह ज वह मनुष्यदेह दुर्लभ है, दाव मत चूक । जो अब चूक गए उसके नशेमें इतना मशगूल हो जाता है कि वह अर तो केवल पछतावा ही हाथ रहेगा, यह मानव रूपी हीरा तुझे कर्तव्यसे भी हाथ धो बैठता. है । ऐशो अशरतमें वैभव भाग्योदयसे मिला है तू अज्ञानी बन उसके मूल्यको न समझ नजारेका जब पागलपन सवार होता है तब वह अचिन्त कर व्यर्थ मत फैक । नटका स्वांग मत भर, यह आयु छिनमें एवं अकल्पनीय कार्य कर बैठता है, जिनकी कभी स्वप्न गल जायगी, फिर करोड़ों रुपया खर्च करने पर भी प्राप्त न भी पाशा नहीं हो सकती। मानो विवेक उसके हृदयसे कूच्च होगी, उठ जाग, और स्वरूपमें सावधान हो। कर जाता है, न्याय अन्यायका उसे कोई भान नहीं होता, यह माया उगनी है, झूठी है जगतको ठगती फिरती है, वह सदा अभिमानमें चूर रहता है, कभी कोमल दृष्टिसे जिसने इसका विश्वास किया वही पछताया, यह अपनी थोड़ी दूसरोंकी ओर झांक कर भी नहीं देखता, वह यह भी नहीं सी चटक मटक दिखा कर तुमे लुभाती है, यह कुल्टा है, सोचता कि आज तो मेरे वैभवका विस्तार है यदि कलको इसके अनेक स्वामी हो रहे हैं। परन्तु इसकी किसीसे भी यह न रहा तो मेरी भी इन रंकों जैसी दुर्दशा होगी, मुझे तृप्ति नहीं हुई, इसने कभी किसीके साथ भी प्रेमका बर्ताव कंगला बन कर पराये पैरोंकी खाक झाड़नी पड़ेगी। भूख, नहीं किया। श्रतः हे भूधर ! यह सब जगको भोंदू बनाकर गर्मी शर्दीकी व्यथा सहनी पड़ेगी। छलती फिरती है। तू इस मायाके चक्करमें व्यर्थ क्यों परेशान परन्तु फिर भी यह धन और जीवनसे राग रखता है तथा हो रहा है। यह माया तेरा कभी साथ न देगी, तू इसे नहीं विरागसे कोसों दूर भागता है। जिस तरह खर्गोश अपनी छोड़ेगा, तो यह तुझे छोड़ कर अन्यत्र भाग जायगी, माया प्रांखें बन्द करके यह जानता है कि अब सब जगह अन्धेरा कभी स्थिर नहीं रहती। इस तरह के अनेक दृश्य तूने अपनी हो गया है, मुझे कोई नहीं देखता कविने यही प्राशय अपने इन प्रांखोंसे देखे हैं, इसकी चंचलता और मेन्मोहकता निम्न पद्यमें अंकित किया है :लुभाने वाली है। जरा इस ओर मुके कि स्वहितसे वंचित 'देखो भर जोबनमें पुत्रको वियोग आयो, हुए । इतना सब कुछ होते हुए भी यह मानव मोहसे लक्ष्मी- तैसें ही निहारी निज नारी काल मग मैं । की ओर ही झुकता है, स्वात्मःकी ओर तो भूलकर भी नहीं जे जे पुण्यवान जीव दीसत हैं यान ही पे, देखता, परको उपदेश देता है, उन्हें मोह छोदनेकी प्रेरणा रंक भये फिरें तेऊ पनही न पगमै । करता है, पर स्वयं उसीमें मग्न रहना चाहता है । चाहता है एते पै अभाग धत-जीतबसौं धरै राग, किसी तरह धन इकट्ठा हो जाय तो मेरे सब कार्य पूरे होय न विराग जानै रहूँगौ अलगमैं । हो जावेंगे और धनाशा पूर्तिके अनेक साधनभी जुटाता है आखिन विलोकि अन्ध सू । अंधेरी करै, उन्हींकी चिन्तामें रात-दिन मग्न रहता है। रात्रिमें स्वप्न- ऐसे राजरोगको इलाज कहा जग में ॥ ३५॥ सागरमें मग्न हुअा अपनेको धनी और वैभवसे सम्पन्न सम हे भूधर ! तू क्या संसारकी इस विषम परिस्थितिसे झता है। पर अन्तिम अवस्थाकी ओर उसका कोई लक्ष्य परिचित नहीं है. और यदि है तो फिर पर पदार्थों में रागी भी नहीं होता। यही भाव कविने शतकके निम्न दो पद्योमें क्यों हो रहा है ? क्या उन पदार्थोंसे तेरा कोई सुहित हुश्रा व्यक्त किये हैं है, या होता है ? क्या तूने यह कभी अनुभब भी किया है चाहत हैं धन होय किसीविध,तो सब काज सरें जियराजी, कि मेरी यह परिणति दुखदाई है, और मेरी भूल ही मुझे गेहचिनायकरूंगहना कछु,व्याहिसुतासुत बांटिए भाजी। दुःखका पात्र बना रही है । जब संसारका अणुमात्र भी परचिंतत यौं दिन जाहिंचले,जम आन अचानक देतदगाजी पदार्थ तेरा नहीं है, फिर तेरा उस पर राग क्यों होता है ? खेलत खेलखिलारि गए, रहिजाइ रुपीशतरंजकी बाजी। चित्तवृत्ति स्वहितकी ओर न झुक कर परहितको ओर क्यों Jain Education International For Personal & Private Use Only www.lainelibrary.org

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